किसानों के शोषण का नया औजार है निजी मंडी का प्रावधान

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तीन कृषि कानूनों में एक कानून है कृषि उत्पादन व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन और सुविधा) कानून जिसे किसानों ने काला कानून बताया है। मोदी सरकार ने जून 2020 से ही दूसरा कानून आवश्यक वस्तुओं को, आवश्यक वस्तु अधिनियम 1995 के कानूनी दायरे से बाहर निकाल कर व्यापारियों और जमाखोरों को सरकार के नियंत्रण से मुक्त करके एक नया निजी मंडी सिस्टम का प्रावधान किया। इसके उद्देश्यों में लिखा तो यह गया है कि यह किसानों तथा व्यापारियों को अपना चुनाव करके खाद्य पदार्थ बेचने और खरीदने का सिस्टम तैयार किया गया है पर हकीकत में जैसा की धारा 1 में लिखा गया है किसान के उपज और व्यापार को सहूलियत और बढ़ावा देने के लिए बनाया जा रहा है, जिससे बड़े व्यापारियों को खुलकर खेलने का मौका मिल गया है।

कृषि उत्पादन व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन और सुविधा) कानून लागू होने के बाद किसान अब एपीएमसी मंडियों के बाहर किसी को भी अनाज बेच सकते हैं। इस पर किसी तरह का कोई शुल्क नहीं लगेगा, जबकि एपीएमसी मंडियों में कृषि उत्पादों की खरीद पर विभिन्न राज्यों में अलग-अलग मंडी शुल्क और अन्य उपकर हैं। दरअसल यहां भी सरकार ने गलतबयानी की है।

दरअसल आज़ादी के बाद वर्ष 1951 में मार्केट कमेटी, 1954 में थापर कमेटी बनाई गई। वर्ष 1951 में इंडियन नेशनल कांग्रेस की प्लानिंग कमेटी ने ग्रामीण मंडी की स्थापना के लिए एक कमेटी बनाई। इनकी रिपोर्ट और सिफरिशों के आधार पर किसानों को आधुनिक मंडी प्रणाली प्रदान करने के लिए राज्यों में खेती के ऊपर मार्केट कानून पारित किए गए जिसके तहत उचित स्थानों पर मंडियों के स्थापना करके उनकी देखभाल करने के लिए एक मंडीकरण बोर्ड की स्थापना की गई। मंडियों के लिए जमीन का अधिग्रहण करके सेट का निर्माण करना, आढ़तियों के बैठने की जगह, किसानों के लिए घर एक पूरी व्यवस्था अस्तित्व में आई।

उपज के खरीदार से टैक्स एवं खर्चे लिए जाते हैं जिसके साथ राज्य के विकास कार्य जैसे सड़कों का निर्माण किया जाता है। यह किसान की देनदारी नहीं बल्कि खरीदार की होती है। मोदी सरकार ने गलत बयानी करते हुए इन कानूनों के तहत किसान को इस खर्चे से भार मुक्त होना बताया गया है, जो कि सही नहीं है। यह पहले से ही किसान की नहीं बल्कि खरीदार की देनदारी है। किसान मंडी के खर्चों से भार मुक्त है।

नए कानून पर अमल के बाद सरकार एमएसपी पर फसलों की खरीद बंद कर देगी। जब निजी कंपनियों पर कृषि उपज बिकेगी तो प्रतिस्पर्धा का दौर समाप्त हो जाएगा। वर्तमान में एक-एक दाना प्रतिस्पर्धा में बिकता है। सरकार को प्रतिस्पर्धा और तीखी बनाना चाहिए, जिससे किसानों का भला होता। नई प्रणाली में तो किसानों का खुला शोषण होगा। सभी किसानों की उपज निजी कंपनियां खरीदी करने में सक्षम होगी।

यदि निजी कंपनी ने अधिक आवक होने पर खरीदी से हाथ ऊंचे कर दिए तो किसान माल बेचने कहां जाएंगे? इससे उद्यमियों को प्रोत्साहन दिया गया है, जबकि किसानों की दिया जाना चाहिए। आम राय यही है कि किसानों को गला काटने के लिए निजी कंपनियों के पास भेजा जा रहा है। सरकार इस बात की गारंटी लेगी कि निजी कंपनियां किसानों का शोषण नहीं करेगी?

दरअसल कृषि उत्पादन व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन और सुविधा) कानून में इस संबंध में कोई जिक्र नहीं है कि मंडी के बाहर जो खरीद होगी वह न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) से नीचे के भाव पर नहीं होगी।इससे राज्य को राजस्व का नुकसान होगा, क्योंकि किसान फसल मंडियों के बाहर बेचेंगे तो उस पर मंडी फीस नहीं मिलेगी। इसके अलावा खरीद-फरोख्त मंडी से बाहर गया तो कमीशन एजेंट बेरोजगार हो जाएंगे।

इस नये कानून के तहत किसान एपीएमसी यानी कृषि उत्पाद विपणन समिति के बाहर भी अपने उत्पाद बेच सकते थे। नये कानून के तहत बताया गया था कि देश में एक ऐसा इकोसिस्टम बनाया जाएगा, जहां किसानों और व्यापारियों को मंडी के बाहर फसल बेचने का आजादी होगी। प्रावधान के तहत राज्य के अंदर और दो राज्यों के बीच व्यापार को बढ़ावा देने की बात कही गई थी। साथ ही, मार्केटिंग और ट्रांसपोर्टेशन पर खर्च कम करने का भी जिक्र था। नए कानून के मुताबिक, किसानों या उनके खरीदारों को मंडियों को कोई फीस भी नहीं देना होती।

अब इस कानून में सरकार ने सिर्फ इतना कहा था कि किसानों को अपना अनाज बेचने के लिए सिर्फ मंडियों पर निर्भर रहने की जरूरत नहीं है। वे मंडी से बाहर जा भी अपनी फसल को ऊंचे दामों में बेच सकते थे।सरकार तर्क दे रही थी कि ऐसा होने से किसानों के लिए ज्यादा विकल्प खुल जाएंगे और उनकी मंडियों पर निर्भरता भी कम होगी। लेकिन इस कानून को लेकर किसानों की आशंका वाजिब है कि ऐसा होने पर एपीएमसी मंडियां समाप्त कर दी जाएंगी।निजी खरीदारों के पास ज्यादा ताकत होगी और वो अपनी इच्छा अनुसार अपने दाम पर फसल खरीद सकेंगे। इसका ज्वलंत उदाहरण हिमाचल प्रदेश में दिखा जहां अडानी समूह ने एकतरफा सेव के थोक खरीदी दाम कम कर दिए और इससे किसानों की आय पर खासा असर पड़ा।

दरअसल नया मंडी एक्ट केवल प्रसंस्करण कंपनियों एवं निजी उद्यमियों के पक्ष में बताया है। निजी क्षेत्र मंडी प्रांगण स्थापित कर सकेंगे और प्रदेशभर में एक लाइसेंस की व्यवस्था होगी। नए एक्ट के बाद वर्तमान व्यवस्था लगभग ध्वस्त हो जाएगी। नए एक्ट में किसानों को प्राथमिकता देना चाहिए थी। पूरा एक्ट निजी क्षेत्र को समर्पित है। वर्तमान में देशभर की मंडियों में छोटा हो या बड़ा सभी की फसल खुली प्रतिस्पर्धा के साथ विक्रय होती है।

निजी उद्यमी यदि किसानों का रुपया ले भागे तब शिकायत कहां होगी? वर्तमान में 1% किसान भी शोषण की शिकायत नहीं करते हैं। मंडी शुल्क किसानों पर नहीं वरन खरीदार पर है। मंडी प्रांगणों एवं गांवों की सड़कें बनी हैं। गांवों की सड़कों का विकास मंडी शुल्क से ही हुआ है। ऐसा आभास हो रहा है नई प्रणाली में किसानों का शोषण के लिए निजी क्षेत्र के पास भेजा जा रहा है। नया एक्ट लागू होने के बाद लाखों मंडी कर्मचारियों के परिवार बेरोजगार हो सकते हैं।

गौरतलब है कीकृषि उत्पादों की खरीद-बिक्री के विनियमन (रेगुलेशन) की शुरुआत भारत में अंग्रेजों के शासन काल में ही हो गई थी। धीरे धीरे अधिकतर राज्य इसे अपनाते चले गए और अपने कानून भी बना लिए. आज देश में सभी राज्य मिला कर लगभग 2500 एपीएमसी मंडियां हैं। इन पर राज्य सरकारों का नियंत्रण होता है। हर एक मंडी में उस जिले के किसान अपने उत्पाद ले कर आते हैं और मंडी द्वारा लाइसेंस प्राप्त एजेंटों के जरिए अपने उत्पादों को बेचते हैं। मंडियों में व्यापारियों से टैक्स वसूला जाता है और पैसा राज्य सरकार के राजस्व में जाता है। 

(जेपी सिंह वरिष्ठ पत्रकार और कानूनी मामलों के जानकार हैं।)

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