लोहड़ी का महानायक दूल्हा भट्टी

लोहड़ी समूह पंजाबी लोकाचार का सबसे बड़ा पर्व है। पंजाबियत की साझी विरासत का सशक्त प्रतीक भी। माना जाता है कि लोहड़ी की रात के बाद कड़कड़ाती ठंड का सफर ढलान की ओर जाने लगता है। हालांकि यह पक्ष अब ऋतु-चक्र के मिजाज पर ज्यादा निर्भर करने लगा है। फिर भी मान्यता यही है कि लोहड़ी की रात पूरे रस्मों रिवाज के साथ, अग्नि का अतिरिक्त सम्मान करते हुए ठंड को विदाई दी जाती है। पंजाबी पूरे उमंग से इसे मनाते हैं और यह कहकर लोहड़ी की रात खुशहाली की कामना करते हैं कि “इशर (खुशहाली) आए, दलिद्दर जाए/दलिद्दर दी जड़ चूल्हे पाए।” यानी बदहाली पूरी तरह से स्वाहा हो जाए।

हर पर्व की तरह लोहड़ी से जुड़े मिथकों के भी कई आयाम हैं और बदलते युग में खड़ी कुछ पुरातन विसंगतियां भी, जो नवचेतना अथवा वैज्ञानिक चेतना के साथ-साथ रफ्ता-रफ्ता बदल भी रही हैं। इनमें से एक अहम यह कि लोहड़ी पुत्र-जन्म और पुत्र-विवाह का प्रतिनिधि उत्सव भी है। अब पंजाब और इसके आसपास के इलाकों में ‘धीयों (यानी बेटियों) की लोहड़ी’ के बढ़ते प्रचलन ने इस त्योहार को यकीनन नया अक्स दिया है। इसे बेहतर समझने के लिए लोहड़ी पर्व के लगभग सर्वमान्य इतिहास की तहों में एकबारगी फिर से जाना गैर वाजिब नहीं।    लोहड़ी जहां भी मनाई जाती है, एक गीत की पंक्तियों के बगैर अधूरी मानी जाती है : “सुंदर मुंदरिये, तेरा कौन विचारा हो…दुल्हा भट्टी वाला हो…।” यानी दूल्हा भट्टी इस पर्व का नायक है और यह गीत उसकी शान में बच्चों से लेकर बड़ों तक गाया जाता है।

लोक गाथा के मुताबिक दूल्हे के पिता फरीद ने अकबर के खिलाफ बगावत की और अकबर ने फरीद और उसके पिता को कत्ल करवा दिया। बचपन में मुगल हुकूमत द्वारा अपने पिता दादा के क़त्ल की कहानियां सुनते सुनते दूल्हा भी बागी हो जाता है। उस वक्त के इलाके के हाकिम ने हिंदू लड़की सुंदरी (कुछ के अनुसार दो लड़कियों सुंदरी व मुंदरी का अपहरण कर लिया। दूल्हा सुंदरी को हाकिम के चंगुल से छुड़ाकर उसकी शादी करवाता है।

शादी के लिए वह लोगों से सहयोग मांगता है। हाकिम के खौफ से कोई सहयोगी हाथ आगे नहीं बढ़ता, सिर्फ सवा सेर शक्कर मिलती है। इसका जिक्र उक्त गीत में है। उसकी तमाम जमीन जायदाद जब्त कर ली जाती है।बाद में मुगलों से लड़ता हुआ दूल्हा गिरफ्तार हो जाता है और अकबर के दीन-ए-इलाही मानने से इनकार करने के चलते फांसी पर लटका दिया जाता है। ऐसी बेमिसाल बहादुरी के चलते दूल्हा पंजाब की जुल्मत के खिलाफ बगावत का सबसे बड़ा प्रतीक बनकर उभरता है। उसे पंजाब के महालोकनायकों का दर्जा हासिल है। फांसी के बाद उसके नाम पर पंजाब में गीत बने और घर घर गाए जाने लगे। जिन्हें ‘वारां’ भी कहा जाता है।             

पंजाब के किस्सा (लोक गाथा) साहित्य में सबसे ज्यादा मकबूल दूल्हा भट्टी का किस्सा माना जाता है। कभी लोहड़ी के दिन यह प्रार्थना गीत जैसा दर्जा रखता था। परंपरा के मुताबिक बच्चे आज भी लोहड़ी की शुरुआत जब घर घर जाकर बाखुशी लोहड़ी ‘मांगते’ हैं तो सिर्फ ‘सुंदर मुंदरिये…’ का सामूहिक गान करते हैं। लोक परंपराओं में यह एक विलक्षण उदाहरण है। अविभाजित पंजाब के दौरान किशन सिंह द्वारा दूल्हा भट्टी लिखा किस्सा लाखों लोगों की जुबान पर चढ़ा। पाकिस्तानी पंजाब के नामचीन लेखक और किसान मजदूर पार्टी के संस्थापक इसहाक मोहम्मद ने दूल्हा भट्टी पर नायाब नाटक ‘कुकनस’ लिखा।

इसी मानिंद पाकिस्तान में फौजी दमन के दौर में प्रख्यात जनवादी लेखक अहमद सलीम ने ‘दूल्हे दी वार’ शाहकार रचा। पाकिस्तान में ही नजम हुसैन सैयद ने नाटक ‘तख्त लाहौर’ लिखकर दूल्हा भट्टी का नाता शाह हुसैन से जोड़ा। पंजाबी के अंतरराष्ट्रीय स्तर के नाटककार गुरशरण सिंह ने अपने मकबूल नाटक ‘धमक नगाड़े दी’ के जरिए दूल्हे का जीवन चरित्र महान लोकनायक के बतौर प्रस्तुत किया। इसे गुरशरण सिंह के अहम नाटकों में से माना जाता है।                                      

इन तमाम नाटकों/किस्सों/रचनाओं की अंतर्वस्तु में महिलाओं की हिफ़ाजत में अपनी जान देना दूल्हा भट्टी के महानायकत्व का सार है। लोहड़ी के दिन अनिवार्य तौर पर गाए जाने वाले गीत ‘सुंदरी मुंदरी’ की बुनियाद भी यही है कि पुरुष को ही औरत की रक्षा करनी है। इसलिए गाहे-बगाहे इस तर्क के साथ लोहड़ी का विरोध भी होता रहा है कि यह वस्तुतः पुरुष प्रधान पर्व है। लड़के के होने और उसकी शादी पर लोहड़ी ‘डाली’ जाती है। लड़कियों को अबला मानकर उनकी हिफाजत के दूल्हा भट्टी की बेमिसाल कुर्बानी को रेखांकित किया जाता है। हालांकि अब इस पूरे रुझान में बदलाव आया है। हर पर्व का इतिहास और मिथक समय समय पर नए मोड़ काटता ज़रूर है और साथ ही उसके सच्चे नायकों की प्रासंगिकता भी कायम रहती है, जैसी आज भी दूल्हा भट्टी की है।                                          

पंजाबियों में लड़कियों की लोहड़ी (भी) मनाने की रिवायत जब शुरु हुई थी, तब  असंगठित नारी आंदोलनों का दौर था। सो कहीं-कहीं पहले-पहल विरोध हुआ, फिर इसे परवान किया गया और अब कोई इसे अचरज से नहीं देखता बल्कि अतिरिक्त उत्साह पाया जाता है। प्रसंगवश, वैसे भी आज के मनुष्य विरोधी अंधेरे में लाखों लड़कियां और महिलाएं खिलाफत की जो लोहड़ी जला रही हैं, क्यों न उन्हें (लोहड़ी की लोक गाथा के महानायक) दूल्हा भट्टी की बेटियां माना जाए? फिर लोहड़ी अग्निपर्व भी तो है! 

(पंजाब से वरिष्ठ पत्रकार अमरीक सिंह की रिपोर्ट।)

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