उत्तराखंड लोक सेवा आयोग (यूकेएसएसएससी) द्वारा रविवार, 29 जून को आयोजित उत्तराखंड सम्मिलित राज्य सिविल/प्रवर अधीनस्थ सेवा (प्रारंभिक) परीक्षा – 2025 में मात्र 50.47 प्रतिशत अभ्यर्थी ही परीक्षा केंद्रों तक पहुंचे यानी लगभग 49.53 प्रतिशत या 50,000 से अधिक अभ्यर्थियों ने परीक्षा में भाग नहीं लिया, जबकि उन्होंने इसके लिए आवेदन अवश्य किया था पिछले वर्ष 2024 में इसी परीक्षा में 47.67 प्रतिशत ही परीक्षार्थी उपस्थित हुए थे,जबकि आवेदकों की कुल संख्या करीब 1.5 लाख थी।इस बार आवेदन संख्या घटी है 1,01,964 अभ्यर्थियों ने आवेदन किया लेकिन अनुपस्थित रहने वालों की संख्या अब भी लगभग आधी बनी हुई है।
सरकार और आयोग इसे “बारिश के बावजूद भागीदारी में वृद्धि” कहकर अपनी पीठ खुद ठोक रहे हैं।लेकिन इस सतही संतोष के पीछे कुछ गहरे और चिंताजनक सवाल छिपे हैं। आखिर, बेरोजगारी के इस युग में जब अग्निवीर योजना के तहत महज़ चार साल की नौकरी के लिए हजारों युवा दौड़ते-भागते हैं, चतुर्थ श्रेणी की नौकरी के लिए पीएचडी और एमए पास युवा आवेदन करते हैं, तब राज्य की एक प्रतिष्ठित और स्थायी सरकारी सेवा के लिए युवाओं की ऐसी उदासीनता क्यों?
विश्वसनीयता पर संकट
उत्तराखंड लोक सेवा आयोग पिछले कुछ वर्षों से लगातार विवादों में रहा है। 2022-23 में आयोग की पटवारी-लेखपाल परीक्षा का पेपर लीक हुआ, जिसके बाद राज्य सरकार को आयोग का चेयरमैन तक बदलना पड़ा। इसके पहले यू के एस एस एस सी द्वारा आयोजित वन दरोगा, स्नातक स्तरीय, कंप्यूटर ऑपरेटर जैसी परीक्षाओं में भी धांधली, पेपर लीक, और नकल माफिया के गठजोड़ के आरोप लगे। राज्य के लगभग 70 प्रतिशत भर्ती घोटालों की जांच एसटीएफ और विजिलेन्स कर रही हैं, परंतु दोषियों को सजा मिलने की रफ्तार बेहद धीमी है। इससे युवा पीढ़ी का सिस्टम से भरोसा टूटना स्वाभाविक है। जब परीक्षाएं समय पर नहीं होतीं, होती हैं तो पेपर लीक हो जाता है, और लीक होता है तो दोबारा परीक्षा तक सालों लग जाते हैं—तब युवाओं के लिए यह केवल परीक्षा नहीं, बल्कि मानसिक प्रताड़ना बन जाती है।
सिर्फ आवेदन कर देना भागीदारी नहीं बनाता
अक्सर यह माना जाता है कि आवेदन संख्या ही परीक्षा की सफलता का संकेत है। लेकिन 1 लाख से अधिक युवाओं द्वारा आवेदन करना और उनमें से केवल आधों का परीक्षा में बैठना, यह साफ़ बताता है कि युवाओं में परीक्षा को लेकर गंभीरता तो है, लेकिन परीक्षा प्रणाली में विश्वास नहीं। कई अभ्यर्थियों से बातचीत में सामने आया कि उन्हें डर था कि कहीं फिर पेपर लीक न हो जाए, कहीं यह परीक्षा भी रद्द न हो जाए, या इसमें चयन के बाद भी कोर्ट केस और जांच में नौकरी अटक न जाए। यह डर इस हद तक हावी है कि वे यात्रा खर्च, समय, और मानसिक ऊर्जा लगाने से हिचकते हैं।
शासन-प्रशासन की जिम्मेदारी क्या?
यह बहस अब ज़रूरी हो गई है कि क्या सरकार और आयोग की भूमिका केवल परीक्षा आयोजित कर देना भर है? क्या यह उनकी जिम्मेदारी नहीं कि जो युवा आवेदन करते हैं, उन्हें परीक्षा तक लाने के लिए प्रेरित, आश्वस्त और संरक्षित करें? सरकारी नौकरी की परीक्षा कोई त्योहार नहीं है जो स्वयं आकर्षण का केंद्र हो। जब एक पूरा सिस्टम बार-बार अपनी विश्वसनीयता खोता है, तब केवल परीक्षा केंद्रों पर समय से दरवाज़े खोल देना पर्याप्त नहीं। युवाओं को व्यवस्था पर भरोसा दिलाना और उन्हें यह अहसास कराना कि उनका भविष्य राज्य के लिए भी मायने रखता है, यह आज की सबसे बड़ी ज़िम्मेदारी है।
बेरोजगारी दर और सरकारी भर्ती का विरोधाभास
सीएमआईई (सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी)की रिपोर्ट के अनुसार उत्तराखंड की बेरोजगारी दर मई 2025 तक 7.6 प्रतिशत रही, जो राष्ट्रीय औसत से अधिक है। राज्य के उच्च शिक्षा प्राप्त युवाओं का बड़ा हिस्सा रोजगार की तलाश में है, लेकिन जब सरकारी भर्तियां हों भी, तो या तो सालों तक रुकी रहती हैं, या विवादों में उलझ जाती हैं। 2021-22 में राज्य में 58 बड़ी भर्तियों में से लगभग 35 में कानूनी विवाद, फिर से परीक्षा, या विलंब की स्थिति सामने आई थी। जब नौकरी मिलने की प्रक्रिया ही भरोसेमंद न हो, तब युवा सिविल सेवा जैसी परीक्षा को प्राथमिकता में क्यों रखेंगे?
परीक्षाओं के पार्टी परीक्षार्थियों का भरोसा जरुरी
परीक्षाओं के पार्टी परीक्षार्थियों का भरोसा जगाने के लिए जरुरी है कि आयोग की स्वायत्तता बनाए रखते हुए उसके संचालन की पारदर्शिता और जवाबदेही बढ़ाई जाए।पेपर छपाई से लेकर वितरण तक की प्रक्रिया में डिजिटल निगरानी की व्यवस्था लागू हो।जरुरी है कि भर्ती परीक्षाओं की टाइमलाइन और सेलेक्शन प्रोसेस को न्यायिक निगरानी में समयबद्ध रूप से पूरा किया जाए और युवाओं के लिए परीक्षा की पूर्व जानकारी, मॉक टेस्ट, और काउंसलिंग सुविधा शुरू की जाए ताकि वे खुद को इस प्रक्रिया से जुड़ा महसूस करें।
49.53 प्रतिशत युवाओं का अनुपस्थित रहना किसी आकस्मिक या मौसमी कारण से नहीं हुआ ।यह एक चेतावनी भी नहीं , स्पष्ट संदेश है। यह उत्तराखंड के नौजवानों की उस पीड़ा और संशय की अभिव्यक्ति है, जिसे लंबे समय से अनदेखा किया गया है।अब वक्त है कि आयोग, शासन और पूरी व्यवस्था इस चुप्पी को समझे, और खुद को सुधारने के लिए पहल करे—वरना आगे न केवल परीक्षाएं, बल्कि राज्य की कार्यक्षमता भी सवालों के घेरे में होगी।
(जयसिंह रावत वरिष्ठ पत्रकार हैं और आजकल देहरादून में रहते हैं।)