पेसा की रजत जयंती: जमीन पर नहीं उतर सका कानून

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बस्तर। पेसा अधिनियम की रजत जयंती पर आज बड़ी दुविधा में हूं। दुविधा इस बात की है कि मैं इसके युवावस्था का उत्सव मनाऊ, इसकी जो दुर्गति लगातार हुई है उसकी चिंता करूं या इसके क्रियान्वयन को बेहतर कैसे कर सकते हैं उस पर चिंतन करूं। यह शब्द पेसा मामलों के जानकर अश्वनी कांगे का है बस्तर में लंबे समय से पेसा कानून के मसलों पर काम कर रहे अश्वनी कांगे से जनचौक ने बात किया। 

उन्होंने कहा कि उत्सव का विषय यह है कि यह कानून आज भी प्रासंगिक है। बीते 25 साल में पांचवीं अनुसूची क्षेत्र के मुद्दे वही हैं जो इस कानून में लिखे हुए है। इन क्षेत्रों के जल-जंगल-जमीन के अधिकार। उनकी रीति-नीति-परंपरा के अनुसार अपनी पंचायती राज व्यवस्था को बनाना। ग्राम सभा और पंचायतों को स्वशासन और स्वायत्तता की ओर अग्रसर करना। गांव में अपना राज स्थापित करना। पेसा ही ऐसी कड़ी है जो सम्पूर्ण पांचवीं अनुसूची क्षेत्रों को एक धागे में पिरोती है और लोगों को एक दूसरे से जोड़ती है। 

अश्वनी आगे कहते हैं चिंता लेकिन मुझे इस बात की है कि कानून का इतना बढ़िया ढांचा होने के बाद भी इसकी दुर्गति का कारण क्या है। छत्तीसगढ़ में आज भी इसका नोडल विभाग स्पष्ट नहीं है। आज भी इसके लिए नियम बनाए जाने की प्रक्रिया जारी है। आज भी इसको लागू करने के लिए मैदानी अमला मौजूद नहीं है। इसकी निगरानी करने के लिए समीक्षा बैठक तक नहीं होती है। इन सबसे बड़ी चिंता का विषय है की 25 साल बाद भी समाज और सरकार का बड़ा वर्ग इसकी मूल भावना को समझ नहीं पाया है।  
यही चिंता ही मुझे इस चिंतन की ओर ले जाती है कि कहाँ इसके क्रियान्वयन में कमी रह गयी है। पेसा में ऐसा क्या है जिससे राजनीतिक और सरकारी व्यक्ति इस पर बात करने से भी डरते है? क्यों सभी समाज को लगता है कि पेसा के पूर्ण रूप से लागू होने से आदिवासी समाज ही सारे अधिकार पा जायेगा? 

इन सभी धारणाओं और गलत व्याख्याओं को दूर करने की जरूरत है। कही-सुनी बातों से ज्यादा अधिनियम और नियम को पढ़कर समझने की जरूरत है। चूँकि संविधान का अनुच्छेद 40 ग्राम सभा/पंचायतों को स्वायत्त शासन की इकाई के रूप में देखता है यह स्वायत्तता सविधान के अनुच्छेद 243 के अंतर्गत पांचवीं अनुसूची क्षेत्रों में पेसा कानून में बताये गए अपवादों और उपन्त्रणों के जरिये से ही हो सकती है। इसी के तहत संविधान की 11 अनुसूची के 29 विषय जिसमे शिक्षा, स्वास्थ्य, सड़क, पानी, बिजली, विकास के समस्त कार्य सहित समीक्षा, नियंत्रण तथा स्वशासन शामिल है यह सब भी पांचवीं अनुसूची क्षेत्रों में पेसा के माध्यम से ही संचालित होता है। पेसा के अलावा और कोई दूसरा कानून अभी वर्तमान में विद्यमान नहीं है जिसके माध्यम से इनका क्रियान्वयन किया जा सके।

पेसा को पढ़ते वक्त मूल रूप से इस बात का ध्यान रखना है कि यह पांचवीं अनुसूची क्षेत्रों में रहने वाले सभी लोगों को ग्राम सभा और पंचायत के माध्यम से सशक्त करता है। यह किसी वर्ग विशेष को लाभ नहीं पहुंचता है और ना ही सिर्फ यह आदिवासी समाज के लिए बनाया गया कानून है।
बता दें कि छत्तीसगढ़ पंचायत राज अधिनियम की धारा 129 (e)(3) को ठीक से पढ़ेंगे तो पाएंगे की पंचायती राज व्यवस्था और पेसा में अनुसूचित जाति (SC) और अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC) के लिए भी आरक्षण है। जहाँ सरपंच/अध्यक्ष के पद अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित हैं वहां उपसरपंच/उपाध्यक्ष के पद SC अथवा OBC के लिए आरक्षित है। पेसा इसलिए समाज के वर्ग में भेद नहीं कर रहा है और सभी को अनेक रूप से अवसर दे रहा है।

पेसा जहाँ पर भी रूढ़ी परंपरा की बात करता है तो किसी वर्ग विशेष की रूढ़ी परंपरा पर जोर नहीं देता है बल्कि पांचवीं अनुसूची क्षेत्रों में निवासरत सभी समाजों की रूढ़ी परंपरा को सुरक्षित और संरक्षित करने के लिए ग्राम सभा को शक्ति देता है और उन्हें सक्षम बनाता है।  
गाँधी के ग्राम स्वराज की परिकल्पना को साकार करते हुए सत्ता का विकेंद्रीकरण जरूर हुआ पर शक्तियों और संसाधनों का विकेंद्रीकरण कोई सरकार/शासन नहीं चाहती। केंद्रीकृत व्यवस्था से सारा लाभ कुछ गिने-चुने लोगों के हाथ में जा रहा है जिससे मुक्ति पाने का रास्ता दिखाता है पेसा। आजादी के बाद भी दोयम दर्जे की जिंदगी बिताने के लिए मजबूर पांचवीं अनुसूची के क्षेत्रों के निवासियों के लिए एक उम्मीद है पेसा।

इसलिए पेसा कानून को पूर्ण रूप से लागू करना सभी समाज के हित में है, सभी पार्टियों के हित में है, सभी संगठनों के हित में है, सिवाय कुछ पूंजीपति और राजनीतिक वर्ग के लोगों के जो सत्ता और संसाधन को अपनी मुट्ठी में बंद रखना चाह रहे हैं।
इस बंद मुट्ठी को खोलने का आज 25 साल बाद हमारे लिए मौका है। इसके लिए हम सभी को पूरी ताकत लगानी होगी। हमारी विषमताओं और भिन्नताओं के बावजूद हमें साथ आना होगा। अपनी अलग अलग आदिवासी वर्ग की पहचान से, अपनी SC, OBC, दलित की पहचान से ऊपर उठ कर हमें गाँव के रूप में, पांचवीं अनुसूची क्षेत्रों के रूप में एक होना होगा। तब ही बन पायेगा हमारा गाँव गणराज्य, तब ही हो पायेगा मावा नाटे – मावा राज, तब ही होगा हमारे गाँव में हमारा राज, तब ही होगा अबुआ दिशुम – अबुआ राज और तब ही बन पायेगी अपने गाँव में अपनी सरकार।

इसलिए मेरा आव्हान है कि पांचवीं अनुसूची क्षेत्रों के सभी लोग इस पच्चीसवीं वर्षगांठ पर पेसा को पूर्ण रूप से लागू करने के लिए आगे आयें। इसे कोई दूसरा लागू नहीं करेगा। कोई सरकार नहीं करेगी। इसे हमें खुद करना होगा। ग्राम सभा सदस्य के रूप में, पंच/सरपंच के रूप में, जनपद/जिला पंचायत के सदस्य/अध्यक्ष/उपाध्यक्ष के रूप में। हमें खुद अपने गाँव में सरकार बननी होगी और अपनी रूढ़ी परंपरा को जिन्दा करना होगा। तब जा के हमारे पुरखों की विरासत को पेसा के कानूनी ढाँचे के माध्यम से हम संभाल पाएंगे।  

पेसा कानून आदिवासी समुदाय की प्रथागत, धार्मिक एवं परंपरागत रीतियों के संरक्षण पर असाधारण जोर देता है। इसमें विवादों को ढंग से सुलझाना एवं सामुदायिक संसाधनों का प्रबंध करना भी सम्मिलित है। पेसा कानून एक सरल व व्यापक शक्तिशाली कानून है जो अनुसूचित क्षेत्रों की ग्रामसभाओं को क्षेत्र के संसाधनों और गतिविधियों पर अधिक नियंत्रण प्रदान करता है।यह अधिनियम संविधान के भाग 9 जो कि पंचायतों से सम्बंधित है का अनुसूचित क्षेत्रों में विस्तार करता है। पेसा कानून के माध्यम से पंचायत प्रणाली को अनुसूचित क्षेत्रों में विस्तार किया गया है। विकेंद्रीकृत स्वशासन का मुख्य उद्देश्य गांव के लोगों को स्वयं अपने ऊपर शासन करने का अधिकार देना है।

संसद में सिर्फ दो ही कानूनों को शत-प्रतिशत बहुमत से पारित किया गया था, पहला पंचायत उपबन्ध का अनुसूचित क्षेत्रों पर विस्तार अधिनियम 1996 (पेसा कानून) दूसरा, वन अधिकार मान्यता कानून 2006 संशोधित 2012। लेकिन इन दो कानूनों को लागू करने में राज्य सरकार की प्रशासनिक मिशनरी विफल रही है। जबकि इन दो अधिनियम से ही अनुसूचित क्षेत्रों की मौलिक समस्याओं के निराकरण के साथ लोकतांत्रिक व्यवस्था में प्रत्येक व्यक्ति की प्रत्यक्ष भागीदारी हो सकती है।आदिवासियों के लिए कानून तो बनाए गए हैं लेकिन सरकारों ने इन कानूनों को धरातल पर लागू नहीं किया।

(बस्तर से जनचौक संवाददाता तामेश्वर सिन्हा की रिपोर्ट।)

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