Friday, March 29, 2024

जामिया का प्रतिरोध: किताब चुनिए, बैठिए, पढ़िए

प्रतिरोध का एक तरीक़ा यह है- किताब `चुनिए,  बैठिए, पढ़िए `। पढ़ने के जरिये प्रतिरोध और प्रतिरोध के लिए पढ़ाई। सुरक्षा बलों ने जिस यूनिवर्सिटी में घुसकर उसकी लाइब्रेरी पर हमला किया हो, वहां से ऐसा जवाब!

जामिया मिल्लिया इस्लामिया के स्टूडेंट्स पर पुलिस ने 15 दिसंबर 2019 को कहर बरपा किया था। फायरिंग, आंसू गैस और लाठीचार्ज। लाइब्रेरी में पढ़ रहे युवक-युवतियों को भी नहीं बख़्शा गया, न टॉयलेट में घुसे स्टूडेंट्स को। राजधानी की किसी युनिवर्सिटी में उसकी लाइब्रेरी में घुसकर इस तरह की कार्रवाई ने दुनिया को सकते में डाल दिया था। आज इस कार्रवाई के ठीक एक महीने बाद यूनविर्सिटी के बाहर सड़क पर प्रतिरोध का आह्वान किया गया था।

प्रतिरोध में शामिल होने वाले लोगों के लिए यूनिवर्सिटी की दीवार के किनारे सड़क पर किताबें पढ़ते विभिन्न उम्र के पाठक एकाएक ध्यान खींचते रहे। एक बड़े लाल बैनर पर बड़े हरफ़ों में लिखा था – `वी सिट टुगैदर`। ऊपर लिखा था- `को-प्रोटेस्टिंग को-वर्किंग स्पेस`। नो सीएनबी, नो एनआरसी तो लिखा ही था। इसी बैनर पर बीचों-बीच लिखकर चिपकाया गया था- `कॉमन स्पेस फॉर रीडिंग इन प्रोटेस्ट, पिक, सिट, रीड`।

एक बैनर जामिया कॉओर्डिनेशन कमेटी की तरफ़ से था- `रीड फॉर रिवॉल्यूशन`। इस पर बताया गया था कि केंद्र सरकार की दिल्ली पुलिस ने 15 दिसंबर 2019 को किस तरह ज़ाकिर हुसैन लाइब्रेरी को निशाना बनाया था और इसके बावजूद स्टूडेंट्स का शिक्षा के लिए जज़्बा किस तरह बरक़रार है कि लाइब्रेरी को तोड़ा जा सकता है पर हमें पढ़ने से नहीं रोका जा सकता है। इस पढ़ने को प्रतिरोध और हौसले की निरंतरता से जोड़ते हुए सभी अध्यापकों, विद्वानों, विद्यार्थियों, बच्चों और तमाम पाठकों से यहां किताबें लाने और पढ़ने की अपील भी की गई थी। और वाकई सुंदर दृश्य था। गहरे शोक के बावजूद और अनिश्चितताओं के बावजूद। भाषणों, नारों, प्रतिरोध के गीतों के बीच शांत बैठे पढ़ते हुए बच्चे, युवक-युवतियां और बुजुर्ग।

एक स्टूडेंट कामरान ने जो शायद वॉलेंटियर भी था, अफ़सोस के साथ कहा, उस दिन लाइब्रेरी में पुलिस के ज़ुल्म का शिकार हुए मेरे दोस्त के दोनों हाथ काम नहीं कर रहे हैं। यह तो आपको पता ही होगा कि एक स्टूडेंट की एक आँख जा चुकी है और दूसरी भी ठीक से काम नहीं कर रही है। शायद मुझे हल्का करने के लिए कामरान मुस्कुराया और बोला, कोई बात नहीं। अब लाइब्रेरी सड़क पर है। खुले में। सबके लिए, सबके द्वारा। उसने कहा, आप पत्रकार हैं तो अरुंधति रॉय को जानते ही होंगे। वे आई थीं। उन्होंने यहां 21 किताबें दी हैं। इस अनूठी ऑपन लाइब्रेरी के वॉलेंटियर्स साहिल, अंज़र राही, जीशान और रमीज़ रज़ा में से किसी एक ने बताया कि इतिहासकार राना सफ़ही भी हमें किताबें देकर गई हैं।

गांधी, आंबेडकर, अरुंधति, मौलाना अबुल कलाम आज़ाद वगैराह बहुत से दिग्गजों की किताबें। दुनिया के बहुत लेखकों का काम। बच्चों की कहानियों-कविताओं की पुस्तकें। दिलचस्प यह कि सुब्रमण्यम स्वामी की किताब भी।

दमन और भविष्य की अनिश्चितताएं परिदृश्य को बेहद मार्मिक और बेहद रचनात्मक भी बना देती हैं, इसका गवाह शाहीन बाग़ बन रहा है तो जामिया के बाहर प्रतिरोध में भी इसकी शानदार झलक थी। भाषण वगैराह शुरू होने और विभिन्न विश्वविद्यालयों और संगठनों के प्रतिनिधि पहुंचने से पहले दोपहर में स्त्रियां ही नारों और गीतों से माहौल को जीवंत बनाए हुए थीं। सावित्री बाई और फ़ातिमा शेख़ जैसी इतिहास की उपेक्षित योद्धा पोस्टरों और नारों में प्रमुखता से छाई हुई थीं – जय सावित्री-जय भीम, जय फ़ातिमा-जय भीम। चेहरों पर तिरंगा बनवाते बच्चे और युवा, तिरंगे झंडों के साथ विभिन्न संगठनों के परचम। पंजाब के किसानों का जत्था और आम जन। और तमाम दुष्प्रचार के बावजूद अनुशासन। सरकार और पुलिस को लेकर गुस्से के बावजूद देश के लोगों की एकता को लेकर ज़िम्मेदारी भरी बातें।

 जेएनयू, जामिया और दिल्ली के विभिन्न इलाक़ों में इस आंदोलन के संघर्ष और दमन के दृश्यों वाली एक फोटो प्रदर्शनी का ज़िक्र भी ज़रूरी है। डॉक्यूमेंट्री फोटोग्राफर महावीर सिंह बिष्ट, विनीत गुप्ता, डॉक्यूमेंट्री फोटोग्राफर तहरीम फ़ातिमा, आयुष कथूरिया, शाकिब, फ़रहान खान, मोहम्मद मेहरबान, ग़ुलाम हुसैन, प्रभात तिवारी, मोहम्मद दानिश और शिवम खन्ना के ये फोटोग्राफ्स दस्तावेज की तरह हैं।

(जनचौक के रोविंग एडिटर धीरेश सैनी की शाहीन बाग, ग्राउंड जीरो से रिपोर्ट।)

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