हर युग में क्रांतिकारी एक गलती बार-बार करते हैं- वे भविष्य को अतीत की छाया में तलाशते हैं। आज जब पूँजीवाद अपनी ही अंतर्विरोधों की वजह से चरमरा रहा है- तकनीकी विस्थापन, वित्तीय परजीविता, सामूहिक अस्थिरता- तब भी अधिकांश वामपंथी “कामगार वर्ग” में ही परिवर्तन की संभावना देखते हैं।
लेकिन “कामगार वर्ग” का अर्थ क्या है?
आमतौर पर इसका मतलब उन लोगों से लगाया जाता है जो नियमित रूप से वेतन के बदले श्रम करते हैं- फैक्ट्री मज़दूर, सेवा क्षेत्र के कर्मचारी, डिलीवरी बॉय आदि। लेकिन यह तस्वीर आज की हकीकत नहीं, एक कल्पनाशील प्रतीक बन चुकी है। इस शब्द में वे लोग स्वतः ही अदृश्य हो जाते हैं जो सबसे अधिक पीड़ित हैं- बेरोज़गार।
बेरोज़गार अब समाज के किनारे नहीं, बहुसंख्यक हो चुके हैं- शिक्षित युवा जिन्हें कोई काम नहीं, ठेके और ऐप आधारित “काम” करने वाले, ऐसे श्रमिक जिनके पास न सुरक्षा है, न निरंतरता, और वे समुदाय जो पूर्णतः आर्थिक व्यवस्था से बाहर फेंक दिए गए हैं।
फिर भी, अधिकांश वामपंथी विचारक- यहां तक कि विवेक चिब्बर जैसे प्रतिष्ठित बुद्धिजीवी- बेरोज़गारों को क्रांतिकारी योजना के केंद्र में स्थान नहीं देते। चिब्बर मानते हैं कि स्थायी रूप से काम कर रहे मज़दूर जोखिम नहीं उठाएंगे क्योंकि वे अपनी नौकरियाँ खोने से डरते हैं।
लेकिन इस यथार्थ के आगे बढ़ने के बजाय वे एक अव्यवहारिक समाधान सुझाते हैं: एक फंड बनाया जाए जो उन लोगों की मदद करे जो विरोध के कारण अपनी नौकरी खो दें।
यह सुझाव न केवल अव्यवहारिक है, बल्कि आलोचनात्मक सोच को वहीं रोक देता है। जब हम एक अस्थायी उपाय को ‘समाधान’ मान लेते हैं, तो दिमाग उस दिशा में सोचना बंद कर देता है। परंतु क्रांति वहीं जन्म लेती है जहाँ हम संघर्ष को अंत तक सोचते हैं।
बेरोज़गार केवल पीड़ित नहीं हैं- वे पूँजीवाद की सबसे नग्न विफलता का प्रतीक हैं। वे वो हैं जिन्हें यह व्यवस्था अब उपयोगी नहीं समझती- और यही उन्हें सबसे अधिक जागरूक और स्वतंत्र बनाता है। उनके पास खोने के लिए कुछ नहीं बचा। वे अब पूँजीवादी भ्रम से मुक्त हो चुके हैं।
वे “अन-उत्पादक” नहीं हैं। वे पूँजीवाद की सबसे विस्फोटक उपज हैं। वे “कामगार वर्ग” से बाहर नहीं हैं- वे उस वर्ग का सबसे तेज किनारा हैं। मार्क्स ने जिसे “श्रम आरक्षित सेना” कहा था, आज वही सेना सबसे विशाल और सबसे उपेक्षित है।
फिर वे विमर्श से गायब क्यों हैं?
क्योंकि भाषा हमें धोखा देती है। क्योंकि “कामगार” शब्द में गरिमा है और “बेरोज़गार” शब्द में विफलता की छवि।
क्योंकि हमारी राजनीतिक कल्पना अब भी पुराने ढांचे में कैद है।
यदि हमें पूँजीवाद से सच्चाई में टकराना है, तो हमें पुरानी श्रेणियों की मानसिक गुलामी छोड़नी होगी। हमें परिवर्तन की आशा उन लोगों में नहीं, बल्कि जहाँ यह व्यवस्था सबसे अधिक टूटी है, वहाँ तलाशनी होगी।
बेरोज़गार कोई बोझ नहीं हैं। वे अदृश्य अगुवा हैं। और भविष्य का निर्माण वे करेंगे- जो पूँजीवाद से त्याग दिए गए हैं और अब स्वयं उसे त्यागने के लिए तैयार हैं।
(डॉ. श्रीकांत पेशे से चिकित्सक और राजनीतिक चिंतक हैं)

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