आरएसएस की बांझ विचारधारा के पास नहीं हैं लेखक, वैज्ञानिक और अवधारणाएं

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राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ (आरएसएस) की बांझ विचारधारा है, उसमें रहकर सृजन और कला-सृजन संभव नहीं है। संघ में रहकर मुनाफा पैदा कर सकते हो, मोटा धन कमा सकते हो, एक के तीन बना सकते हो। अच्छे गुण्डे, माफिया बन सकते हो! लेकिन बेहतरीन लेखक, कलाकार, संगीतकार और अच्छे मनुष्य नहीं बन सकते।

आरएसएस जन्म से उलटा-पुलटा संगठन रहा है, यह बात अपने आपमें प्रमाण है कि उसमें सृजन-क्षमता नहीं है। मसलन्, क्या आप पांच बड़े शास्त्रीय संगीतकारों और फ़िल्मी संगीतकारों के नाम बता सकते हैं जो कभी युवापन में संघ की शाखा में गए या जिनकी कला संघ से प्रभावित थी! क्या वजह है हर क्षेत्र के कलाकार संघ से दूर रहे और उन्होंने उदारतावादी या रेडिकल परंपरा को अपनाया?

इसी तरह क्या हिंदी फिल्मों के पांच निर्देशक और प्रमुख अभिनेताओं के नाम बता सकते हैं जो बचपन या तरुणावस्था में कभी आरएसएस की शाखाओं में गए हों और जिनके नजरिए पर शुरू से संघ की छाप हो!

गाली देने, झूठ बोलने या फिर नकली को असली बताने के कौशल में आरएसएस और उनके बजरबट्टुओं का जवाब नहीं है। वे साइबर संस्कृति-संघ की वर्णशंकर पैदाइश हैं।

गिनती के दो-तीन लेखकों के बलबूते पर हिंदी साहित्य का पेट नहीं भर सकते हैं आरएसएस वाले! हिंदी की विशाल परंपरा है, आधुनिक काल में आरएसएस के जन्म के बाद सैंकड़ों हिंदी लेखक पैदा हुए हैं, उनमें से इक्का-दुक्का लेखकों को छोड़कर सभी लेखकों ने उदारतावादी या वाम विचारधारा को अपनाया। सवाल यह है लेखकों के लिए संघ की विचारधारा अपील क्यों नहीं कर पाई?

आरएसएस वालों और उनके भक्तों से यही कहना है कि उदारतावादियों में मार्क्सवादियों को गरियाना बंद करो। इनके बिना आप किसी भी विषय का स्कूली शिक्षा से लेकर उच्च शिक्षा का पाठ्यक्रम नहीं बना सकते। आरएसएस दंगों और घृणा फैलाने में समृद्ध है लेकिन ज्ञान-विवेक, सामाजिक चेतना और नागरिक चेतना में दरिद्र है।

कैमिस्ट्री, ज्योमैट्री, फ़िज़िक्स और बायोटैक्नोलॉजी के एमए के पाठ्यक्रम के हिन्दुत्ववादी कंटेंट और नजरिए पर कहीं कुछ लिखा गया हो या आरएसएस नया हिंदूवादी कोर्स कैसा हो सकता है? आरएसएस वाले मित्र मोहन भागवत से मिलकर पता करके रोशनी डालें!

आरएसएस के लोगों को बीए और एमए के सभी विषयों के पाठ्यक्रमों का तुरंत हिन्दूकरण कर देना चाहिए! मसलन् क्या उनके पास इतने लेखक, वैज्ञानिक और अवधारणाएं भी हैं जिनके आधार पर भारत के युवाओं को महान बनाया जा सके!

मैंने जब एकबार लिखा कि आरएसएस की बांझ विचारधारा है तो कुछ संघी मित्रों को मेरी बात पसंद नहीं आई, उनका मन शांत करने के लिए एक अनुभव रखना चाहता हूं, मैंने प्रोफेसर विष्णुकांत शास्त्री के साथ कलकत्ता विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में कई साल अध्यापन कार्य किया है, वे बहुत अच्छे शिक्षक थे, बेहतरीन वक्ता थे, भाजपा के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष थे, राज्यसभा सदस्य, यूपी के राज्यपाल, बंगाल में संघ के बड़े नेता थे।

दिलचस्प पहलू यह कि वे जब साहित्य पर बोलते थे तो एकदम प्रगतिशील नजरिए से, वे कभी किसी संघी थिंकर को उद्धृत नहीं करते, हमेशा प्रगतिशील कवियों को उद्धृत करते, यह रवैया कक्षा से लेकर संगोष्ठी तक हमेशा नजर आता था, मैंने एक दिन उनसे पूछा कि आप राजनीति में संघी हैं, कट्टर सीपीएम विरोधी हैं, लेकिन साहित्य में प्रगतिशील लेखकों को ही पसंद क्यों करते हैं? उन्होंने ईमानदारी से कहा प्रगतिशील लेखकों से बेहतर किसी ने नहीं लिखा, दूसरी बात यह कही कि आरएसएस के नजरिए से साहित्य नहीं रचा जा सकता।

शास्त्री जी का साहित्य लेखन उपलब्ध है उससे यह बात कोई भी समझ सकता है। मेरे साथ उनका खास प्रेम था, उनका आदेश था कि मैं जब कक्षा लूं उसके साथ उनकी कक्षाएं रखी जाएं जिससे मेरे साथ अंतराल में गप्प हो सके।

(जगदीश्वर चतुर्वेदी प्रोफेसर,आलोचक एवं लेखक हैं।)

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