जां निसार अख्तर, तरक्कीपसंद तहरीक से निकले वे हरफनमौला शायर हैं, जिन्होंने न सिर्फ शानदार ग़ज़लें लिखीं, बल्कि नज़्में, रुबाइयां, कितआ और फिल्मी नगमें भी उसी दस्तरस के साथ लिखे। मध्य प्रदेश के ग्वालियर में 18 फरवरी, 1914 को जन्मे सैय्यद जां निसार हुसैन रिजवी उर्फ जां निसार अख्तर को शायरी विरासत में मिली। उनके वालिद मुज़्तर खैराबादी और मां ऊंचे दर्जे की शायरा थीं। दादा मौलाना फ़ज़ले हक़ खैराबादी भी आला दर्जे के शायर थे। घर में शे’र-ओ-शायरी का यह माहौल ही था कि महज तेरह साल की उम्र से ही उन्होंने शायरी शुरू कर दी थी। उनकी इब्तिदाई तालीम ग्वालियर में ही हुई। बाद में आला तालीम के वास्ते वे अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी पहुंचे। जहां से उन्होंने गोल्ड मेडल के साथ उर्दू में एम.ए. किया। जां निसार अख्तर ने जिस दौर में यूनिवर्सिटी में दाखिला लिया, वह अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी का सुनहरा दौर था। उस वक्त यूनिवर्सिटी में अली सरदार जाफ़री, ख्वाजा अहमद अब्बास, मजाज, सिब्ते हसन, सआदत हसन मंटो, मुईन अहसन जज़्बी, अख्तर उल ईमान, हयातउल्ला अंसारी और इस्मत चुग़ताई जैसे दिग्गज उनके साथ तालीम ले रहे थे।
यह सभी नौजवान अपने अदब और तख्लीक के जरिए आजादी की तहरीक में भी हिस्सा ले रहे थे। एक लिहाज से कहें, तो यूनिवर्सिटी तरक्कीपसंद शायरों और अदीबों की मर्कज बनी हुई थी। जाहिर है कि इस अदबी माहौल का असर जां निसार अख्तर पर भी पड़ा और वे भी अपने तमाम साथियों की तरह मार्क्सवादी ख्याल के हामी हो गए। अलीगढ़ में अपने कयाम के दौरान ही उन्होंने मार्क्सवाद का गहराई से मुताला किया।
मार्क्सवादी समझ बनी, तो रूमानी शायरी करने वाले जां निसार की ग़ज़लों और नज़्मों में एहतिजाज और बगावत के सुर दिखाई देने लगे। यहां तक कि उन्होंने द्वंद्वात्मक भौतिकवाद जैसे फ़लसफ़ाना मौज़ू पर भी तवील नज्में ‘मुवर्रिख से’, ‘दाना-ए-राज’, ‘पांच तस्वीरें’ और ‘रियासत’ लिख डालीं।
अपनी तालीम पूरी करने के बाद जां निसार अख्तर ग्वालियर आ गए। पहले ग्वालियर के विक्टोरिया कॉलेज और फिर भोपाल के सैफिया कॉलेज में उन्होंने कुछ साल अध्यापन किया। सैफिया कॉलेज में वे उर्दू और फारसी जबान के हेड ऑफ डिपार्टमेंट थे। आजाद ख्याल अख्तर नौकरी के लिए नहीं बने थे। साल 1952 में उन्होंने नौकरी और भोपाल दोनों छोड़ दिए। अब उनका नया ठिकाना माया नगरी मुंबई था, जहां उनसे पहले उनके कई तरक्कीपसंद साथी कृश्न चंदर, इस्मत चुगताई, ख्वाजा अहमद अब्बास, मुल्कराज आनंद, साहिर लुधियानवी, सरदार जाफरी, कैफी आजमी, मजरूह सुल्तानपुरी, अख्तर उल ईमान वगैरह सिनेमा और अदब में एक साथ अपना झंडा बुलंद किए हुए थे। साहिर लुधियानवी से जां निसार अख्तर का गहरा याराना था।
मुंबई में उन्होंने अपना ज्यादातर वक्त साहिर के साथ ही गुजारा। साल 1955 में आई फिल्म ’यासमीन’ से उनके फिल्मी करियर की शुरूआत हुई। संगीतकार सी. रामचंद्र के संगीत से सजी इस फिल्म में उनके लिखे गीत ‘बेचैन नजर बेताब जिगर’, ‘मुझपे इल्जाम-ए-बेवफाई है’ और ‘आंखों में समा जाओ’ खूब चले। पहली ही फिल्म की कामयाबी के बाद उन्होंने हिंदी सिनेमा को एक से बढ़कर एक लाजवाब गीत दिए। संगीतकार ओ.पी नैयर के संगीत निर्देशन में उन्हें फिल्म ‘बाप रे बाप’ के लिए गीत लिखने का मौका मिला। इस फिल्म के गीत खास तौर पर ‘पिया पिया मेरा जिया पुकारे’ भी सुपर हिट हुआ। फिल्म हिट होने के बाद जां निसार अख्तर और ओपी नैयर की जोड़ी बन गयी। इस जोड़ी ने बाद में ‘नया अंदाज’, ‘उस्ताद’, ‘छूमंतर’ ‘रागिनी’ और ‘सीआईडी’ वगैरह फिल्मों में एक साथ काम किया। फिल्म ‘सीआईडी’ में उनके लिखे ‘ऐ दिल है मुश्किल जीना यहां..’, ‘आँखों ही आँखों में इशारा हो गया..’ आदि गाने खूब पसंद किए गए। इस फिल्म की कामयाबी के बाद, जां निसार अख्तर का शुमार अपने दौर के मकबूल गीतकारों में होने लगा। उन्होंने तकरीबन 80 फिल्मों में गीत लिखे। जिनमें उनकी अहम फिल्में हैं ‘अनारकली’, ‘सुशीला’, ‘रुस्तम सोहराब’, ‘‘प्रेम पर्वत’, ‘त्रिशूल’, ‘रजिया सुल्तान’, ‘नूरी’ आदि।
संगीतकार खय्याम के लिए भी जां निसार अख्तर ने शानदार गीत लिखे। ‘‘कब तेरे हुस्न से इंकार किया है मैंने’’ (फिल्म संध्या), ‘‘गरीब जान के हम को न तुम मिटा देना’’ (फिल्म छूमंतर), ‘‘बेकसी हद से जब गुजर जाए’’ (फिल्म-कल्पना), ‘‘बेमुरव्वत, बेवफा, बेगान-ए-दिल आप हैं’’ (फिल्म-सुशीला), ‘‘आप यूं फासलों से गुजरते रहे…’’ (शंकर हुसैन), ‘‘ये दिल और उनकी निगाहों के साये..’’ (प्रेम पर्वत), ‘‘आजा रे आजा रे मेरे दिलबर आ रे…’’ (नूरी), ‘‘ऐ दिले नादां ऐ दिले नांदा…’’, (रजिया सुल्तान) जैसे सदाबहार नगमे उम्दा शायरी की वजह से ही लोगों की पसंद बने। फिल्म ‘नूरी’ के गीत के लिए उन्हें फिल्म फेयर अवार्ड मिला। सरल और आसान जबान में बड़ी बात कहने का हुनर उनमें था। आम आदमी को भी उनकी शायरी समझ में आ जाती थी।
तमाम तरक्कीपसंद शायरों के साथ जां निसार अख्तर ने भी शायरी को रिवायती रूमानी दायरे से बाहर निकालकर, जिंदगी की तल्ख हकीकतों से जोड़ा। उनकी शायरी में इंकलाबी अनासिर तो हैं ही, साम्राज्यवाद और सरमायेदारी की भी मुखालिफत है। वतनपरस्ती और कौमी यकजहती पर भी उन्होंने कई बेहतरीन नज्में लिखी। ‘‘मैं उनके गीत गाता हूं, मैं उनके गीत गाता हूं/जो शाने पर बगावत का अलम लेकर निकलते हैं/किसी जालिम हुकूमत के धड़कते दिल पे चलते हैं/…….वो मेहनतकश जो अपने बाजुओं पर नाज करते हैं/वो जिनकी कूवतों से देवे इस्तिबदाद डरते हैं/कुचल सकते हैं जो मजदूर जर के आस्तानों को जो जलकर आग दे देते हैं जंगी कारखानों को/मैं उनके गीत गाता हूं, मैं उनके गीत गाता हूं।’’ दूसरी आलमी जंग, देश की आर्थिक दुर्दशा और तमाम तात्कालिक घटनाक्रमों पर भी उन्होंने नज्में, गजलें कहीं। जां निसार अख्तर साम्प्रदायिक सौहार्द के कट्टर हिमायती थे। उनकी कई नज्में इस मौजू पर हैं। ‘‘एक है अपना जहाँ/एक है अपना वतन/अपने सभी सुख एक हैं/अपने सभी गम एक हैं/आवाज दो हम एक हैं/ये है हिमालय की जमीं, ताजो-अजंता की जमीं/संगम हमारी आन है, चित्तौड़ अपनी शान है/गुलमर्ग का महका चमन, जमना का तट गोकुल का मन/गंगा के धारे अपने हैं, ये सब हमारे अपने हैं/कह दो कोई दुश्मन नजर उट्ठे न भूले से इधर/कह दो कि हम बेदार हैं, कह दो कि हम तैयार हैं/आवाज दो हम एक हैं।’’
जां निसार अख्तर तरक्कीपसंद शायरी के सुतून थे, लेकिन उनकी शायरी में सिर्फ एहतिजाज या बगावत के ही जज्बात नहीं है, इश्क-मोहब्बत के नर्म, नाजुक अहसास भी शामिल हैं। गर उनकी वो शायरी देखें, तो वे एक रूमानी लहजे के शायर नजर आते हैं।
इस शायरी को पढ़ने के बाद कोई कह ही नहीं सकता कि उन्होंने द्वंद्वात्मक भौतिकवाद जैसे नीरस विषय पर भी नज्में कही होंगी। ‘‘अशआर मेरे यूं तो ज़माने के लिए हैं/कुछ शेर फ़कत उनको सुनाने के लिए हैं/ जब ज़ख्म लगे तो क़ातिल को दुआ दी जाए/है यही रस्म तो ये रस्म उठा दी जाए/हम से पूछो कि ग़ज़ल क्या है ग़ज़ल का फन क्या/चंद लफ़्ज़ों में कोई आग छुपा दी जाए।’’
‘खाक-ए-दिल’, ‘खामोश आवाज’, ‘तनहा सफर की रात’, ‘जां निसार अख्तर-एक जवान मौत’, ‘नजर-ए-बुतां’, ‘सलासिल’, ‘तार-ए-गरेबां’, ‘पिछले पहर’, ‘घर-आंगन’ (रुबाईयां) जां निसार अख्तर की गजलों, नज्मों की अहम किताबें हैं। जबकि ‘आवाज दो हम एक हैं’ उर्दू में प्रकाशित उनकी सभी किताबों से ली गई चुनिंदा रचनाओं को संपादित की हुई किताब है। जां निसार अख्तर का एक अहम कारनामा ‘हिंदुस्तान हमारा’ है। दो वॉल्यूम में शाया हुई इस किताब पर उन्होंने प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू के कहने पर काम किया था। किताब तीन सौ सालों की हिंदुस्तानी शायरी का अनमोल सरमाया है। वतनपरस्ती, कौमी यकजहती के साथ-साथ इस किताब में मुल्क की कुदरत, रिवायत और उसके अजीम माज़ी को उजागर करने वाली गजलें, नज्में हैं। हिंदोस्तानी त्यौहार, तहजीब, दुनिया भर में मशहूर मुल्क के ऐतिहासिक स्थल, मुख्तलिफ शहरों, आजादी के रहनुमाओं, देवी-देवताओं यानी हिंदुस्तान की वे सब बातें, वाकियात या किरदार जो हमारे मुल्क को अजीम बनाती हैं, से संबंधित शायरी सब एक जगह मौजूद है।
वाकई यह एक अहमतरीन काम है। जिसे कोई दृष्टिसंपन्न लेखक, संपादक ही मुमकिन कर सकता था। इस किताब के जरिए उर्दू शायरी का एक ऐसा चेहरा सामने आता है, जो अभी तक छिपा हुआ था। भारत की गंगा-जमुनी तहजीब को बनाने-बढ़ाने में उर्दू शायरी ने जो योगदान दिया है, यह किताब सामने लाती है। उर्दू अदब और फिल्मी दुनिया में जां निसार अख्तर के बेमिसाल काम के लिए उन्हें कई पुरस्कार और सम्मान से सम्मानित किया गया। साल 1976 में ‘खाक-ए-दिल’ के लिए उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला। महाराष्ट्र अकादमी पुरस्कार के अलावा सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार से भी सम्मानित किए गए।
जां निसार अख्तर को अच्छी तरह से जानना-समझना है, तो उनकी शरीक-ए-हयात सफ़िया अख्तर के ख़त पढ़िए, जो उन्होंने जां निसार को लिखे हैं। जां निसार, उनसे भले ही दूर रहे, लेकिन सफिया की उनके जानिब मोहब्बत जरा सी भी कम नहीं हुई। सफ़िया अख्तर की कैंसर से बेवक्त हुई मौत ने जां निसार अख्तर पर गहरा असर डाला। दिल को झिंझोड़ देने वाली अख्तर की नज्में ‘खामोश आवाज’ और ‘खाके-दिल’ सफिया अख्तर की मौत के बाद ही लिखी गई हैं। नज़्म ’खाके दिल’ में उनका अंदाज बिल्कुल जुदा है,‘‘आहट मेरे क़दमों की सुन पाई है/इक बिजली सी तनबन में लहराई है/दौड़ी है हरेक बात की/सुध बिसरा के रोटी जलती तवे पर छोड़ आई है/डाली की तरह चाल लचक उठती है/खुशबू हर इक सांस छलक उठती है/जूड़े में जो वो फूल लगा देते हैं/अन्दर से मेरी रूह महक उठती है/हर एक घड़ी शाक (कठिन) गुज़रती होगी/सौ तरह के वहम करके मरती होगी/घर जाने की जल्दी तो नहीं मुझको मगर…/वो चाय पर इंतज़ार करती होगी।’’
मशहूर अफसानानिगार कृश्न चंदर ने जां निसार अख्तर की शायरी पर लिखा है, ‘‘जां निसार वो अलबेला शायर है, जिसको अपनी शायरी में चीख़ते रंग पसंद नहीं हैं, बल्कि उसकी शायरी घर में सालन की तरह धीमी-धीमी आंच पर पकती है।’’ जां निसार अख्तर बहुत ही मिलनसार, महफ़िलबाज़ और खुशमिजाज इंसान थे।
अपने वालिद जां निसार अख्तर को याद करते हुए, उनके बेटे शायर-गीतकार जावेद अख्तर ने एक इंटरव्यू में कहा है, ‘‘उन्होंने हमेशा मुझे यह सीख दी कि मुश्किल ज़बान को लिखना आसान है, मगर आसान ज़बान कहना मुश्किल है।’’ जावेद अख्तर की इस बात से शायद ही कोई नाइत्तेफाकी जतलाए। यकीन न हो तो जां निसार अख्तर की गजलों के कुछ अश्आरों पर नजर-ए-सानी कीजिए, खुद ही समझ में आ जाएगा। ‘‘ये इल्म का सौदा, ये रिसाले, ये किताबें/इक शख्स की यादों को भुलाने के लिए हैं।’’, ‘‘इश्क़ में क्या नुक़सान नफ़अ है हम को क्या समझाते हो/हम ने सारी उम्र ही यारो दिल का कारोबार किया।’’, ‘‘सारी दुनिया में गरीबों का लहू बहता है/हर जमीं मुझको मेरे खून से तर लगती है।’’
जां निसार अख्तर एक बोहेमियन थे। किसी भी तरह की रूढ़ि और धार्मिक कर्मकांड से आजाद। सही मायने में तरक्कीपसंद, आजादख्याल ! उनकी शख्सियत भी बड़ी दिल-आवेज थी। बिखरे-बिखरे खिचड़ी बाल, उन बालों को सुलझातीं उंगलियां, होठों के बीच सिगरेट, चौड़े पांएचे का पाजामा और मोटे कपड़े की जवाहर जैकेट। जां निसार अख्तर के अजीज दोस्त तख्लीक-कार, तर्जुमा निगार जोय अंसारी ने अपने एक मजामीन में उनकी दिलकश शख्सियत का खाका कुछ इस अंदाज में पेश किया है,‘‘जांनिसार अख्तर बेदाग शेरवानी, बेतकल्लुफ जुल्फों, दिलकश गोल गंदुमी चेहरे और अदब-आदाब के साथ जब मुशाअरे के स्टेज पर कदम रखते, तो एक तरहदार नौजवान नजर आते थे। उनके हुलिये में महबूबीयत थी। अंदर से भी ऐसे ही थे। किसी को रंज न पहुंचाने वाले, कम बोलने वाले, हालात से खुश रहने वाले और चाहे जाने वाले। उनके इस रख-रखाव और नफासतपंसदी को बंबई का धुंआ और एक घुटा हुआ कमरा दीमक की तरह चाट गया। बाकी गुण उन्होंने धूनी दे-देकर संभाल कर रखे।’’ इतने रंज-ओ-गम झेलने के बाद भी उनके दिल में किसी के भी जानिब कड़वाहट नहीं थी। वे हमेशा सबसे दिल खोलकर मिलते थे।
नौजवान शायर उन्हें हर दम घेरे रहते थे। जां निसार ने अपने एक ख़त में लिखा है, ’‘आदमी जिस्म से नहीं, दिल-ओ-दिमाग से बूढ़ा होता है।’’ यह बात उन पर भी अमल होती थी। जिंदगी के आखिरी वक्त तक उन्होंने अपने ऊपर कभी बुढ़ापा हावी नहीं होने दिया। रात में देर तक चलने वाली महफ़िलों और मुशायरों में वे अपने आपको मशगूल रखते थे। ‘‘फिक्रो फन की सजी है नयी अंजुमन/हम भी बैठे हैं कुछ नौजवानों के बीच।’’ अपनी जिंदगी में उन्होंने कभी किसी से कोई शिकवा नहीं किया।‘‘जिंदगी ये तो नहीं, तुझ को संवारा ही न हो/कुछ न कुछ हमने तिरा कर्ज उतारा ही न हो।’’ 19 अगस्त, 1976 को जिंदगी का कर्ज उतारकर, जां निसार अख्तर इस जहां से उस जहां के लिए रुखसत हो गए, जहां से लौटकर फिर कभी कोई वापस नहीं आता। जां निसार अख्तर भले ही आज हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन जिंदगी के सेहरा में वे ऐसा चराग छोड़ गए हैं, जो हमेशा हमें रौशनी देता रहेगा। ‘‘लहू की बूंद भी कांटों पे कम नहीं होती/कोई चराग तो सेहरा में छोड़ते जाओ।’’
(जाहिद खान वरिष्ठ पत्रकार हैं और आजकल शिवपुरी में रहते हैं।)