आखिर कितना बड़ा है भारत का ‘मध्य वर्ग’?

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भारत में मध्य वर्ग का आकार कितना बड़ा है, इस सवाल पर जब-तब बहस छिड़ती रहती है। जब कभी पश्चिमी देशों की अपनी अर्थव्यवस्था संकट में पड़ी नजर आती है, तो वहां की कंपनियों और मीडिया का ध्यान उभरती अर्थव्यवस्था वाले देशों के मध्य वर्ग पर जा टिकता है। इसलिए कि मध्य वर्ग के बारे में माना जाता है कि उसके पास रोजमर्रा की जरूरतों को पूरा करने के बाद अतिरिक्त उपभोग की बढ़ाने क्षमता है। धनी वर्ग का आकार इतना छोटा है और चूंकि उसकी आम उपभोग की भूख काफी पहले शांत हो चुकी होती है, इसलिए उनके बल पर आम उपभोक्ता सामग्री बनाने या सामान्य सेवाएं देने वाली कंपनियों का बिजनेस प्लान कारगर नहीं हो सकता। विमान या विलासितापूर्ण जहाज (yatch) बनाने वाली कंपनियों की बात दीगर है। 

इस समय पश्चिमी विमर्श पर चीन से संबंध-विच्छेद (decoupling) या संबंधों में जोखिम का निवारण (de-risking) की बात छाई हुई है। तो उनका ध्यान भारत पर टिका है। इस बीच भारत दुनिया में सबसे बड़ी आबादी वाला देश बन गया है। इस कारण भी पश्चिम में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के इस दावे की स्वीकृति फिलहाल बढ़ी हुई दिखती है कि अपनी विशाल आबादी (demography), लोकतंत्र (democracy) और बाजार में मांग (demand) के बूते भारत विश्व अर्थव्यवस्था का अगला हॉट स्पॉट बनेगा। 

इस संदर्भ में यह अनुमान फिर लगाया जा रहा है कि भारतीय आबादी में असल में कितने लोग मध्य वर्ग में शामिल हैं? इसलिए कि आखिरकार वो लोग ही हैं, जिन्हें कंपनिया भारत में ‘बाजार’ समझती हैं। 

हाल में बाजार विश्लेषकों रमा बीजापुरकर और युवा-हेंड्रिक वॉन्ग ने एक लेख में कहा कि ‘भारत में मध्य वर्ग की श्रेणी में पूरी तरह शामिल हो चुके परिवारों की संख्या चार से पांच करोड़ है।’ अगर हम इसके बीच की संख्या यानी साढ़े चार करोड़ को आधार मान लें और उसमें भारतीय परिवारों की औसत सदस्य संख्या (4.44) से गुणा करें, तो भारत में मध्य वर्ग की संख्या तकरीबन 20 करोड़ बैठेगी। 

मगर 2021 में अमेरिकी रिसर्च संस्था Pew Research ने अपनी एक अध्ययन रिपोर्ट में बताया था कि कोरोना महामारी आने के पहले भारतीय मध्य वर्ग की संख्या लगभग 10 करोड़ थी। कोरोना महामारी की आम लोगों पर पड़ी असाधारण मार ने उनमें से सवा तीन करोड़ लोगों को वापस गरीबी रेखा के नीचे धकेल दिया। इसके बाद तकरीबन साढ़े छह करोड़ लोग ही मध्य वर्ग में बचे। अब अगर मान लें कि महामारी के बाद आबादी का एक हिस्सा फिर से मध्य वर्ग में लौट आया होगा, तब भी इन दोनों अनुमानों में अंतर बहुत ज्यादा है।

विश्व बैंक 2011 के अपने एक अध्ययन से इस निष्कर्ष पर पहुंचा था कि भारत की 95 प्रतिशत आबादी गरीब या निम्न आय वर्ग का हिस्सा है। (तब देश की आबादी 120 करोड़ थी।) विश्व बैंक ने इस रिपोर्ट में ध्यान दिलाया था दुनिया की आबादी में गरीब/निम्न आय वर्ग की औसत संख्या 71 प्रतिशत है, वहीं भारत में यह 95 प्रतिशत है। तब विश्व बैंक ने कहा था कि भारतीय मध्य वर्ग में देश की आबादी का सिर्फ लगभग दो प्रतिशत हिस्सा है, जबकि विश्व में यह औसत 13 प्रतिशत है।

भारतीय मध्य वर्ग के बारे में विश्व बैंक ने यह अनुमान इसलिए लगाया, क्योंकि उसके अध्ययन से सामने आया कि भारत में जिन लोगों को गरीबी रेखा से ऊपर बताया जाता है, असल में उनकी बहुसंख्या सरकारी गरीबी रेखा से ठीक ऊपर रहते हुए अपना जीवन गुजारती है। यानी इन लोगों की उपभोग क्षमता ऐसी नहीं है कि उन्हें वैश्विक पैमाने पर मध्य वर्ग का हिस्सा कहा जाए। 

वैसे विडंबना यह है कि सर्वेक्षणों के दौरान लगभग आधे भारतीय खुद को मध्य वर्गीय बताते है। अध्ययनकर्ताओं ने बताया है कि व्यक्तियों के लिए खुद को गरीब या निम्न आय वर्ग का बताना सामाजिक रूप से शर्मनाक लगता है, जबकि खुद को मध्य वर्ग का बताने में उन्हें एक तरह का सम्मान महसूस होता है। बहरहाल, हकीकत यही है कि भारतीय मध्य वर्ग असल में बहुत छोटा है और अगर वैश्विक पैमाने पर देखें, तो भारत में जिन लोगों को मध्य वर्गीय समझा जाता है, उनका भी एक बड़ा हिस्सा गरीब माना जाएगा।

संख्या को लेकर इतना अधिक भ्रम इसलिए भी है कि मध्य वर्ग की परिभाषा क्या है, यह दुनिया में कहीं तय नहीं है। अलग-अलग विशेषज्ञ अपनी समझ के आधार पर इसका अनुमान लगाते हैं। मसलन, भारतीय थिंक टैंक- नेशनल काउंसिल ऑफ एप्लाइड इकॉनमिक रिसर्च (NCAER) की परिभाषा के मुताबिक प्रति वर्ष दो लाख से दस लाख रुपये तक आमदनी वाले परिवार मध्य वर्ग का हिस्सा हैँ। जबकि अर्थशास्त्रियों अभिजित बनर्जी और एस्तर डुफलो ने प्रति दिन दो से 10 डॉलर (परचेजिंग पॉवर पैरिटी के साथ) खर्च क्षमता को मध्य वर्ग में होने का पैमाना माना है। 

अब अगर हम इस चर्चा को गहराई देते हुए इसे थोड़े ऐतिहासिक संदर्भ में ले जाएं, तो मध्य वर्ग के बारे में अलग-अलग समझ और धारणाओं की मौजूदगी के कारणों को समझने में कुछ अधिक मदद मिल सकती है।  

ब्रिटेन की कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी में समाजशास्त्र के प्रोफेसर गोरान थेरबॉर्न को मध्य वर्ग संबंधी विमर्श का विशेषज्ञ समझा जाता है। साल 2020 में लिखे एक शोधपूर्ण लेख- दुनिया के मध्य वर्ग के स्वप्न और दुःस्वप्न में उन्होंने बताया था कि अंग्रेजी भाषा में मिडल क्लास शब्द का प्रवेश दो सदी पहले- 1790 से 1830 के बीच हुआ। उन्होंने लिखा- ‘उभरते औद्योगिक समाज ने जब राजशाही और तत्कालीन सामंती अभिजात्य वर्ग को पछाड़ दिया, तो 19वीं सदी में यह बहस खड़ी हुई की समाज किधर जा रहा है और इसमें मध्य वर्ग की क्या जगह है। उदारवाद का तर्क यह था कि शासन का काम मध्य वर्ग को सौंप दिया जाना चाहिए, जिसे इतिहासकार जेम्म मिल ने समुदाय का सबसे बुद्धिमान और गुणवान हिस्सा बताया था।’

बहरहाल, यह जरूर ध्यान में रखना चाहिए कि यूरोप में यह उस समय की बात है, जब मध्य वर्ग का मतलब व्यापारी और उभरते पूंजीवादी वर्ग से था। वह राजशाही और सामंतवाद का युग था। संसाधनों और सत्ता पर सामंती समूहों का ही कब्जा था। यह वर्ग नए उभर रहे कारोबारी वर्ग के कार्य-व्यापार में टैक्स सहित कई तरीकों से अवरोध डालता था। निवेश और व्यापार को राजकीय नियंत्रण से मुक्त करने की मांग उसी संदर्भ में पैदा हुई थी। उधर चूंकि नए कारोबार के लिए नए तरह के ज्ञान और कौशल की जरूरत थी, इसलिए नवोदित वर्ग में शिक्षा और प्रशिक्षण का चलन बढ़ा। इसी क्षमता के बल पर इस वर्ग के पैरोकारों ने इसे सबसे बुद्धिमान और गुणवान बताने की दलील गढ़ी थी।

इस नवोदित वर्ग को इंग्लैंड में मिडल क्लास, जर्मनी में बुर्गरटुम (Bürgertum), और फ्रांस में बुर्जुआ (bourgeoisie) कहा गया। फ्रेंच शब्द आज पूंजीपति वर्ग के लिए इस्तेमाल होता है, तो इसीलिए कि उस दौर में उभरे जिस वर्ग की हैसियत सामंती अभिजात्य और श्रमिक वर्ग के मध्य में थी, वह तबका धीरे-धीरे सबसे धनवान हो गया और फिर में राजसत्ता को भी प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से संचालित करने लगा। धीरे-धीरे यूरोपीय समाज मुख्य रूप से एक तरफ पूंजीपति-सामंती शासक वर्ग और दूसरी तरफ श्रमिक वर्ग में बंट गया। तब तत्कालीन राजनीतिक शब्दावली में मध्य वर्ग या बुर्जुआ शब्द का मतलब बदल गया। 

फिर 20वीं सदी के दूसरे दशक में सोवियत क्रांति हुई। उसके बाद तो पश्चिम के शासक खेमों में “वर्ग” शब्द के इस्तेमाल को धूमिल या लांछित करने की सुनियोजित कोशिश होती देखी गई। कारण कम्युनिस्ट विमर्श पर वर्ग संघर्ष की धारणा का हावी होना था। इसलिए पूंजीवादी देश ‘वर्ग’ की चर्चा से ही बचने लगे। पश्चिमी पूंजीवादी देशों की राजनीतिक चर्चा में यह शब्द एक तरह से गायब ही हो गया। 

इस शब्द का दोबारा उदय 1970-80 के दशक में हुआ, जब अमेरिका और यूरोप में सुविचारित नीति के तहत श्रमिक वर्ग के एक बड़े हिस्से की उपभोग क्षमता में बढ़ोतरी करने में शासक समूहों को काफी सफलता मिल चुकी थी। तब उस नए वर्ग को पूंजीवाद की सफलता के रूप में पेश किया गया। बताया गया कि पूंजीवादी सिस्टम में धन धीरे-धीरे रिस कर नीचे के तबकों तक पहुंचता है और उससे श्रमिक एक नए प्रकार का जीवन स्तर हासिल करने में सफल हो जाते हैं। 

उसी समय द ग्रेट अमेरिकन मिडल क्लास एक गरम टॉपिक बना। अमेरिकी और यूरोपीय मिडल क्लास के जीवन स्तर की तुलना कम्युनिस्ट देशों के आम जीवन स्तर से करके यह दावा किया गया कि पूंजीवाद एक अधिक कुशल और कारगर प्रणाली है। बहरहाल, ऐसा करते समय ऐतिहासिक और 20वीं सदी के वैचारिक संघर्ष के संबंधित संदर्भों को पूरी तरह से नजरअंदाज कर दिया गया। 

गौरतलब यह है कि यह संदर्भ खत्म होते ही (यानी सोवियत खेमे का विखंडन होते ही) अमेरिकन मिडल क्लास का ‘ग्रेटनेस’ भी खत्म होने लगा और आज सूरत यह है कि यह वर्ग अपने क्षय की अवस्था में है। यह आम आंकड़ा है कि इस वर्ग की वास्तविक आय पिछले 50 साल से जहां की तहां ठहरी हुई है।

यानी 20वीं सदी में नए सिरे से मध्य वर्ग का उदय अनिवार्य रूप से सोवियत क्रांति के विश्वव्यापी प्रभाव से जुड़ा हुआ है। गोरान थेरबॉर्न ने लिखा है- ‘हालांकि सोशल डेमोक्रेसी और कम्युनिज्म का जन्म यूरोप में हुआ, लेकिन श्रमिक वर्ग का समाजवाद पूरी दुनिया के लिए एक मॉडल बना- इसकी झलक चीन और वियतनाम की क्रांतियों में देखने को मिली। इसका प्रभाव पूरे पूर्वी और दक्षिण पूर्वी एशिया पर पड़ा, मेक्सिको के क्रांतिकारी समूहों और फिदेल कास्त्रो का क्यूबा इससे प्रभावित हुए, लैटिन अमेरिका के विशाल प्रगतिशील आंदोलनों- अर्जेंटीना में हुआन पेरोन और ब्राजील में गेटुलियो वर्गास के शासन- तथा हाल के समय में (लूला की पार्टी) पीटी पर इसका असर रहा है। साथ ही उपनिवेशवाद विरोधी संघर्षों- नेहरू की कांग्रेस से लेकर अरब समाजवाद और दक्षिण अफ्रीका की अफ्रीकन नेशनल कांग्रेस तक- इससे प्रभावित रहे हैं।’

हमने यहां इस बात की विस्तार से चर्चा इसलिए की, क्योंकि भारतीय मध्य वर्ग का उदय भी इस संदर्भ से जुड़ा हुआ है। ‘नेहरू की कांग्रेस’ ने जब देश की सत्ता संभाली, तो उसने राज्य नियोजित और सार्वजनिक क्षेत्र केंद्रित आर्थिक विकास नीति पर अमल किया। उसके परिणामस्वरूप सरकारी क्षेत्र और उद्योगों में ऐसी नौकरियां पैदा हुईं, जिनमें नियमित तनख्वाह, लगभग मुफ्त शिक्षा और चिकित्सा, और साथ ही पेंशन जैसी सामाजिक सुरक्षा योजनाओं का लाभ कर्मचारियों को मिला। यह हर विशेषज्ञ मानता है कि ऐसे सिस्टम के बिना कहीं भी मध्य वर्ग का उदय नहीं हो सकता। भारत का तजुर्बा यह है कि जब तक नेहरूवादी नीतियां प्रचलन में रहीं मध्य वर्ग का तेजी से विस्तार हुआ। लेकिन नव-उदारवादी आर्थिक नीतियों के पूरी तरह हावी हो जाने के बाद से यह परिघटना ठहराव का शिकार हो गई है।   

यह ध्यान में रखना चाहिए आज जब मध्य वर्ग की बात होती है, तो उसका संदर्भ सिर्फ उपभोग क्षमता से होता है। अब मध्य वर्ग की संख्या का अनुमान लगाने का काम ज्यादातर मार्केट एजेंसियां करती हैं, जिन्हें उपभोक्ता सामग्री और सेवाएं बेचने वाली कंपनियां यह काम सौंपती हैं। 

साल 2007 में ऐसी ही एक एजेसी मैंकिन्सी ने भविष्यवाणी की थी कि 2025 तक भारत में लगभग 59 करोड़ लोग मध्य वर्ग का हिस्सा होंगे। अब हम लोग 2023 में हैं और भारत में कोई भी 20 करोड़ से अधिक यह संख्या होने का दावा नहीं कर रहा है।

साल 2009 में विश्व बैंक ने मध्य वर्ग की परिभाषा तय करने के लिए अर्थशास्त्री मार्टिन रेवेलियन की सेवा ली थी। रेवेलियन ने तब रोजाना 2 से 13 डॉलर (परचेजिंग पॉवर पैरिटी- पीपीपी के मुताबिक) तक खर्च क्षमता वाले व्यक्तियों को मध्य वर्ग का हिस्सा बताया था। दो डॉलर से नीचे की खर्च क्षमता वाले लोगों को गरीबी रेखा के नीचे माना गया। 

यह चर्चा भारत में भी आगे बढ़ी। 2015 आते-आते यह आम धारणा बन गई कि भारत में हर महीने 15 हजार से एक लाख 80 हजार रुपये तक की आमदनी वाले परिवार मध्य वर्ग का हिस्सा हैं। उधर अर्थशास्त्री सुरेश तेंदुलकर ने विश्व बैंक के फॉर्मूले को पीपीपी के अनुरूप ढालते हुए कहा कि रोजाना शहरों में 33 रुपये और गांवों 27 रुपये से अधिक खर्च क्षमता वाले लोग गरीबी रेखा के ऊपर हैँ। इस रूप में अगर पांच सदस्यों के परिवार की रोजना खर्च संख्या शहरों में 165 रुपये और गांवों में 135 रुपये हो, तो वह परिवार गरीबी रेखा से ऊपर माना जाएगा। महीनेवार यह रकम क्रमशः 4,950 रुपये और 4,050 रुपये बैठेगी। तो सवाल उठा कि मोटे तौर पर पांच हजार से 15 हजार रुपए तक की आमदनी वाले परिवारों को क्या कहा जाएगा?

इस बीच 2012 में गुजरात विधानसभा चुनाव में वहां के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने अगले कार्यकाल में ‘नव-मध्य वर्ग’ पर ध्यान केंद्रित करने की बात कही थी। तब यह शब्द काफी चर्चित हुआ था। विशेषज्ञों ने नव-मध्य वर्ग की परिभाषा ऐसे वर्ग के रूप में की, जो गरीब नहीं रहा, लेकिन जो मध्य वर्ग में भी शामिल नहीं हुआ है। तब अनुमान लगाया गया था कि भारत की 75 से 80 करोड़ आबादी इस वर्ग का हिस्सा है। यूपीए के शासनाकाल में 27 करोड़ लोगों को गरीबी रेखा से ऊपर लाने का जो दावा किया गया था, उसका मतलब यही था कि इतने लोग अब ‘नव-मध्य वर्ग’ का हिस्सा बन गए हैं। बेशक, आज भी भारतीय आबादी का सबसे बड़ा हिस्सा इसी वर्ग में है।

लेकिन इस हिस्से की तो बात छोड़िए, इससे ऊपर के आय वर्ग का बहुत बड़ा हिस्सा ऐसा है, जिसके पास आज की निजीकृत अर्थव्यवस्था में (जहां शिक्षा, इलाज, स्वास्थ्य बीमा आदि सबकी पूरी जिम्मेदारी व्यक्ति/परिवार पर है) रोजमर्रा की जरूरतों को पूरा करने के बाद मनमाफिक उपभोग पर खर्च करने की क्षमता नहीं है। ऐसे में जिन लोगों का मकसद देश के बारे में बेहतर नैरेटिव बनाना या जारी आर्थिक नीतियों की सफलता की मिसालें ढूंढना है, वे अपनी परिभाषा को व्यापक बनाते हुए ऐसे लोगों को मध्य वर्ग में गिन हैँ। 

लेकिन जिन कंपनियों को उपभोक्ताओं की तलाश है, उनके लिए भारत में असल मध्य वर्ग की संख्या बेहद सीमित है। यह कितनी है, इसका अंदाजा लगाने में मतभेद बने रहे हैं। लेकिन आम तुजुर्बे के आधार पर अगर हम अंदाजा लगाने की कोशिश करें, तो एक कसौटी क्रेडिट कार्ड हो सकते हैं। क्रेडिट कार्ड उन लोगों को ही जारी होते हैं, जिनके पास एक निश्चित आमदनी और एक खास आर्थिक स्तर है।

वित्त वर्ष 2022-23 के आंकड़ों के मुताबिक भारत में आठ करोड़ 53 लाख क्रेडिट कार्ड जारी हुए थे। चूंकि संपन्न परिवारों में एक व्यक्ति कई बैंकों के क्रेडिट कार्ड रखता है और वैसे परिवारों में कई सदस्य अपने अलग क्रेडिट कार्ड रखते हैं, तो इस आधार पर मध्य वर्गीय परिवारों की संख्या चार करोड़ के आसपास बैठ सकती है। यही भारत का उपभोक्ता वर्ग है। लेकिन इसमें भी आय के हिसाब से उपभोग स्तर अलग-अलग है। 

बहरहाल, यह आबादी भी इतनी बड़ी है कि किसी एक यूरोपीय देश से अधिक बड़ा उपभोक्ता बाजार उपलब्ध करवाती है। इसलिए अगर इस समय बहुराष्ट्रीय कंपनियों और वित्तीय संस्थानों की निगाह में भारत ‘हॉट केक’ है, तो इस बात को आसानी से समझा जा सकता है। 

(सत्येंद्र रंजन वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

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