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आरिफ और आरफा के बहाने

“दि वायर” पर आज पूर्व केंद्रीय मंत्री आरिफ मोहम्मद खान का आरफा खानम शेरवानी द्वारा लिया गया इंटरव्यू देखा। इसको देखकर यह लगा कि पत्रकार अगर राजनीतिक रूप से सिद्धहस्त न हो तो उसे किसी घुटे हुए राजनेता का इंटरव्यू नहीं लेना चाहिए। पूरे साक्षात्कार के दौरान आरिफ का भाषण चलता रहा और आरफा मूक दर्शक बनी रहीं या फिर कहिए आगे की बातें कहने के लिए उनको कुछ सूत्र पकड़ाती रहीं। मुस्लिम समुदाय को लेकर आरिफ के अपने तर्क हैं और उसमें बहुत सारा कुछ सही भी है। लेकिन समग्रता में देखने पर वह अर्धसत्य के ज्यादा करीब है। मसलन इस बात में कोई शक नहीं कि देश में बीजेपी और संघ का उभार पिछले 70 सालों की सेकुलर राजनीति की प्रैक्टिस में आयी खामियों का नतीजा है। और इस दौरान चूंकि सबसे ज्यादा समय तक कांग्रेस सत्ता में रही है लिहाजा उसकी जिम्मेदारी भी सबसे ज्यादा बनती है।

आरिफ भी शायद इसी बात को कह रहे हैं कि इस दक्षिणपंथी उभार के पीछे अल्पसंख्यक समुदाय के प्रति मध्यमार्गी राजनीतिक दलों द्वारा अपनाया गया रवैया प्रमुख तौर पर जिम्मेदार है। इसके साथ ही यह बात भी उतना ही सच है कि इस मोर्चे पर इन राजनीतिक दलों द्वारा अपनी वैचारिक स्थिति को सुधारे बगैर चीजों को हल कर पाना असंभव है। लिहाजा इस पूरे मामले का बेहद ईमानदारी से आकलन किए जाने की जरूरत है। और फिर गल्तियों को स्वीकार कर आगे का रास्ता तैयार किया जाना चाहिए। रास्ते की इन गल्तियों में शाहबानो प्रकरण और बाबरी मस्जिद का ताला खुलवाना दो बेहद अहम रही हैं। जिन्होंने उस समय तक चली आ रहीं ढकी-छुपी चीजों को एकाएक नंगा कर दिया था।

नटसेल में अगर कहा जाए तो अल्पसंख्यक समुदाय का लोकतंत्रीकरण अभी भी एक बड़ा एजेंडा है और उस समुदाय को जब तक मौलवी और मौलानाओं के चंगुल से निकाला नहीं जाता है पूरे समुदाय का समस्याग्रस्त बने रहना तय है। इसके साथ ही उसके भीतर पनपने वाले माफिया और अपराधी तत्वों के खिलाफ सतत लड़ाई उसकी बुनियादी शर्त बन जाती है। लेकिन अभी भी इस सोच की कोई भौतिक ताकत वहां नहीं दिखती है। अनायास नहीं कहा जाता है कि आरएसएस का डर दिखाकर मध्यमार्गी दल सालों-साल अल्पसंख्यकों का वोट लेते रहे और इसका नतीजा यह हुआ कि आखिर में वो उनकी सुरक्षा की भी गारंटी नहीं कर सके। इस पूरे दौरान न तो मुसलमानों के रोजी-रोटी के सवाल एजेंडे में आए और न ही उनकी जिंदगी के दूसरे मसले। इस कड़ी में इन दलों के रिश्ते उस समुदाय के सबसे कट्टरपंथी और पिछड़े तत्वों से जरूर बने रहे जो पूरे समुदाय को 14वीं सदी में बनाए रखने के लिए जिम्मेदार थे।

यहां तक तो आरिफ की बात सही हो सकती है। लेकिन उसके बाद वह जो रवैया अपनाते हैं वह न तो देश और समाज की अगुवा कतार में रहने वाले किसी शख्स के लिए सही है और न ही एक ऐसे दौर के लिए सही है जब न केवल अकेला एक समुदाय बल्कि पूरा देश संकट के दौर से गुजर रहा हो। आरिफ जब पूरे देश के साथ मुसलमानों के भविष्य के भी जुड़े होने की बात करते हैं तो यही बात उनकी जिम्मादारी को और बढ़ा देती है। क्योंकि अब मसला देश को बचाने का है। जब वह बचेगा तभी अल्पसंख्यक भी बचेंगे।

इससे भी ज्यादा आरिफ को इस बात को समझना होगा कि अल्पसंख्यक समुदाय के नेताओं और उनके अगुवा तत्वों की गल्तियों की सजा उसके आम लोगों को नहीं दी जा सकती है। क्योंकि वह उस समय तो संकट में था ही आज उसकी स्थिति और बदतर हो गयी है। लिहाजा उसको उसके हाल पर नहीं छोड़ा जा सकता है। खास बात यह है कि यह संकट सिर्फ मुसलमानों तक सीमित नहीं है बल्कि देश का बहुसंख्यक समुदाय भी इसकी चपेट में है। उसमें दलित और दूसरी कथित निचली जातियां तो सीधे निशाने पर हैं। उसका पढ़ा-लिखा और बुद्धिजीवी तबका जो किसी भी रूप में अपनी अलग राय रखता है उसे भी वह बख्शने नहीं जा रहा है। कलबुर्गी, पानसरे और गौरी लंकेश इसकी जिंदा मिसाल हैं।

इतिहास के किसी मोड़ पर किसी भी शख्स को समय और परिस्थितियों के अनुरूप अपना रुख तय करना पड़ता है। एक दौर में जब सत्ता अल्पसंख्यक समुदाय के शक्तिशाली लोगों के साथ साठ-गांठ करके अपना हित साध रही थी और आम मुसलमानों को ठेंगे पर रखे हुई थी तब आरिफ ने उसके खिलाफ स्टैंड लेकर न केवल साहस का परिचय दिया था बल्कि उनकी छवि अन्याय के खिलाफ लड़ने वाले एक दूरदृष्टा की बनी थी। एक ऐसा शख्स जो अल्पसंख्यकों के सामने भविष्य में आने वाली चुनौतियों को बहुत पहले से पहचान रहा था। लेकिन अब जबकि इतिहास में उन्हीं सारी गल्तियों का सहारा लेकर देश में एक फासिस्ट ताकत खड़ी हो गयी है और पूरे समुदाय को लील जाने पर उतारू है। तब उस पर आरिफ का चुप रहना किसी भी रूप में जायज नहीं करार दिया जा सकता है। इस समय उस आरिफ की साख और बढ़ गयी है लिहाजा उन्हें पहल कर समुदाय के भीतर जरूरी व्यापक सुधारों के लिए आगे बढ़ना चाहिए। लेकिन इस दिशा में आगे बढ़ने की पहली शर्त सामने आयी फासिस्ट ताकत का विरोध है। क्योंकि वह न तो अल्पसंख्यक, न ही बहुसंख्यक और न ही किसी भी रूप में देश के हित में है।

आरिफ को एक बात और सोचनी होगी कि संघ किसी पवित्र मंशा या फिर अल्पसंख्यकों की किसी भलाई के लिए उन तमाम मुद्दों को नहीं उठा रहा है जिन पर अभी तक काम हो जाना चाहिए था। बल्कि सच्चाई यह है कि अपनी राजनीति के लिए वह उनका इस्तेमाल कर रहा है। क्योंकि एक प्रक्रिया में उसका अंतिम लक्ष्य इस हिस्से को दर्जे के दोयम मुकाम तक पहुंचाना है। ऐसे में आरिफ अगर बीजेपी का साथ देते हैं तो वह न तो मुस्लिम समुदाय में कोई सुधार कर पाएंगे और न ही ऐसा कुछ कर पाएंगे जिससे पूरे देश का भला हो। हां, तबाही जरूर आएगी। जिसमें आरिफ तो जिंदा रह सकते हैं लेकिन एक जिंदा लाश की तरह। या फिर मंटों के शब्दों में कहें तो इतनी हैसियत तो रखते ही हैं कि एक मुसलमान के नाम पर उन्हें मारा जा सके। क्योंकि हिंदुत्व की पागल भीड़ के लिए किसी का मुसलमान होना ही काफी है।

लेखक महेंद्र मिश्र जनचौक के संपादक हैं।

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