उर्गम घाटी (उत्तराखंड): ”उर्गम घाटी जितनी ही सुंदर है, यहां जीवन उतना ही दुर्गम है”। उर्गम में होमस्टे चलाने वाले हरि की बातें जैसे कानों में धंस गईं। चमोली जिले में बद्रीनाथ हाईवे पर हेलंग से कल्प गंगा के उद्गम तक फैली इस घाटी के बारे में हम ने काफी कुछ सुना था। लिहाज़ा दिसंबर के कुछ आखिरी दिन यहां बिताने का मन बनाया। जोशी मठ से वापस चमोली की ओर चलते हैं तो दस- बारह किलोमीटर के बाद एक जगह आती है हेलंग, इसी तिराहे से 12 किलोमीटर दूर है उर्गम घाटी। समुद्र तल से इसकी ऊंचाई 2080 मीटर है।

कार से उतरने के बाद आपकी आंखें आस-पास बिखरी प्रकृति की अथाह सुंदरता से एडजस्ट करने की कोशिशों में लग जाती हैं। इस खूबसूरत घाटी में घर, पगडंडियां और पेड़ सब कुछ जैसे खिलौनों सरीखे लगते हैं। जैसे सब कुछ बड़े-बड़े पहाड़ों के बीचों- बीच उग आया हो। नदियों, फूलों, पहाड़ों और सीधे-सरल पहाड़ियों की बसावट वाली इस घाटी में छह हज़ार लोगों की रिहाइश है और कई गांव हैं।

लेकिन घाटी के हालात देखकर लगता है कि आजादी के इतने साल बाद भी स्वास्थ्य, बिजली, सड़क और संचार की सुविधाएं क्या हैं लोग नहीं जानते । हरि के कहे वाक्य का सच जानने के लिए मैंने यहां के लोगों से बात कर उनकी मुश्किलें समझने का मन बना लिया।
हम देवग्राम गांव में थे, अगले दिन नींद घोड़ों के गले में बंधी घंटियों की आवाज़ से खुली। घर से निकलकर मेरी मुलाकात बगल के ही घर वाली प्रमिला से हुई। मटमैले पहाड़ी घर के बीचों-बीच एक बिस्तर पर बैठी 30 साल की प्रमिला हमसे खुशी खुशी बात करने को राज़ी हो जाती है। उसके साथ ही उसकी सास भी वहीं बैठी हैं। प्रमिला इस गांव की बहू है और 2 साल पहले ही शादी करके आई है। बिस्तर के सिरहाने उसकी डेढ़ साल की बेटी सो रही है।

वो बताती है कि यहां 12 गांवों में एक प्राथमिक हेल्थ सेंटर है। लेकिन वहां डॉक्टर 12 महीनों में कभी नहीं रहते, लिहाज़ा महिलाओं को डिलीवरी के लिए जोशीमठ जाना पड़ता है। वो आगे बताती है कि ज़रा सोचिए जब हेलंग से उर्गम के लिए रास्ता बारिशों में खराब रहता है तो लोग कैसे बाहर जाते हैं? महिलाओं को कुर्सी पर बिठाकर रास्ता पार करवाना पड़ता है। कई बार सही समय पर इलाज ना मिलने से प्रेग्नेंट महिलाओं की मौत ही हो जाती है। प्रमिला की बातें सुनकर कोई भी शख्स एक बार को सोच सकता है कि क्या वाकई हम साल 2022 में दाखिल हो चुके हैं?

पहाड़ के लोग, खासकर महिलाएं बहुत कठिन जीवन जीतीं हैं, गांवों में अभी भी सुबह-सुबह जवान से लेकर बूढ़ी महिलाएं कंधे पर चारे और लकड़ी का बोझ उठाए चलती-फिरती दिख जाएंगी। ऐसी ही एक बुजुर्ग महिला से मैंने अभिवादन किया, मैंने उनसे पूछा सब कैसा चल रहा है, उन्होंने गढ़वाली में ही कहा -बाकी ठीक है पैरों में दर्द रहता है, दिखाएं किसे, डॉक्टर हेल्थ सेंटर में बैठते ही नहीं । 50 साल की भारती देवी भी कहती हैं कि वो बहुत छोटी थीं तब ब्याह कर गांव में आई थीं लेकिन उन्होंने इतने साल के अपने जीवन में एक बार भी यहां एंबुलेंस तक नहीं देखी।

6 हजा़र की आबादी और दर्जनों गांव वाली इस घाटी की पंगडंडियों पर टहलते हुए आप सोचते हैं कि उत्तराखंड के दूसरे अपेक्षाकृत कम सुंदर इलाकों में पर्यटन ने रोज़गार का रास्ता खोला है और लोगों का जीवन पहले से थोड़ा बेहतर हुआ है। लेकिन उर्गम आकर लगता है कि आप एक ऐसी जगह आ गए हैं जो दुनिया से एकदम कटी हुई है, जहां ना टूरिज्म है और ना ही कोई और काम धंधा। आखिर ऐसा क्यों है? स्थानीय लोगों से बात करने पर पता चलता है कि इन सारे सवालों के जवाब यहां की जर्जर रोड से जुड़े हैं। स्थानीय निवासी और पत्रकार रघुवीर सिंह नेगी कहते हैं कि ”यहां सबसे बड़ा मुद्दा तो सड़क है । हेलंग की तरफ से उर्गम से आने वाली सड़क इस घाटी के दर्जन भर गांवों के लिए लाइफलाइन का काम करती है, लेकिन वो जब-तब टूटी ही रहती है, लिहाज़ा यहां धार्मिक पर्यटन के लिए आने वाले लोग भी नहीं दिखते”।

पर्यटन के ना फलने फूलने के पीछे राज्य सरकार की पर्यटन नीति भी जिम्मेदार है। नेगी आगे कहते हैं कि – ये पूरा इलाका धार्मिक पर्यटन के लिहाज़ से बेहद अहम है, लेकिन सरकार की वेबसाइट में यहां के धार्मिक स्थलों को लेकर पूरी जानकारियां तक नहीं हैं, जिससे कि पर्टयन के लिए आने वाले लोगों को पता ही नहीं चल पाता कि यहां टूरिज्म का कितना पोटेंशियल है। वहीं होम स्टे खोलने से जुड़ी फॉर्मेलिटी इतनी मुश्किल है कि गांव वाले उसका फायदा नहीं उठा पाते।”
बद्रीनाथ विधानसभा सीट बीजेपी के महेंद्र भट्ट के पास है। बीजेपी का गढ़ रहे इस इलाके में ना सिर्फ विधायक के काम-काज बल्कि राज्य सरकार को लेकर अंदर तक नाराज़गी दिखी। स्थानीय प्रदीप सिंह नेगी बताते हैं कि कोरोना से पहले वो छोटा सा रेस्टोरेंट चलाते थे, लेकिन कोरोना और लॉकडाउन के बाद सब काम ठप हो गया और सरकार से भी कोई राहत ही नहीं मिली। प्रदीप का घर देवग्राम इलाके के एकदम किनारे पर बसा है, इस इलाके में जहां साल 2013 की आपदा के बाद से ज़मीन दरक रही है। प्रदीप जैसे कई लोग अब तक आपदा के खौफ में तले जीने को मजबूर हैं।

इस बीच हम चाय के लिए एक दुकान में रूक गए। दुकानदार बख्तावर सिंह रावत से मैंने पूछा- यहां बच्चों की पढ़ाई का इंतज़ाम कैसा है? सिंह ने बताया कि दूसरे ज़िलों की ही तरह अटल उत्कृष्ट विद्यालय यहां पर भी है, यहां के लोगों को भी सपना दिखाया गया कि शहरों की ही तरह यहां के बच्चे भी अंग्रेजी में पढ़ाई कर पाएंगे, लेकिन यहां इन स्कूलों का हाल ये है कि यहां टीचर्स तो हैं लेकिन वो इंग्लिश मीडियम पढ़ा ही नहीं पाते। लिहाज़ा नतीजा वही सिफ़र खैर धूप चढ़ आई थी और अब हमने देवग्राम से ऊपर की तरफ वाले गांवों का जायज़ा लेने का मन बनाया। दो किमी ट्रेकिंग कर हम वासा पहुंचे । इस गांव में अभी तक सड़क नहीं है और खाने-पीने का सामान अभी तक घोड़ों के ज़रिए ऊपर ले जाया जाता है।
अपने आंगन में दो बकरियों और 2 छोटी गायों के बीच मूली और सरसों की खेती करने वाली 50 साल की धनेश्वरी देवी को सरकार और प्रशासन से खासी शिकायतें हैं। वो कहती हैं कि ज़िंदगी बीत गई, मैं कभी यहां से नीचे गई ही नहीं।

लेकिन इतने सालों में कुछ नहीं बदला। सरकार ने हमारे लिए कुछ नहीं किया । मैंने पूछा – आप वोट करोगे, तो वो बोली हम वोट नहीं करेंगे, कोई फायदा ही नहीं। बिंदेश्वरी की आंखों में लाचारगी के साथ साथ गुस्सा भी है।
इतने में पीछे से डायनामाइट के धमाके की आवाज़ आती है। पहाड़ की चट्टानें काट कर, रास्ता बनाया जा रहा है। बिंदेश्वरी कहने लगीं- असल रास्ता तो तब बनेगा जब वो हमारे घर तक आएगा। धूप ढलने को थी तो हमारे कदम भी गांव की कच्ची पगडंडियों पर वापसी की ओर लौटने लगे। मैं सोचने लगी बिंदेश्वरी देवी ने सही ही कहा, हर पांच साल में चुनाव के दौरान नेताओं के कदम और वादे तो इनके दरवाज़े तक आते हैं लेकिन विकास का रास्ता अब भी इन की ड्योढियों से कोसों दूर है।
(उर्गम से वरिष्ठ पत्रकार और डॉक्यूमेंट्री मेकर अल्पयू सिंह की रिपोर्ट।)