चला गया इंसान गढ़ने वाला एक शानदार कलाकार

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प्रसिद्ध इतिहासकार, संस्कृतकर्मी और जनवादी अधिकारों के प्रति समर्पित प्रोफ़ेसर लाल बहादुर वर्मा का निधन बेहद पीड़ादाई है। यह इतिहास-लेखन, साहित्य-कला-संस्कृति-रंगकर्म की दुनिया और जनपक्षधर राजनीति की अपूरणीय क्षति है। वे सच्चे कॉमरेड थे, उनकी आंखों में न्याय, समता, बंधुत्व और एक समतामूलक समाज का ख्वाब था और अंतिम समय तक वे इसके लिए सक्रिय रहे।

एक बेहतर समाज में बेहतर इंसान के लिए अनिवार्य सांस्कृतिक आंदोलन को समर्पित डॉक्टर लाल बहादुर वर्मा का जन्म 10 जनवरी 1938 को हुआ था। इतिहास के प्रोफेसर के तौर पर गोरखपुर विश्वविद्यालय, इंफाल यूनिवर्सिटी मणिपुर से होते हुए इलाहाबाद विश्वविद्यालय से उन्होंने अवकाश ग्रहण किया था। फ्रांस में बिताए दिन और वहाँ के छात्र आंदोलन की वे जीवंत तस्वीर प्रस्तुत करते थे। ‘मई, अड़सठ पेरिस’ उसकी बानगी मात्र है।

संचेतना सांस्कृतिक मंच से जन संस्कृत की एक नई परिभाषा उन्होंने गढ़ी थी। ‘भंगिमा’ पत्रिका से जहाँ उन्होंने जन साहित्यकारों की पीढ़ी तैयार की, वहीं इतिहास बोध पत्रिका के मार्फत उन्होंने इतिहास की एक नई दृष्टि दी। सांस्कृतिक मुहिम के लिए उनका सहज भाव था ‘आइए अपने को गंभीरता से लें।’

उन्होंने यूरोप के इतिहास से लेकर इतिहास की विविध किताबों को लिखा, तो वहीं हावर्ड फास्ट, जैक लंडन, एरिक हॉब्सबॉम, क्रिष हरमन, आर्थर मारविक आदि की महत्वपूर्ण कृतियों का अनुवाद किया। तमाम छोटी-छोटी पुस्तिकाओं के साथ मानव मुक्ति कथा, भारत की जन कथा, अधूरी क्रांतियों का इतिहास बोध, क्रांतियाँ तो होंगी ही, उत्तर पूर्व,  हमारी धरती मां जैसी अनेक कृतियों का उन्होंने सृजन किया।

वर्मा जी कि यह त्रासदी थी कि इलाहाबाद विश्वविद्यालय से अवकाश प्राप्त करने के बाद उन्हें कोई पेंशन नहीं मिलता था। लेकिन उन्होंने कभी हार नहीं मानी और वह सतत संघर्ष में लगे रहे। किसी भी कठिन परिस्थिति में उन्होंने हमेशा हंसते हुए ही लोगों को हंसाया। साइलेंट हार्ट अटैक के बावजूद वे हंसते खिलखिलाते वापस फिर से सक्रिय हुए थे। लेकिन इस बार कोरोना की जंग में वे हार गए।

कॉमरेड लालबहादुर वर्मा इंसान गढ़ने वाले एक शानदार कलाकार और जनशिक्षक थे। वे मार्क्सवाद के गम्भीर अध्येता, बेहद जनवादी, सादगी पसंद और स्पष्टवादी थे। दोस्त मिज़ाज़ कॉमरेड वर्मा छोटा हो या बड़ा, सबके साथ बराबरी से पेश आते थे। उन्होंने इतिहास लेखन को एक नई दृष्टि दी। सहजता उनका गुण था और गूढ़ विषय को भी सरलता से कह देना उनके व्यक्तित्व का आईना था।

डॉक्टर वर्मा को आज भोर में कोरोना जनित गंभीर जटिलताओं के बाद दिल का दौरा पड़ा जो जानलेवा साबित हुआ। इसके पहले ही किडनी के काम न करने से उनकी स्थिति गंभीर हो गयी थी और वह पिछले काफी दिनों से देहरादून के एक अस्पताल में आई सी यू में थे।

भावभीनी श्रद्धांजलि के साथ,

कॉमरेड वर्मा को आख़िरी सलाम!

(लेखक मुकुल लाल बहादुर वर्मा के 35 साल पुराने मित्र हैं।)

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