बनारस। 28 अप्रैल की शाम वाराणसी के दशाश्वमेध घाट पर जो हुआ, वह केवल एक किशोर की पिटाई नहीं, बल्कि लोकतंत्र और न्याय व्यवस्था के चेहरे पर करारी चोट थी। गंगा आरती के दौरान 16 वर्षीय मोहम्मद रेहान घाट की सीढ़ियों पर बैठा था, तभी कुछ युवकों ने उसका नाम पूछा। जैसे ही उसने ‘रेहान’ कहा, उस पर बर्बर हमला कर दिया गया। रॉड और डंडों से पीटते हुए उसे एक कमरे में बंद कर दिया गया, जहां डेढ़ घंटे तक बेरहमी से उसकी उंगलियां मरोड़ी गईं, नाखून उखाड़ने की कोशिश की गई और शरीर नीला कर दिया गया।
घटना के बाद जब उम्मीद थी कि पीड़ित को न्याय मिलेगा, तब व्यवस्था ने चौंकाने वाला रूख अख्तियार किया। 30 अप्रैल को इलाज के बाद रेहान को न सिर्फ थाने ले जाया गया बल्कि वहां उसे अपराधी की तरह तीन घंटे तक पूछताछ की गई। केवल पुलिस ही नहीं, बल्कि एटीएस, आईबी और लोकल इंटेलिजेंस यूनिट की टीमों ने भी रेहान को कटघरे में खड़ा कर दिया। पूछताछ का फोकस हमले पर नहीं, इस पर था कि रेहान घाट पर क्यों गया था? किससे मिला? पिछले 48 घंटे में उसकी मोबाइल लोकेशन क्या थी?
इस प्रक्रिया के बाद देर रात किशोर रेहान को गिरफ्तार कर एसीपी कोर्ट में पेश किया गया। दो जमानतदारों के बाद उसे छोड़ा गया, लेकिन तब तक उसका भरोसा, उसकी आत्मा और शरीर सब कुछ टूट चुका था। दूसरी ओर, जिन लोगों ने हमला किया-शिवम गुप्ता, सुशांत मिश्रा और हनुमान यादव आदि के खिलाफ एफआईआर दर्ज होने के बावजूद पुलिस अब तक उन्हें गिरफ्तार नहीं कर पाई है। ये सभी गंगा सेवा निधि से जुड़े हैं, जो दशाश्वमेध घाट पर गंगा आरती करवाती है। पुलिस ने गंगा आरती के संचालकों से यह भी पूछने की कोशिश नहीं की कि मौके पर सीसीटीवी क्यों नहीं लगाए गए हैं। पुलिस सफाई पेश कर रही है कि घाट पर दबिश दी गई, लेकिन कोई नहीं मिला।

दशाश्वमेध वही घाट है, जिसे लेकर दो साल पहले ‘गैर-हिंदुओं का प्रवेश वर्जित’ जैसे भड़काऊ पोस्टर लगाए गए थे। बजरंग दल और विश्व हिंदू परिषद के नेताओं ने खुलेआम धमकी दी थी कि गंगा घाट हिंदुओं के हैं और गैर-हिंदुओं को यहां से खदेड़ा जाएगा। उस वक्त कोई कानूनी कार्रवाई नहीं हुई, जिससे आज की घटना की जमीन तैयार हुई।
कैसे हुई वारदात?
दशाश्वमेध घाट पर आरती का समय था। चारों ओर मंत्रोच्चार और घंटियों की गूंज के बीच एक युवक गंगा के किनारे शांति की तलाश में बैठा था। वह थका हुआ था। पूरे दिन की मेहनत के बाद कुछ पल सुकून चाहता था, लेकिन उस शाम उसकी किस्मत में शांति नहीं, बर्बरता लिखी थी। कुछ युवकों का झुंड घाट पर आया और उसकी ओर बढ़ा। एक साधारण-सा सवाल पूछा गया नाम क्या है? जवाब मिला, और उसी पल जैसे सब कुछ बदल गया। नाम ने उसकी पहचान तय कर दी और पहचान ने अपराध का रूप ले लिया।
उसे खींचकर एक मंदिर के कमरे में बंद कर दिया गया। फिर शुरू हुआ हिंसा का वह सिलसिला, जिसकी कल्पना भी कोई नहीं कर सकता। उसे बेरहमी से पीटा गया। शरीर पर लाठियों और रॉड्स की चोटें, उंगलियों को मरोड़ना, नाखून उखाड़ने की कोशिश। हर चीख, हर गुहार हमलावरों के भीतर छिपे नफ़रत के सन्नाटे में खोती गई। यह लड़का कोई अपराधी नहीं था। वह मेहनतकश था, अपने घर की ज़िम्मेदारियों को निभा रहा था। उसका गुनाह सिर्फ इतना था कि उसका नाम एक खास धर्म से जुड़ा था।

जब वह बेहोश होकर गिर पड़ा, तो हमलावर उसे वहीं छोड़कर चले गए। किसी तरह होश में आने के बाद वह घिसटते हुए अपने घर पहुंचा। परिवार उसे अस्पताल लेकर गया, जहां उसका लहूलुहान शरीर, सूजी हुई आंखें और टूटे हुए हौसले देखकर हर किसी का दिल कांप गया। उसके पिता की आंखों में आंसू नहीं, सवाल थे, “क्या अब नाम ही सज़ा का आधार बन गया है?” उन्होंने स्पष्ट कहा कि हमलावरों से उनका कोई व्यक्तिगत विवाद नहीं था। यह हमला एक सोच पर था, एक पहचान पर, और शायद एक समुदाय को डराने की कोशिश भी।
न्याय की उम्मीद या राजनीति का पर्दा?
घटना के बाद तीन नाम सामने आते हैं-शिवम गुप्ता, सुशांत मिश्रा और हनुमान यादव। पुलिस कहती है कि एफआईआर दर्ज कर ली गई है, BNS 2023 की धाराएं 115(2) और 191 लागू हैं। लेकिन यही सवाल उठता है कि क्या सिर्फ हत्या के प्रयास और दंगे की धारा काफ़ी है? कहां हैं वो धाराएं जो नफरत फैलाने, सांप्रदायिकता भड़काने, जानबूझकर धार्मिक पहचान के आधार पर हमले जैसी स्थिति में लगाई जानी चाहिए थीं? पुलिस के इस “संविधानिक संतुलन” में पीड़ित के ज़ख्म अनदेखे कर दिए गए हैं।
पीड़ित किशोर के अधिवक्ता अबू आसिम कहते हैं, “मुहम्मद रेहान अभी अस्पताल से ही डिस्चार्ज हुआ था। उसके जिस्म पर गहरे ज़ख़्म थे। फिर भी उसे थाने बुलाया गया। कहा गया कि मौके का नक्शा बनवाना है, लेकिन जब रेहान वापस लौटना चाह रहा था, तब बताया गया कि उस पर 151 में चालान हो चुका है, यानी उसे शांति भंग करने के आरोप में गिरफ़्तार कर लिया गया।”
अबू आसिम आगे बताते हैं, “थाने में हम तीन घंटे तक बैठे रहे, बेल बांड की प्रक्रिया चल रही थी। तभी दो लोग सादी वर्दी में आए। कौन थे, हमें नहीं बताया गया? उन्होंने रेहान से करीब डेढ़ घंटे तक लगातार पूछताछ की। पूछताछ के दौरान रेहान से उसके दोस्तों के नाम, उनके पते, आईडी कार्ड तक पूछे गए। जैसे वह कोई अभियुक्त हो, न कि एक पीड़ित। तमाम हिदायतों के बाद जाकर उसे छोड़ा गया।”
अबू आसिम सवाल उठाते हैं, “अगर पुलिस कह रही है कि लड़की के साथ छेड़खानी हुई है, तो पहले ये बताए कि वो लड़की है कौन? कहां है? अगर नहीं है, तो फिर पुलिस ने इस झूठे आरोप में कोई कानूनी कार्रवाई क्यों नहीं की? क्या सिर्फ इसलिए कि पीड़ित एक मुसलमान लड़का है?”
वो आगे कहते हैं, “घाट पर जो आरती होती है, वहां गंगा निधि समिति के लोग होते हैं। उन्हीं में से कुछ आरोपी हैं। अगर किसी को छेड़खानी की आशंका भी हुई थी, तो क्या समिति के जिम्मेदार लोगों ने पुलिस को सूचना दी? क्या उन्होंने कैमरे की फुटेज दी? लाइव कैमरे वहां होते हैं, सीसीटीवी हर ओर लगे हैं, तो फिर पुलिस अब तक वो फुटेज क्यों नहीं दिखा रही? क्यों मीडिया को सही सच्चाई से दूर रखा जा रहा है?”
सबसे बड़ा सवाल जो अधिवक्ता अबू आसिम पुलिस से पूछते हैं, “अभियुक्तों की गिरफ्तारी में टालमटोल क्यों हो रही है? क्या इसलिए कि उनका जुड़ाव सत्ता पक्ष से है? या इसलिए कि मामला एक ‘रेहान’ से जुड़ा है, न कि किसी रसूख़दार से? यह न सिर्फ़ न्याय व्यवस्था पर, बल्कि पूरे समाज के चरित्र पर भी एक गंभीर सवाल खड़ा करता है। चार दिन हो गए, लेकिन कोई गिरफ्तारी नहीं। आरोपी कहां हैं? पुलिस कहती है कि “प्रक्रिया चल रही है।” क्या ये वही “प्रक्रिया” है जो पहचान देखकर तेज़ या धीमी होती है? “
वाराणसी के मुफ्ती मौलाना बातिन ने इस घटना को धार्मिक घृणा फैलाने की साजिश बताया। उन्होंने कहा, “दोषियों को सामने लाना चाहिए।” वहीं, पुलिस ने केवल दशाश्वमेध के थाना प्रभारी को लाइन हाजिर किया है, लेकिन मुख्य सवाल अब भी कायम है कि जब गुनहगार खुले घूम रहे हों और पीड़ित पूछताछ में फंसा हो, तब इस मुल्क में इंसाफ किसके साथ है?
पुलिस कमिश्नर से न्याय की गुहार
मोहम्मद रेहान के खिलाफ पुलिसिया कार्रवाई से बनारस का प्रबुद्ध जनमानस आहत है। इनका कहना है कि पीड़ित के खिलाफ पुलिस का दुर्व्यवहार अक्षम्य है। साझा संस्कृति मंच के प्रतिनिधियों ने 02 मई को बनारस के सहायक पुलिस कमिश्नर से मुलाकात की। गंगा आरती के दौरान दशाश्वमेध घाट पर मुस्लिम किशोर रेहान के साथ हुई मारपीट की घटना को लेकर वाराणसी की साझा संस्कृति मंच ने आज पुलिस कमिश्नर को एक विस्तृत और भावनात्मक ज्ञापन सौंपा। मंच ने इस घटना को काशी की गंगा-जमुनी तहज़ीब पर सीधा हमला करार देते हुए गहरी चिंता व्यक्त की है।

बनारस के सामाजिक कार्यकर्ताओं ने सहायक पुलिस कमिश्नर को बताया कि 28 अप्रैल की शाम जब पूरा घाट मंत्रों और दीपों की रोशनी में आलोकित था, तब गंगा आरती देखने गए रेहान नामक किशोर को उसकी धार्मिक पहचान के आधार पर कुछ असामाजिक तत्वों ने बेरहमी से पीटा। रेहान का आरोप है कि उसे गंगा सेवा निधि के कार्यालय में खींचकर ले जाया गया और वहां करीब डेढ़ घंटे तक पशुवत व्यवहार किया गया। यह घटना न केवल एक मासूम बच्चे पर हमला है, बल्कि यह उस साझी सांस्कृतिक परंपरा पर भी चोट है जो काशी की आत्मा मानी जाती है।
साझा संस्कृति मंच ने यह भी गंभीर आपत्ति जताई कि घायल रेहान को इलाज के दौरान ही 30 अप्रैल को थाने ले जाया गया, जहां उसे घंटों बैठाए रखा गया और शाम को धारा 151 के तहत चालान की प्रक्रिया शुरू कर दी गई। मंच ने पुलिस की इस असंवेदनशीलता को दुर्भाग्यपूर्ण बताया और कहा कि इस पूरे घटनाक्रम ने पुलिस की भूमिका पर कई सवाल खड़े कर दिए हैं।

दशाश्वमेध घाट एक सार्वजनिक स्थल है जहां हर धर्म, जाति और समुदाय के लोगों को बराबरी से आने का हक है। वहां किसी को उसकी धार्मिक पहचान के आधार पर रोकना या धमकाना भारतीय संविधान और काशी की परंपरा, दोनों के खिलाफ है। रेहान और उसकी मदद करने वालों के साथ जिस प्रकार की साम्प्रदायिक भाषा का प्रयोग हुआ, वह न केवल निंदनीय है, बल्कि सामाजिक ताने-बाने को नुकसान पहुंचाने वाला है।
साझा संस्कृति मंच ने यह भी कहा कि इस हमले के जिम्मेदार लोग अब तक गिरफ्तार नहीं किए गए हैं, जबकि यह साफ तौर पर धार्मिक पहचान को निशाना बनाकर किया गया हमला था। ऐसी स्थिति में आरोपियों के खिलाफ हत्या के प्रयास, सांप्रदायिक विद्वेष फैलाने और मारपीट जैसी गंभीर धाराओं में मुकदमा दर्ज कर उन्हें शीघ्र गिरफ्तार किया जाना चाहिए। घटना के समय घाट पर मौजूद पुलिसकर्मियों की भूमिका भी स्पष्ट नहीं है। क्या वे सिर्फ मूकदर्शक बने रहे? क्या उन्होंने हस्तक्षेप किया? इस पर भी निष्पक्ष जांच की मांग की गई है।
साथ ही, गंगा सेवा निधि के परिसर में रेहान के साथ मारपीट के आरोपों की भी उच्चस्तरीय जांच होनी चाहिए, क्योंकि यदि घाट की प्रतिष्ठित संस्थाएं भी इस प्रकार के कृत्यों में संलिप्त पाई जाती हैं, तो यह काशी के नाम पर बड़ा कलंक होगा। इस घटना के बाद सबसे चिंताजनक तथ्य यह सामने आया कि इतने प्रमुख धार्मिक और सांस्कृतिक स्थल पर उस समय CCTV कैमरे सक्रिय नहीं थे। देश-विदेश से आने वाले पर्यटकों की सुरक्षा के लिहाज़ से यह एक बड़ी लापरवाही है।

साझा संस्कृति मंच ने कमिश्नर को संबोधित सौंपे ज्ञापन कहा है कि जहां एक ओर काशी के संकटमोचन मंदिर में मुस्लिम कलाकारों को आमंत्रित कर सम्मानित किया जाता है, वहीं दूसरी ओर इस प्रकार की साम्प्रदायिक घटनाएं इस सौहार्द की भावना पर गहरा आघात हैं। ऐसे प्रयासों को शुरू में ही कुचल देना चाहिए, ताकि काशी की आत्मा सुरक्षित रह सके। ज्ञापन के अंत में मंच ने कहा, “काशी वह नगर है जहां तुलसी और कबीर की वाणी एक साथ गूंजती है, जहां घाटों पर शांति बसती है, नफ़रत नहीं। यदि वहां एक मासूम किशोर सिर्फ इसलिए पीटा जाए कि वह किसी विशेष धर्म से है, तो यह पूरे शहर के माथे पर एक गहरा धब्बा है।”
साझा संस्कृति मंच ने पुलिस कमिश्नर से इस पूरे प्रकरण में संवेदनशील, निष्पक्ष और त्वरित कार्यवाही की मांग करते हुए आग्रह किया कि दोषियों को सजा मिले और यह सुनिश्चित किया जाए कि भविष्य में किसी भी धर्म या समुदाय का कोई भी बच्चा काशी की ज़मीन पर असुरक्षित महसूस न करे। गंगा आरती के दौरान दशाश्वमेध घाट पर मुस्लिम किशोर रेहान के साथ हुई मारपीट की घटना को लेकर वाराणसी की साझा संस्कृति मंच ने आज पुलिस कमिश्नर को एक विस्तृत और भावनात्मक ज्ञापन सौंपा। मंच ने इस घटना को काशी की गंगा-जमुनी तहज़ीब पर सीधा हमला करार देते हुए गहरी चिंता व्यक्त की है।

साझा संस्कृति मंच ने यह भी गंभीर आपत्ति जताई कि घायल रेहान को इलाज के दौरान ही 30 अप्रैल को थाने ले जाया गया, जहां उसे घंटों बैठाए रखा गया और शाम को धारा 151 के तहत चालान की प्रक्रिया शुरू कर दी गई। मंच ने पुलिस की इस असंवेदनशीलता को दुर्भाग्यपूर्ण बताया और कहा कि इस पूरे घटनाक्रम ने पुलिस की भूमिका पर कई सवाल खड़े कर दिए हैं। साझा संस्कृति मंच ने पुलिस कमिश्नर से इस पूरे प्रकरण में संवेदनशील, निष्पक्ष और त्वरित कार्यवाही की मांग करते हुए आग्रह किया कि दोषियों को सजा मिले और यह सुनिश्चित किया जाए कि भविष्य में किसी भी धर्म या समुदाय का कोई भी बच्चा काशी की ज़मीन पर असुरक्षित महसूस न करे। इस मौके पर किसान नेता रामजनम के अलावा एक्टिविस्ट मनीष शर्मा, धनंजय त्रिपाठी, जागृति राही, सतीश सिंह, डा.अनूप श्रमिक, डा.नीति कुशवाहा, जुबैर आदिल, अधिवक्ता नीता चौबे और अबू आसिम आदि प्रमुख लोग मौजूद थे।
बनारस की आत्मा पर हमला
बनारस के जाने-माने किसान नेता रामजनम ने ‘जनचौक’ से कहा कि यह हमला किसी व्यक्ति विशेष पर नहीं, बल्कि पूरे सामाजिक तानेबाने और बनारस की गंगा-जमुनी तहजीब पर हमला है। वह घाट, जो मोक्ष का प्रतीक माना जाता था, अब एक अल्पसंख्यक किशोर की चीखों का गवाह बन गया है। पुलिस की भूमिका पर गंभीर सवाल हैं कि आरोपी अब तक आज़ाद क्यों हैं? अभियुक्तों पर एक्शन करने के बजाय पीड़ित से पूछताछ और गिरफ्तारी पहले क्यों हुई? क्यों घटना को ‘आपसी विवाद’ कहकर सांप्रदायिक पहलू को क्यों छिपाया जा रहा है? इस घटना ने न केवल बनारस की आत्मा को लहूलुहान किया है, बल्कि पूरे देश को यह सोचने पर मजबूर कर दिया है कि क्या अब घाट पर बैठने का हक भी नाम देखकर तय होगा?
मोहम्मद रेहान के मुद्दे को रेखांकित करते हुए रामजनम यह सवाल उठाते हैं, ” क्या अब इंसाफ भी बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक की पहचान में बंट चुका है? मोहम्मद रेहान अब सिर्फ एक किशोर नहीं। वह एक प्रतीक है, उस डर का, उस अन्याय का, उस खामोशी का, जो व्यवस्था में घर कर गई है। दशाश्वमेध घाट अब सिर्फ आरती का स्थल नहीं, बल्कि उस चीख की प्रतिध्वनि बन चुका है, जो इंसाफ के लिए उठी थी… और जिसे व्यवस्था ने अनसुना कर दिया। रेहान की कहानी अकेली नहीं है। यह उस दौर की कहानी है जहां नाम पूछकर न्याय नहीं, नफ़रत बांटी जा रही है। यह सवाल हम सबके सामने है कि अब सुकून तलाशने निकला एक किशोर क्यों सुरक्षित नहीं है? “

संस्कृति साझा मंच से जुड़े धनंजय त्रिपाठी कहते हैं, “वाराणसी के दशाश्वमेध घाट पर एक मुस्लिम किशोर की बर्बर पिटाई का मामला अब एक नए मोड़ पर पहुंच चुका है। पहले जहां यह घटना धार्मिक पहचान को लेकर मारपीट के तौर पर सामने आई थी जिसे दबाने के लिए पुलिस फर्जी कहानियां गढ़ रही है। एक नाबालिग की बेतरतीब पिटाई और फिर उसकी सघन पूछताछ, क्या हमारी न्याय प्रणाली का नया चेहरा बन चुकी है? कितनी अजीब बात है कि अस्पताल से छुट्टी मिलते ही पुलिस ने किशोर को बिना वक्त गंवाए हिरासत में ले लिया। दशाश्वमेध थाने में उसे लाया गया और बाद में पुलिस लाइन ले जाया गया, जहां खुफिया एजेंसियों की टीमें पहले से मौजूद थीं। अगले तीन घंटे तक उसे एक अपराधी की तरह कई चरणों में पूछताछ किया गया। उसका मोबाइल खंगाला गया और जीपीस लोकेशन से घाट तक के मूवमेंट को मैप से मिलाया गया। जांच-पड़ताल में मिला कुछ भी नहीं, लेकिन नफरत की दीवार खड़ी कर दी गई।”
एक्टिविस्ट डा.अनूप श्रमिक कहते हैं, “जो किशोर पहले पीटने का शिकार था, उसे ही अब घेरा जा रहा है। पीड़ित के खिलाफ फर्जी केस दर्ज किया जाना इस बात का द्योतक है कि बनारस में जिनके सिर पर सत्ता का हाथ है, पुलिस उनके हर गुनाह माफ कर सकती है और आभियुक्तों को आजाद भी कर सकती है। कितनी अजीब बात है कि पीड़ित किशोर मोहम्मद रेहान को पुलिस लाइंस स्थित एक पुलिस अफसर के कोर्ट में घंटों बाद सुनवाई हुई और दो जमानतदारों के शपथपत्र के आधार पर ही उसे ज़मानत दी गई।”
“पिटाई करने वाले आरोपियों को पकड़ने में पुलिस हीला-हवाली कर रही है। अधिकतर आरोपी ‘गंगा सेवा निधि’ नामक संस्था से जुड़े हैं, जो दशाश्वमेध घाट पर नियमित गंगा आरती का आयोजन करती है। घटना स्थल पर पुलिस की छानबीन के बावजूद रेहान का कोई गुनाह साबित नहीं हुआ है। सवाल ये है कि पीड़ित को घायलावस्था में कई स्थान पर क्यों घुमाया गया और आरोपी अब तक क्यों नहीं पकड़े गए? इस शर्मनाक कृत्य के लिए वे तमाम ताकतें जिम्मेदार हैं जो धर्म के आधार पर बांटने और नफरत फैलाने में यकीन रखती हैं।”

एक्टिविस्ट डा.नीति कुशवाहा कहती हैं, “हमें यह भी महसूस होता है कि नफरत और विघटन फैलाकर बनारस की शांति को भंग करने की गंभीर साजिश रची जा रही है। जिन घाटों पर मीर और गालिब जैसे शायरों ने वक्त गुजारा, जिनके किनारे नज़ीर बनारसी ने गंगा की पाकीज़गी को अपनी कलाम में जगह दी, उन पावन स्थलों पर वैमनस्य फैलाना अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण है। धार्मिक आधार पर गंगा घाटों पर हिंसा करना या प्रवेश पर रोक के पोस्टर चिपकाना न केवल काशी की गरिमामयी विरासत का अपमान है, बल्कि हमारे साझा सांस्कृतिक मूल्यों पर भी आघात है। और यह तथ्य कि अब तक आरोपियों की गिरफ्तारी नहीं हुई है, स्थानीय प्रशासन और पुलिस की मंशा पर भी गंभीर सवाल खड़े करता है।”
बनारस की जानी-मानी अधिवक्ता अधिवक्ता नीता चौबे कहती हैं, “काशी जैसे सांस्कृतिक रूप से समृद्ध और परंपराओं से ओतप्रोत नगर में यदि सार्वजनिक धार्मिक स्थलों पर भय और हिंसा का माहौल आकार लेने लगे, तो यह न केवल प्रशासन के लिए चेतावनी है, बल्कि समाज की संवेदनशीलता पर भी सवालिया निशान है। ऐसे समय में जब पुलिस महज़ ‘जांच जारी है’ जैसे रूढ़िवादी बयान देकर अपनी जवाबदेही से पल्ला झाड़ रही हो, तब यह रवैया न्याय के अधिकार से वंचित किए जा रहे पीड़ितों के लिए गहरी पीड़ा और असुरक्षा का कारण बन जाता है। अब आवश्यक हो गया है कि शासन और प्रशासन पूर्ण निष्पक्षता, मानवीयता और तत्परता के साथ हालात को संभालें अन्यथा काशी की सांस्कृतिक आत्मा पर एक ऐसा घाव बन सकता है जो लंबे समय तक नहीं भर पाएगा।”
नीता यह भी कहती हैं, “बनारस न तो गुण्डागर्दी का गढ़ है, न ही दहशतगर्दी का पर्याय। यह उन लोगों की धरती है जो अपने विचारों, शब्दों और कर्मों में भाईचारे, समरसता और मानवीय मूल्यों को सर्वोपरि मानते हैं। गंगा, जो काशी की आत्मा है, किसी एक समुदाय की नहीं, बल्कि उन सभी श्रद्धालुओं की है जिनके भीतर इसकी निर्मलता के प्रति सच्ची आस्था और सम्मान है। आज जब धर्म के नाम पर दूसरों को अपमानित करने और बहिष्कृत करने की प्रवृत्ति खुलकर सामने आ रही है, तब यह संकट सिर्फ बनारस का नहीं रह जाता, बल्कि यह समूचे देश की आत्मा पर एक गहरा आघात बन जाता है।”
(विजय विनीत बनारस के वरिष्ठ पत्रकार हैं)
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