सरकार मगरूर है, मगर विपक्ष भी तो नाकारा है!

भारतीय राजनीति इस समय अपने इतने निकृष्टतम दौर से गुजर रही है कि वह देश की समस्याओं का समाधान करने के बजाय खुद अपने आप में एक गंभीर समस्या बन चुकी है। किसी भी लोकतंत्र के लिए इससे ज्यादा बुरा दौर और क्या हो सकता है कि जब महंगाई पूरी तरह लूट में तब्दील हो चुकी हो, सत्ता में बैठे लोगों का भ्रष्टाचार अपनी सारी हदें पार कर संस्थागत स्वरूप ले चुका हो, अभूतपूर्व वैश्विक महामारी के चलते लाखों लोग उचित इलाज, दवा और ऑक्सीजन के अभाव में दम तोड़ चुके हों, लोगों को अपने परिजनों के शव अंतिम संस्कार करने के लिए पैसे न होने या श्मशानों में जगह न मिलने के कारण नदी में बहाना पड़े हों और कोरोना वायरस का संक्रमण रोकने के लिए लॉकडाउन के नाम पर देश का अधिकांश हिस्सा पुलिस स्टेट में तब्दील हो चुका हो।

देश के इस दर्दनाक और शर्मनाक सूरत-ए-हाल के बावजूद देश की सत्ता व्यवस्था को न तो जरा भी शर्म आ रही है और न ही देश की जनता पर रहम। उसकी बेशर्मी की पराकाष्ठा यह है कि वह यह बात मानने के लिए कतई तैयार नहीं है कि वह इन सारे हालात से निबटने में पूरी तरह अक्षम साबित हुई है। अपनी खाल बचाने के लिए वह मौजूदा हालात के लिए पिछली सरकारों को जिम्मेदार ठहरा रही है या फिर अपनी अक्षमता पर सवाल उठाने वाले वालों को हिंदू विरोधी, विकास विरोधी और यहां तक कि देश विरोधी करार दे रही है।

सरकार के इस रवैये को देखते हुए कहा जा सकता है कि दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र कहे जाने वाले मुल्क में लोकतंत्र इस समय सिसक रहा है। सिर्फ सरकार और सत्तारूढ़ दल का ही नहीं बल्कि विपक्षी दलों का भी देश की जनता से रिश्ता कमोबेश टूट चुका है। वह सिर्फ संसद में संख्या बल के लिहाज से ही कमजोर नहीं है बल्कि विचार और कर्म के स्तर पर भी निस्तेज और नाकारा बना हुआ है।

विपक्ष की जो हालत आज है, वैसी अभी तक के इतिहास में पहले कभी नहीं रही। देश की आजादी के बाद शुरुआती वर्षों में जवाहरलाल नेहरू के मर्मस्पर्शी मोहक नेतृत्व का जादू चरम पर था। कश्मीर से कन्याकुमारी और कच्छ से कामरूप तक पूरे भारत में कांग्रेस के सामने कोई चुनौती नहीं थी। उस दौर में विपक्षी दल भी संख्या में आज की तरह बहुत ज्यादा नहीं थे और क्षेत्रीय दलों का भी ज्यादा उदय नहीं हुआ था। संसद में कांग्रेस के पहाड़ जैसे बहुमत के मुकाबले विपक्ष के मुट्ठी भर सांसद ही हुआ करते थे। लेकिन वे मुट्ठी भर सांसद ही लोक-महत्व के सवालों और सरकार की जन-विरोधी नीतियों को लेकर संसद को हिलाने और सरकार को सांसत में डालने का काम बखूबी करते थे।

यह वह दौर था, जिसमें विपक्षी दलों के पास आचार्य नरेंद्र देव, जयप्रकाश नारायण, एके गोपालन, एसए डांगे, राममनोहर लोहिया, भूपेश गुप्त, बीटी रणदिवे, सुरेंद्रनाथ द्विवेदी, मधु लिमये, किशन पटनायक, प्रकाश वीर शास्त्री, अशोक मेहता, जॉर्ज फर्नांडीज, ज्योतिर्मय बसु, अटल बिहारी वाजपेयी, इंद्रजीत गुप्त, रवि राय जैसे तेजस्वी व्यक्तित्व और ओजस्वी वक्ता थे। हालांकि इनमें से कई नेता संसद में नहीं थे, लेकिन इन सभी नेताओं की जनता में साख और सरकार पर धाक थी।

ये सारे नेता चाहे जिस दल में रहे हों, सभी के पास राष्ट्र निर्माण के सपनों, कार्यक्रमों और विचारों की शानदार दौलत थी। ये नेता जब किसी नीतिगत मुद्दे पर सरकार की खिंचाई करते थे तो सत्तारूढ़ दल के नेता बगलें झांकने लगते थे। उस दौर में विपक्ष सड़कों पर भी दिखता था। तब टेलीविजन भी नहीं था और समाचार पत्र भी आज जितने नहीं थे। फिर भी ये नेता जो कहते थे, उसे जनता गौर से सुनती-पढ़ती थी। आम जनता के रोजमर्रा के जीवन से जुड़े सवालों को लेकर जनांदोलन होते थे, जेल भरी जाती थीं और यह सब आज की तरह रस्मी तौर पर नहीं बल्कि वास्तविक अर्थों में होता था।

आज विपक्ष की जो हालत है, वह कोई नई राजनीतिक परिघटना नहीं है। विपक्ष की इस पतन-गाथा की शुरुआत 1967 के आम चुनाव के बाद ही हो गई थी। सन 1967 में डॉ. लोहिया के गैर कांग्रेसवाद के रणनीतिक सिद्धांत के चलते न सिर्फ संसद में कांग्रेस का बहुमत घटा था बल्कि देश के कई राज्यों में कांग्रेस की सत्ता पर इजारेदारी भी टूटी थी और संयुक्त विधायक दलों (संविद) की सरकारें अस्तित्व में आई थीं। सारे विपक्षी दलों को सत्ता में हिस्सेदारी मिली थी।

लेकिन सत्ता की सोहबत ने ही विपक्ष के लड़ाकू तेवर खत्म करना शुरू कर दिए। चूंकि यह सत्ता-सुख अल्पकालिक ही रहा, लिहाजा विपक्षी दलों में संघर्ष का और सत्ता से टकराने का माद्दा काफी हद तक बचा रहा। लेकिन 1974 में जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में हुए आंदोलन और तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के लगाए आपातकाल के बाद 1977 में केंद्र सहित कई राज्यों में हुए सत्ता परिवर्तन के बाद तो उस दौर में सत्ता में रहे गैर कांग्रेसी दल पूरी तरह न सिर्फ सुविधाभोगी और सत्ताकामी हो गए बल्कि उनके अधिकांश नेता भ्रष्ट और बेईमान भी हो गए।

केंद्र और राज्यों में हम आज जो विपक्ष देख रहे हैं, उसके पास जनता के सवालों को लेकर व्यापक संघर्ष का कोई कार्यक्रम नहीं है। अपने कार्यकर्ताओं को वैचारिक राजनीतिक प्रशिक्षण देने का सिलसिला तो सभी दलों में बहुत पहले ही खत्म हो चुका है। जन-समस्याओं को लेकर या सरकार की जनविरोधी नीतियों के खिलाफ आंदोलन करते हुए जेल जाने की तैयारी रखने वाले लोग इन दलों में शायद अंगुलियों पर गिनने जितने ही मिलेंगे। आपातकाल के बाद से लेकर अब तक लगभग साढ़े चार दशकों में जनता के सवालों को लेकर जेल जाने वालों से ज्यादा संख्या तो उन नेताओं की मिलेगी जिन्हें आपराधिक कारणों से जेल जाना पड़ा है। अब तो केवल ट्वीट करने, टेलीविजन के कैमरों के सामने बयान देने और बहुत हुआ तो कभी-कभार धरना-प्रदर्शन जैसे प्रतीकात्मक कर्मकांडों से ही काम चल जाता है।

दिमाग पर बहुत जोर डालने पर भी याद नहीं आता कि पिछले सात साल के दौरान विपक्ष ने जनता से जुड़े किसी भी मुद्दे पर सरकार को घेरने के लिए सड़कों पर उतर कर कोई आंदोलन किया हो, पुलिस की लाठियां खाई हो या जेलें भरी हों। विपक्षी नेता इन मुद्दों पर सिर्फ मीडिया में बयान देने की रस्म अदायगी करते रहे। कुल मिलाकर विपक्षी दलों का सड़क यानी जनता से नाता पूरी तरह टूट सा गया है और इसीलिए जनता भी अपनी ओर से चुनावों के मौके पर विपक्षी दलों से अपना नाता तोड़ रही है।

हर चुनाव में हार से रूबरू होने के बाद विपक्षी खेमों से जो प्रतिक्रियाएं आती हैं, उनमें यही कहा जाता है कि राष्ट्रवाद और हिंदुत्व की लहर में धार्मिक ध्रुवीकरण के चलते जनता के लिए बाकी सारे मुद्दे गौण हो गए। ईवीएम की कथित गड़बड़ियों और चुनाव आयोग के रवैये को भी अपनी हार के लिए जिम्मेदार ठहराया जाता है। यह प्रतिक्रियाएं एक हद तक ठीक होती हैं लेकिन इस तरह की प्रतिक्रियाओं के बीच अपने गिरेबां में कोई नहीं झांकता।

ऐसा भी नहीं है कि आंदोलन के लिए विपक्षी दलों के सामने मुद्दों का अभाव रहा हो, बल्कि मौजूदा सरकार तो आए दिन ऐसे मुद्दे पैदा करती रहती है, जिस पर कि उसे संसद में न सही, सड़कों पर तो घेरा ही जा सकता है।

ध्वस्त हो चुकी अर्थव्यवस्था, खत्म हो रही नौकरियां और विकराल रूप लेती बेरोजगारी की समस्या, नोटबंदी की विभीषिका और जीएसटी के दिशाहीन अमल से चौपट हो चुके छोटे और मध्यम श्रेणी के उद्योग-धंधे, खेती-किसानी की दुर्दशा, रॉफेल विमान सौदे में गड़बड़ी, संवैधानिक संस्थाओं का अवमूल्यन, चीन द्वारा आए दिन भारतीय सीमा का अतिक्रमण, गोरक्षा के नाम पर दलितों और मुसलमानों का देशव्यापी उत्पीड़न, कोरोना महामारी के दौरान उजागर हो चुकी स्वास्थ्य सेवाओं की बदहाली के चलते देशभर में मचे हाहाकार, विधायकों की खरीद-फरोख्त के जरिए विपक्ष शासित राज्य सरकारों का तख्ता पलट, कई राज्यों में चुनाव आयोग और राज्यपाल की मदद से जनादेश का अपहरण जैसे कई मुद्दे इस सरकार ने उपलब्ध कराए हैं।

याद नहीं आता कि पिछले पांच साल के दौरान विपक्ष ने इन तमाम मुद्दों को लेकर सड़कों पर उतर कर कोई आंदोलन किया हो, पुलिस की लाठियां खाई हो या जेलें भरी हो। विपक्षी नेता इन मुद्दों पर सिर्फ मीडिया में बयान देने की रस्म अदायगी करते रहे। टीवी चैनलों पर रोजाना होने वाली निरर्थक बहसों में भी विपक्षी दलों के ज्यादातर प्रवक्ता सत्तारूढ़ दल के बदजुबान प्रवक्ताओं और अपढ़-कुपढ़ एंकरों की बकवास में फंसकर उनके सामने ऊलजुलूल दलीलों के साथ घिघियाते-रिरियाते ही नजर आते हैं।

कुल मिलाकर यही कहा जा सकता है कि सरकार जहां अपने बहुमत के अहंकार में निरंकुश होकर जनता से पूरी तरह कट चुकी है, वहीं विपक्ष भी अकर्मण्यता का शिकार और सुविधाभोगी होकर अपनी भूमिका को भूल चुका है।

(अनिल जैन वरिष्ठ पत्रकार हैं और आजकल दिल्ली में रहते हैं।)

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