शालिनी श्रीनेत अपनी सहेलियों के साथ।

नज़र गवाह है! किसान नहीं, प्रशासन की नीयत में था खोट

हिंसा भड़कती नहीं, हिंसा भड़कवाई जाती है। 26 जनवरी की ट्रैक्टर रैली के लिए कितनी बैठकें की गईं। शुरू में ट्रैक्टर रैली की इजाजत नहीं मिल रही थी। कुछ बैठकों के बाद इजाजत मिली वो भी तमाम शर्तों के साथ… और रैली के 24 घंटे पहले तक सभी आंदोलनकारियों को ठीक से पता नहीं था कि कितने बजे और किन सड़कों से गुजरती हुई रैली निकलेगी। इतना कम समय इसलिए दिया गया कि किसान समझ न सकें और उससे गलती हो जाए। करीब 10 साल से दिल्ली एनसीआर में रहने के बाद भी कभी-कभी हम गलत फ्लाईओवर पर चले जाते हैं और कई किलोमीटर दूर जाकर यूटर्न मिलता है। तो कुछ दिन, कुछ महीने से आए किसान को रूट कैसे पता चलेगा?

सुबह नौ बजे के करीब मैं ट्रैक्टर रैली की रिपोर्टिंग के लिए अपनी दोस्त पल्लवी के साथ गाजीपुर बार्डर पर पहुँची, जैसा कि पहले से तय था कि हम पगड़ी बंधवाकर जाएंगे। जब हम पगड़ी बंधवाने जा रहे थे तो हमने देखा कि कुछ ट्रैक्टर निकल रहे हैं। फिर मैं और पल्लवी भी पगड़ी बंधवाने के बाद अपनी कार लेकर रैली के साथ-साथ आगे बढ़े तो उससे पहले कुछ ट्रैक्टर निकल चुके थे। बार्डर पर बैरियर किस तरह हटाया गया, यह नहीं पता पर आगे बहुत शांतिपूर्वक ट्रैक्टर परेड जा रही थी। आसपास के लोग अपनी छतों से, बालकनी में खड़े होकर और कुछ रैली में पैदल भी भाग लेकर उत्साह बढ़ा रहे थे।

फूल बरसाकर और हाथ हिलाते हुए मुस्कराकर तो कुछ लोग सैल्यूट करते हुए स्वागत कर रहे थे। हर ट्रैक्टर पर क्रांति गीत बज रहे थे और तिरंगे लहरा रहे थे। जगह-जगह फूलों की वर्षा देखकर हर बार हम यह कह उठते थे- यह है हमारा हिंदुस्तान। लगता था कि लोग समझ रहे हैं कि हमारे किसान हमारे लिए ही आंदोलन कर रहे हैं। जिस देश की सरकार भेदभाव पर चुनाव लड़ती है उस देश के लोगों ने बता दिया कि हम सब एक हैं। गणतंत्र दिवस पर ट्रैक्टरों की ऐसी झांकी न कभी देखी थी न कभी देखने को मिलेगी। ऐसी ऐतिहासिक रैली के हम गवाह हुए।

अक्षरधाम से जब बाएं मुड़ा गया, उसके बाद दो सड़कें थीं। एक सीधी जा रही थी, एक पर बाएं मुड़ना था। यहां रास्ता भटकने का डर था। एक वालंटियर ने लाउडस्पीकर से बताया कि हमें फिर बाएं मुड़ना है और हमें जो रूट दिया गया है उसी पर चलना है। ऐसा कुछ भी नहीं करना है जिससे किसी को परेशानी हो। हमें अपनी उपस्थिति दर्ज करानी है। हमें बस यह बताना है कि हम किसान एक हैं। हमारी एकता की पावर है। पर आगे जाकर कुछ लोग फ्लाइओवर पर चढ़ गए और कुछ लोग जीटी रोड पर निकल गए।

फ्लाईओवर पर कहीं बैरिकेड्स नहीं थे जिससे किसान को अवरोध मिलता और समझ में आता कि किधर से नहीं जाना है। वो फ्लाईओवर दिल्ली निजामुद्दीन की तरफ निकलता है। सवाल यह है कि उस फ्लाईओवर पर बैरिकेड क्यों नहीं था? क्यों रास्ते में हर कुछ किलोमीटर पर ऐरो नहीं बनाए गए थे कि उधर से जाना है? किसानों को लैंडमार्क नहीं समझ में आया और वे दिल्ली पहुँच गए। क्या जानबूझकर फ्लाईओवर पर बैरिकेडिंग नहीं की गई थी कि किसान भटक जाएं और उन पर दिल्ली में प्रवेश का आरोप लगाया जाए।

जीटी रोड पर ट्रैक्टर आराम से निकलते रहे कि अचानक पुलिस वाले बैरीकेड्स लगाने लगे, जिसकी वजह से किसानों और पुलिस के बीच कहासुनी शुरू हो गई। उसके बाद किसानों ने निवेदन किया कि हमें जाने दीजिए। हमारे ग्रुप के लोग आगे चले गए हैं। पुलिस ने उनकी एक न सुनी। तभी पुलिस उनके ट्रैक्टर पर डंडे मारने लगी फिर किसान ट्रैक्टर से नीचे उतर आए और बैरिकेडिंग हटाकर ट्रैक्टर जाने के लिए रास्ता बनाने लगे। कुछ ही ट्रैक्टर निकल पाए कि किसानों और पुलिस के बीच बैरीकेड्स की खींचाखांची शुरू हो गई और फिर एक सरदार जी अपने ट्रैक्टर से उतरकर आए और बड़े प्रेम से हाथ जोड़कर रास्ता खोलने को कहने लगे। इसे मेरा रंग के फेसबुक पेज पर लाइव किए गए वीडियो में देखा जा सकता है।

हम वीडियो लाइव करते हुए आगे बढ़े तो पुलिसवालों ने मना किया पर ये कहने पर कि बस दो मिनट में चले जाएंगे- हमें आगे जाने दिया। इसी बीच किसानों और पुलिस दोनों के बीच गहरी झड़प शुरू हो गई। हमने अपनी गाड़ी पेट्रोल पंप पर खड़ी की, तब तक मेरा रंग की सहयोगी लाइव कर रही थीं। चौराहे पर लाठी चार्ज शुरू हो गया। हम पैदल जाकर नजदीक से लाइव करने लगे। इसी बीच पुलिस वाले आँसू गैस छोड़ने लगे। फिर किसान अपना ट्रैक्टर और हमारे जैसे मीडिया वालों ने अपनी गाड़ियां यूटर्न कर लीं। कुछ गाड़ियों के शीशे तोड़ दिए गए तो कुछ गाड़ियों को पीछे से पिचका दिया। कई भाइयों को चोट लग गई थी। एक भाई की सफारी के शीशे तोड़ दिए गए और उनके कंधे से खून बह रहा था। यह सब देखकर हम सब डर गए। 

यूटर्न करके आने लगे तो करीब 20 मीटर आगे आए कि सामने से कुछ पुलिस वाले बैरीकेडिंग लगा दिए। हमारे ये कहने पर कि खोल दीजिए हमारी गाड़ी निकल जाए, वे बोले पीछे जाइए और इसके बगल वाली रोड से निकल जाइए। जबकि पीछे लाठीचार्ज हो रहा था। जब मेरी दोस्त ने गाड़ी से उतरकर बताया कि हम मीडिया से हैं तब रास्ता खोला। हमारी गाड़ी निकली। करीब सात मिनट लग गए बैरिकेडिंग हटवाने में। तब तक हम आँसू गैस के धुएं में खड़े थे। सभी की आँखों में जलन होने लगी। लौटते हुए देखा कि रास्ते में लोग खाने-पीने की चीजें बांट रहे थे, जैसे पानी, फ्रूटी, केले, संतरे, तहरी।

लोगों ने इस तरह की मदद कर किसानों का खूब उत्साह बढ़ाया। जैसा कि रूट में तय था कि गाजीपुर बार्डर से निकलने वाली रैली तमाम जगहों से होकर हापुड़ पहुँचेगी, तो हमने भी ट्रैक्टरों के पीछे अपनी गाड़ी लगा ली और गाजियाबाद से होते हुए हापुड़ रोड पकड़ ली। कुछ किलोमीटर जाने के बाद दो रास्ते थे- एक सीधा दूसरे में बाएं मुड़ना था। बाईं तरफ वाली मेरठ जा रही थी और सीधी वाली हापुड़। ज्यादा लोग मेरठ की तरफ मुड़ गए पर हम अपने आगे वाले ट्रैक्टर को फॉलो करते हुए हापुड़ की तरफ बढ़ते रहे।

रास्ते में पुलिस वाले मिले तो हमने रोककर पूछा कि किसान ट्रैक्टर रैली इधर ही से जाने वाली थी न? तो उन लोगों ने कहा- मैडम मेरठ और हापुड़ वाले यहीं पर इकट्ठा हुए थे और दिल्ली रैली में गए। अब वो सभी अपने-अपने घर के लिए वापस हो गए। हम ये सोचकर हापुड़ तक गए कि शायद आगे रैली में शामिल सभी लोग मिल जाएंगे पर ऐसा नहीं हुआ और हम फिर वापस गाजीपुर बार्डर आए। हमारे साथ दो वालंटियर हरशरण तथा गुरुशरण गई थीं, उनको छोड़ा। अपने घर की तरफ जा ही रहे थे कि एक सरदार जी का मेरी दोस्त के पास फोन आया और उन्होंने बताया कि मेरे भाई का सिर फट गया है, मैक्स वैशाली लेकर आए हैं मगर वहां पर डॉक्टर दवा देने या टांका लगाने से मना कर रहे हैं।

कोई हॉस्पिटल बता दीजिए। मेरी दोस्त ने मुझसे पूछा, कोई हॉस्पिटल बताओ, मैंने कई हॉस्पिटल के नाम बताए, यशोदा, अटलांटा, वसुंधरा, पारस, शांति गोपाल। फिर हम वहां पहुँचे जहां सरदार जी के भाई को टांका लग रहा था। उनसे मिलकर हाल और जरूरत के बारे में पूछा और अपने घर की तरफ लौट आए। पर सवाल यह उठता है कि प्रशासन इतना ढीला क्यों था? किसानों को जिधर से नहीं जाना चाहिए था, उधर से प्रवेश क्यों मिला? जिधर से जाना था उधर भी कुछ लोगों के जाने के बाद रास्ता क्यों रोका?

यह बात माननी पड़ेगी कि दिए हुए समय से थोड़ा पहले किसान निकल गए पर जिन सीमाओं से जा रहे थे, वहां से इतनी जल्दी पहुँचना संभव न था, जिस समय पर लाल किला पर झंडा फहराया गया। उस समय कोई पहुँचा कैसे? इसका मतलब लाल किला पर झंडा फहराने वाले बहुत जल्दी या बहुत सुबह ही निकल गए थे। जब झंडा फहराया गया तो ज्यादातर किसान अभी रास्ते में थे। घटनाओं को आँखों देखना और एसी में बैठकर लिखने या न्यूज चैनलों पर चिल्लाने में बहुत फर्क होता है। पुलिस की गलती से एक बच्चे की जान चली गई और एक टीवी ऐंकर चिल्ला-चिल्ला और जूम कर-करके दिखा रही थी बैरीकेड से टकराकर उसका ट्रैक्टर उलट गया। ‘बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ’ स्लोगन देने वाली सरकार के राज में बेटियां सड़क पर सोईं और बिना बिजली के रहीं। अब इस जुमले का बेटियां क्या करें? जहां लिखा दिखे वहां से मिटा दें और कागज पर मिले तो फाड़ दें। ये स्लोगन जुमला बनकर रह गया है।

(शालिनी श्रीनेत ‘मेरा रंग’ वेबसाइट की संचालक हैं और महिलाओं से जुड़े मुद्दों पर लगातार काम कर रही हैं।)

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