आग और धुएं के साये में ईश्वर, मनुष्य और मृत्यु की एक समान ख़ामोशी

जब वह विमान अहमदाबाद के आकाश में फटा और आग की लपटों में धरती से टकराया, तब उसमें बैठे सभी लोग- आस्तिक, नास्तिक, धार्मिक, तर्कवादी एक ही परिणति को प्राप्त हुए और वह थी-मृत्यु का मौन।

कुछ ने शायद अंतिम क्षणों में प्रार्थना की होगी, किसी ईश्वर का नाम लिया होगा। कुछ ने शायद आंखें मूँदकर मृत्यु को स्वीकारा होगा, और कुछ ने डर से चीख़ लगाई होगी। लेकिन, वह आग किसी की आस्था या अविश्वास को नहीं पहचानती थी। उसने सबको एक समान निगल लिया।

यह दुर्घटना केवल एक समाचार नहीं है, यह हमारे भीतर के सबसे पुराने सवालों को फिर से जगा देती है कि क्या ईश्वर इस दुख में कहीं मौजूद है? या ईश्वर की अनुपस्थिति ही इस दुख का कारण है?

इस निबंध में इन प्रश्नों का किसी भी तरह का उत्तर देने का दावा नहीं किया गया है, बल्कि उस पीड़ा, उस शून्यता और उस मानवीय असहायता को समझने का एक प्रयास किया गया है, जो किसी भी धर्म, दर्शन या विचारधारा से परे चले जाती है।

आकाश में विश्वास: आस्तिकों की अंतिम उड़ान

उस विमान में बैठे कई लोग विभिन्न धर्मों- हिंदू, मुस्लिम, ईसाई, सिख के अनुयायी रहे होंगे। कुछ ने शायद मंत्र पढ़े होंगे, कुछ ने कलमा पढ़ा होगा, कुछ ने माला थामी होगी। शायद उन्हें विश्वास रहा होगा कि ईश्वर उनकी रक्षा करेगा, या मृत्यु के बाद उन्हें किसी और लोक में शांति मिलेगी।

लेकिन, जब वह विश्वास आग और गुरुत्वाकर्षण से टकराता है, जब एक बच्चा जलता है, जब एक मां चीखती है, जब प्रार्थनाएं अनसुनी रह जाती हैं, तब क्या होता है ?

क्या ईश्वर की चुप्पी इस विश्वास का पतन है? या फिर यह हमारी अपेक्षाओं की सीमाएं हैं, जो टूटती हैं ?

धर्म मृत्यु को अर्थ देता है, लेकिन मृत्यु को टाल नहीं सकता। यह ईश्वर की अनुपस्थिति नहीं है, शायद वह हमारी पीड़ा में छिपा मौन है, जिसे हम समझ नहीं पाते।

नास्तिक की पीड़ा: तर्क की अंतिम सीमा

उस विमान में कुछ ऐसे भी रहे होंगे, जो ईश्वर में विश्वास नहीं रखते रहे हों। जिनके लिए मृत्यु केवल एक जैविक प्रक्रिया है, न कोई स्वर्ग, न कोई पुनर्जन्म। केवल अंधेरा, केवल अंत।

ऐसे लोगों ने शायद अंतिम क्षणों में कोई प्रार्थना भी नहीं की होगी। लेकिन, क्या तर्क इस दुख को कम कर देता है ? क्या वैज्ञानिक दृष्टिकोण से मृत्यु को समझ लेने मात्र से उसका दर्द मिट जाता है ?

या फिर नास्तिक भी संकट की उस घड़ी में किसी अनजान ताकत को पुकार उठता है? क्या बचपन की दबी हुई प्रार्थनाएं फिर से ज़बान पर आ जाती हैं ?

नास्तिक के लिए मृत्यु अंतिम सत्य है, परंतु उसका शोक उतना ही गहरा होता है, जितना किसी आस्तिक का। दोनों की आंखों से आंसू बहते हैं। और उन आंसुओं का कोई धर्म नहीं होता।

मृत्यु की समता: ईश्वर भेद नहीं करता, पर आग भी कहां भेद करती है  

इस दुर्घटना ने यह साफ़ कर दिया कि मृत्यु के सामने धर्म, जाति, भाषा, आस्था, अविश्वास सब व्यर्थ हैं। किसी के धार्मिक होने से वह बच नहीं सका, और किसी के नास्तिक होने से वह अधिक पीड़ा में नहीं था।

मृत्यु ने सबको एक ही चादर में लपेटा। यह अंतिम समता है, जहां हम सब केवल मनुष्य रह जाते हैं, न हिंदू, न मुस्लिम, न वैज्ञानिक, न भक्त- केवल और केवल नश्वर प्राणी।

ईश्वर एक प्रतीक: पीड़ा में करुणा की खोज

जब ऊपर से कोई ईश्वरीय हस्तक्षेप नहीं होता, तो कुछ लोग ईश्वर को एक और रूप में खोजते हैं ,वह रूप है-मानवता।

वह डॉक्टर, जो बिना थके शवों की पहचान करता है; वह पड़ोसी, जो रोते बच्चे को चुप कराता है; वह अजनबी, जो अस्पताल में रक्तदान करता है, शायद ये सब ही असली ईश्वर हैं।

शायद ईश्वर कोई शक्ति नहीं, बल्कि हमारा वह व्यवहार है, जिसमें दया, संवेदना, और साथ खड़े होने की इच्छाशक्ति होती है।

“क्यों?” का शून्य: जब ब्रह्मांड मौन है

इस तरह की हर दुर्घटना के बाद एक ही प्रश्न बार-बार लौट आता है, वह है- “क्यों?”

क्यों एक बच्चा मारा गया? क्यों वह महिला, जो रोज़ मंदिर जाती थी, नहीं बच सकी ? क्यों इतने लोग, जो निर्दोष थे, आग में जलकर भस्म हो गए ?

क्या यह ईश्वर की इच्छा थी? या बस एक तकनीकी गलती? क्या कोई कारण था? या यह ब्रह्मांड का निरर्थक अंधकार है ?

शायद यह वही जगह है, जहां धर्म और तर्क दोनों मौन हो जाते हैं। क्योंकि कुछ घटनाएं समझ से परे होती हैं, और उन्हें बस महसूस किया जा सकता है।

ईश्वर हो या न हो, हम तो हैं

अहमदाबाद की इस दुखद त्रासदी के बाद ईश्वर के पक्ष या विपक्ष में सभी तर्क मौन हो जाते हैं। नास्तिक और आस्तिक दोनों शोक मनाते हैं, कोई प्रार्थना के साथ, कोई चुपचाप।

पर एक बात साफ़ है-ईश्वर हो या न हो, इंसानियत ज़रूर होनी चाहिए।

शायद यही वह स्थान है, जहां हम सभी फिर से मिलते हैं, न तर्क करने के लिए, न उपदेश देने के लिए, बल्कि सिर्फ़ गले लगाने के लिए।

इसलिए, जब धुआं छंटेगा, जब समाचार फीके पड़ेंगे, तब भी वह शोक रहेगा और उस शोक में ही शायद हम ईश्वर को, या कम से कम, एक-दूसरे को हासिल कर सकेंगे।

(उपेंद्र चौधरी वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

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