अमेरिका में हिंसा का दृश्य।

ट्रम्प के अमेरिका में मार्टिन लूथर किंग के दौर का दोहराव

लगभग 12 वर्ष पूर्व जब बराक ओबामा पहली बार अमेरिका के राष्ट्रपति बने थे तो दुनिया भर में यह माना गया था कि यह मुल्क अपने इतिहास की खाई (नस्लभेद और रंगभेद) को पाट चुका है। लेकिन इसे विडंबना ही कहा जाएगा कि ओबामा के कार्यकाल में ही वहां नस्लवादी और रंगभेदी नफरत ने बार-बार फन उठाया और वह सिलसिला आज भी जारी है। एक गोरे पुलिस अधिकारी के हाथों एक निहत्थे काले नागरिक की हत्या के विरोध में पूरा अमेरिका गुस्से से उबल रहा है। देश भर में उग्र प्रदर्शन हो रहे हैं। जनाक्रोश की तेज लपटें राष्ट्रपति के निवास व्हाइट हाउस तक पहुंच चुकी हैं, लिहाजा राष्ट्रपति को सुरक्षा की दृष्टि से व्हाइट हाउस के नीचे बने बंकर में ले जाना पड़ा है।

कहा जा सकता है कि अमेरिका की एक बार फिर अपने इतिहास से मुठभेड़ हो रही है। दुनिया के सबसे पुराने लोकतंत्र और मानवाधिकारों के सबसे बड़े प्रवक्ता माने जाने वाले तथा इस समय कोरोना महामारी से जूझ रहे इस देश में जनता और शीर्ष सत्ता प्रतिष्ठान के बीच दूरी का आलम यह है कि इस नाजुक घड़ी में बंकर में छुपे राष्ट्रपति राष्ट्र को संबोधित करने के बजाय लगातार बेहूदा और भड़काऊ ट्वीट किए जा रहे हैं। उनका व्यवहार ऐसा है, मानो प्रदर्शनकारी उनके देश के नागरिक नहीं बल्कि किसी दुश्मन देश के सैनिक हैं। व्हाइट हाउस के बाहर प्रदर्शन कर रही लोगों की भीड़ को राष्ट्रपति की ओर से खूंखार कुत्ते छोड़ दिए जाने और घातक हथियारों के इस्तेमाल किए जाने की धमकी दी जा रही है। 

लोगों की नाराजगी एक वीडियो क्लिप के वायरल होने के बाद सामने आई है, जिसमें एक गोरा पुलिस अधिकारी जॉर्ज फ्लॉयड नाम के अफ्रीकी मूल के एक निहत्थे काले व्यक्ति की गर्दन को अपने घुटने से दबाता दिखता है। इसके कुछ ही मिनटों बाद 46 साल के जॉर्ज फ्लॉयड की मौत हो गई। वीडियो में देखा जा सकता है कि जॉर्ज और उनके आस-पास खड़े लोग पुलिस अधिकारी से उसे छोड़ने की मिन्नतें कर रहे हैं। पुलिस अधिकारी के घुटने के नीचे दबा जॉर्ज बार-बार कह रहा है कि ”प्लीज़, आई कान्ट ब्रीद (मैं सांस नहीं ले पा रहा)।’’ यही उसके आख़िरी शब्द बन गए। 

यह घटना मिनेसोटा प्रांत के मिनेपॉलिस शहर की है। इस वीडियो के सामने आने के बाद लोगों में नाराजगी है। मिनेसोटा प्रांत समेत अमेरिका के कई इलाकों में लोग घटना के विरोध में उग्र प्रदर्शन कर रहे हैं। ‘नेशनल एसोसिएशन फॉर द एडवांसमेंट ऑफ कलर्ड पीपल’ ने एक बयान जारी कर कहा है, ”यह घटना हमारे समाज में काले लोगों के खिलाफ एक खतरनाक मिसाल पेश करती है, जो नस्लीय भेदभाव, जेनोफोबियों और पूर्वाग्रह से प्रेरित है।’’

बयान में कहा गया है, ”हम अब और मरना नहीं चाहते।’’

मिनेपॉलिस शहर का यह वाकया कोई नया नहीं है। इसी साल 23 फरवरी को कथित तौर पर कुछ हथियारबंद गोरों ने 25 साल के अहमद आर्बेरी का पीछा कर उसे गोली मार दी थी। इसी तरह 13 मार्च को ब्रेओना टेलर की उस वक्त हत्या कर दी गई थी, जब एक गोरे पुलिस अधिकारी ने उनके घर पर छापा मारा था। 

बराक ओबामा के पहली बार अमेरिका का राष्ट्रपति बनने पर दुनिया भर में माना गया था कि लंबे समय तक रंगभेद और नस्लवाद से जूझता रहा यह मुल्क अब अपने इतिहास की खाई को पाट चुका है। ओबामा के रूप में एक अश्वेत व्यक्ति का दुनिया के इस सबसे ताकतवर मुल्क का राष्ट्रपति बनना ऐसी युगांतकारी घटना थी जिसका सपना मार्टिन लूथर किंग जूनियर ने बीसवीं सदी के उत्तरार्ध में देखा था और जिसको हकीकत में बदलने के लिए उन्होंने जीवन भर अहिंसक संघर्ष किया था। ओबामा का राष्ट्रपति बनना एक तरह से मार्टिन लूथर किंग के अहिंसक संघर्ष की ही तार्किक परिणति थी। लेकिन ओबामा के राष्ट्रपति बनने से पहले और उसके बाद भी कई मौकों पर यह जाहिर हुआ है कि अमेरिकी समाज के बड़े वर्ग खासकर बेहद संपन्न गोरे लोगों और पुलिस-प्रशासन में गहरे तक पैठे पूर्वाग्रह की कीमत काले लोगों को चुकानी पड़ी है। जॉर्ज फ्लॉयड की एक पुलिस अधिकारी के हाथों हत्या उसी पूर्वाग्रह की ताजा मिसाल है।

वहां कभी किसी गुरुद्वारे पर हमला कर दिया जाता है तो कभी किसी सिख अथवा दक्षिण-पश्चिमी एशियाई मूल के किसी दाढ़ी धारी मुसलमान को आतंकवादी मानकर उस पर हमला कर दिया जाता है। कभी कोई गोरा पादरी किसी नीग्रो या किसी और मूल के काले जोड़े की शादी कराने से इनकार कर देता है तो कभी किसी भारतीय राजनेता, राजनयिक और कलाकार से सुरक्षा जांच के नाम बदसलूकी जाती है तो कभी किसी भारतीय अथवा एशियाई मूल के व्यक्ति को रेलगाड़ी के आगे धक्का देकर मार दिया जाता है। हाल के वर्षों में वहां इस तरह की कई घटनाएं हुई हैं।

नस्लीय नफरत से उपजी इन घटनाओं के अलावा भी अमेरिकी और गैर अमेरिकी मूल के काले, खासकर एशियाई मूल के हर सांवले या गेंहुए रंग के व्यक्तियों को हिकारत और शक की निगाह से देखने की प्रवृत्ति वहां हाल के वर्षों में तेजी से बढ़ी है। अमेरिकी सत्ता प्रतिष्ठान जो कुछ बोलता है, उससे वहां के समाज को लेकर एक अलग छवि उभरती है, लेकिन उस जन्नत की हकीकत का पता अन्य घटनाओं के अलावा नीना दावुलुरी के मामले से भी चला। साल 2014 में भारतीय मूल की नीना दावुलुरी के ‘मिस अमेरिका’ चुने जाने पर वहां सोशल वेबसाइट्स पर नीना को लेकर नस्लवादी टिप्पणियां की गई थीं, उसका मजाक उड़ाया गया था।

कई अमेरिकी गौरांग महाप्रभुओं ने उसे अरबी समझते हुए उसका संबंध अल कायदा से जोड़ने की फूहड़ कोशिश भी की थी। दुनिया को बड़ी शान से एक ग्लोबल विलेज बताने वालों से पूछा जाना चाहिए कि इतनी अज़नबियत और नफरत से भरा यह कैसा विश्व गांव है? पूंजीवाद के आराधकों और गुण-गायकों का दावा रहा है कि पूंजी राष्ट्रों की दीवारों को गिराने के साथ ही लोगों के जेहन में बनी धर्म, जाति, नस्ल और संप्रदाय और रंगभेद की गांठों को भी खत्म कर देगी। लेकिन यह दावा बार-बार लगातार बोगस साबित होता जा रहा है। 

अगर अमेरिका की युवा पीढ़ी भारतीय और अरबी में फर्क नहीं कर सकती और हर एशियाई को, दाढ़ी-पगड़ी वाले को और सांवले-गेहुंआ रंग के व्यक्ति को आतंकवादी मानती है तो इससे बड़ा उसका मानसिक दिवालियापन और क्या हो सकता है! वैसे इस स्थिति के लिए वहां का राजनीतिक तबका भी कम जिम्मेदार नहीं है जो अपने देश के बाहर तो अपने को खूब उदार बताता है और दूसरों को भी उदार बनने का उपदेश देता है लेकिन अपने देश के भीतर व्यवहार के स्तर पर वह कठमुल्लेपन को पालने-पोषने का ही काम करता है।

दरअसल, पश्चिमी देशों में अमेरिका एक ऐसा देश है, जहां विभिन्न नस्लों, राष्ट्रीयताओं और  संस्कृतियों के लोग सबसे ज्यादा हैं। इसकी वजह यह है कि अमेरिका परंपरागत रूप से पश्चिमी सभ्यता का देश नहीं है। उसे यूरोप से गए हमलावरों या आप्रवासियों ने बसाया। अमेरिका के आदिवासी रेड इंडियनों को इन आप्रवासियों ने तबाह कर दिया, लेकिन वे अपने साथ अफ्रीकी गुलामों को भी ले आए। उसके बाद आसपास के देशों से लातिन अमेरिकी लोग वहां आने लगे और धीरे-धीरे सारे ही देशों के लोगों के लिए अमेरिका संभावनाओं और अवसरों का देश बन गया।

अमेरिका में लातिनी लोगों के अलावा चीनी मूल के लोगों की भी बड़ी आबादी है। भारतीय मूल के लोग भी वहां बहुत हैं। जनसंख्या के आंकड़ों के मुताबिक अमेरिका की 72 प्रतिशत आबादी गोरे यूरोपीय मूल के लोगों की है, जबकि 15 प्रतिशत लातिनी और 13 प्रतिशत अफ्रीकी मूल के काले हैं। भारतीय मूल के आप्रवासी कुल आबादी का एक प्रतिशत (लगभग 32 लाख) हैं, जो वहां प्रशासनिक कामकाज और आर्थिक गतिविधियों में अपनी अहम भूमिका निभाते हुए अमेरिका की मुख्य धारा का हिस्सा बने हुए हैं। 

इस तरह अनेक जातीयताओं और नस्लों के लोगों के होते हुए भी बहुसंख्यक अमेरिकियों के लिए अमेरिका अब भी गोरे लोगों का मुल्क है और अन्य लोग बाहरी हैं। अमेरिका के कई हिस्से हैं, जहां अन्य नस्लों या जातीयताओं के लोग बहुत कम हैं और वे सिर्फ गोरे अमेरिकियों को ही पहचानते हैं। उनका बाकी दुनिया के बारे में ज्ञान भी बहुत कम है, उनके लिए उनके देश की एक खास छवि के अलावा बाकी दुनिया मायने नहीं रखती। अमेरिका एक समृद्ध देश है और दुनिया की एकमात्र महाशक्ति भी, इसलिए वहां के लोगों को बाकी दुनिया के बारे में जानने की फिक्र नहीं है। आतंकवाद क्या होता है, यह भी अमेरिकी जनता को महज दो दशक पहले ही मालूम हुआ है। 

वैसे तो अमेरिका में नस्लवादी नफरत और हिंसा की घटनाएं पहले भी होती रही हैं, लेकिन इस सदी की शुरुआत में न्यूयॉर्क के वर्ल्ड  सेंटर की जुड़वा इमारतों पर हुए हैरतअंगेज आतंकवादी हमले के बाद ऐसी घटनाओं का सिलसिला कुछ तेज हो गया है। 9/11 के हमले के बाद अमेरिका में दूसरे देशों खासकर एशियाई मूल के लोगों को और उनमें भी दाढ़ी रखने और पगड़ी पहनने वालों को या अपने नाम के साथ अली या खान लगाने वालों को संदेह और हिकारत की नजर से देखने की प्रवृत्ति में इजाफा हुआ है।

अमेरिका में नस्लभेदी बदसलूकी के शिकार सिर्फ भारत और भारतीय उपमहाद्वीप के लोग या स्थानीय और प्रवासी मुसलमान ही नहीं होते बल्कि अमेरिका के काले मूल निवासियों के साथ भी वहां के गोरे भेदभाव और बदसलूकी करते हैं। मई 2012 में संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद के विशेष जांचकर्ता जेम्स अनाया ने अपनी रिपोर्ट में अमेरिका के मूल निवासियों के खिलाफ ‘व्यवस्थित’ ढंग से भेदभाव किए जाने का आरोप लगाया था। 

बहुत हैरानी होती है इस विरोधाभास को देखकर कि एक तरफ तो अमेरिकी नागरिक समाज इतना जागरूक, उदार और न्यायप्रिय है कि एक काले नागरिक को दो-दो बार अपना राष्ट्रपति चुनता है, वहीं दूसरी ओर उसके भीतर नस्ली दुराग्रह की हिंसक मानसिकता आज भी जड़ें जमाए बैठी है। अमेरिका अपने को लोकतंत्र, सामाजिक न्याय, मानवाधिकार और धार्मिक आजादी का सबसे बड़ा हिमायती मानता है। दुनिया के दूसरे मुल्कों को भी इस बारे में सीख देता रहता है। लेकिन उसके यहां जारी चमड़ी के रंग और नस्ल पर आधारित नफरत और हिंसा की घटनाएं उससे अपने गिरेबां में झांकने की मांग करती हैं।

(अनिल जैन वरिष्ठ पत्रकार हैं और आजकल दिल्ली में रहते हैं।)

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