14 अप्रैल डॉ. भीमराव आंबेडकर का जन्म दिन है। यह 19वीं शताब्दी में जन्मे, 20वीं शताब्दी में भारत के करोड़ों लोगों की मुक्ति की आवाज बन जाने वाले और 21वीं सदी में भारतीय राजनीति की धुरी बन जाने वाले डॉ.आंबेडकर का जन्मदिन है। एक ऐसा नायक जो भारत के अधीनस्थ और वंचित समुदायों के मानवाधिकारों का वाहक और संरक्षक बना जिसने भारतीय राष्ट्र-राज्य को एक संवैधानिक दस्तावेज़ दिया, जिसमें समाज के अंतिम छोर पर खड़े व्यक्ति के अधिकारों को संरक्षित किया गया।
डॉ. आंबेडकर हमेशा ही दलित आंदोलन के आदर्श रहे हैं। उनसे दलित आंदोलन प्रेरणा लेता रहा है। आंबेडकर के दिये गए ‘शिक्षित बनो, संगठित हो और संघर्ष करो’ नारे की प्रेरणा से दलित आंदोलन की वैचारिक राह प्रारम्भ होती है। समय बीतने के साथ-साथ आंबेडकर के विचारों की प्रासंगिकता बढ़ती ही जा रही है। दलितों तथा गैर दलितों के बीच उनके लेखन और संघर्षों की तरह-तरह से व्याख्या की जाती है। आंबेडकर के विचारों के तीन प्रमुख स्रोत थे। पहला उनका अपना अनुभव, दूसरा कबीर एवं महात्मा ज्योतिबा फुले का सामाजिक आंदोलन तथा तीसरा जातीय शोषण आधारित हिन्दुत्व के उग्र रूप के विरोध में महात्मा बुद्ध और बौद्ध धर्म का विकल्प। इन तीनों विचारों से रोशनी और ऊर्जा ग्रहण करते हुए उन्होंने एक समतापूर्ण, न्याय आधारित भारत की कल्पना की।
डॉ. आंबेडकर नायक या ईश्वर
भले ही आंबेडकर ने नायक पूजा का विरोध किया हो लेकिन भारत देश तो नायकों और देवताओं का ही देश है। यहाँ नायकों की पूजा ही होती है, सिर्फ पूजा। तो किसने नहीं बनाए अपने नायक? यहाँ सभी के अपने-अपने नायक हैं तो दलित क्या करते? कुछ तो बनाएँगे ही। क्या है दलितों के पास सार्वजनिक जो बना सके और जिसे वे अपना बता सकें? तो उन्होंने आंबेडकर के रूप में बना लिया एक नायक। लेकिन आंबेडकर नायक तक तो ठीक हैं आंबेडकर को कहीं ईश्वर न बना दिया जाये, ये बात दलितों को सोचनी होगी। मौजूदा दौर में आंबेडकर को ईश्वर की तरह पूजने की कोशिशें की जा रही हैं। जिस दिन आंबेडकर ईश्वर की तरह जाने और पूजे जाएँगे उसी दिन आंबेडकर के विचार, संविधान में निभाई गई उनकी भूमिकायें, उनके संघर्ष, सब आंबेडकर की मूर्ति के नीचे दब जाएंगे या दबा दिये जाएंगे।
डॉ.आंबेडकर बड़े राजनेता कैसे हैं?
आंबेडकर किसी जाति, समुदाय, धर्म की विरासत नहीं हो सकते। आंबेडकर की ये विरासत स्वयं आंबेडकर के पास ही सुरक्षित रह सकती है। आंबेडकर इस विरासत के खुद अगुवा भी और खुद मालिक भी। आंबेडकर ने अपने आंदोलनों और भूमिकाओं के माध्यम से मुक्ति का जो रास्ता दिखाया है इस मुक्ति आंदोलन में आंबेडकर सिर्फ दलितों के बारे में नहीं सोच रहे होते हैं इसमें वह समाज के हर उस पीड़ित और वंचित व्यक्ति की बात करते हैं जो भारतीय समाज में किसी भी प्रकार के अन्याय या बहिष्करण से पीड़ित है। इसे आंबेडकर के लेखन और संविधान सभा की बहसों में उनके द्वारा उठाए गए मुद्दों से समझा जा सकता है।
आंबेडकर के पहले से चले आ रहे जाति विरोधी आंदोलन और उससे जुड़े नेताओं ने सामाजिक सांस्कृतिक बदलाव के अपने एजेंडे को वंचित, दमित जतियों के मजदूरों, किसानों और भूमिहीन मजदूरों के बुनियादी आर्थिक सवालों से जोड़ा। आंबेडकर की व्यापक सोच उनके द्वारा बनाए गए दलों से समझी जा सकती है। सबसे पहले डॉ.आंबेडकर ने 1936 में स्वतंत्र मजदूर दल (इंडिपेंडेंट लेबर पार्टी) की स्थापना की। आंबेडकर ने 1937 के चुनाव के पहले ही समझ लिया था कि उन्हें अपनी राजनीति को वर्ग आधारित व्यापक रूप देने की जरूरत है इसलिए उन्होंने इंग्लैंड की लेबर पार्टी की तर्ज पर ये पार्टी बनाई। इस दल ने खुद को मजदूरों किसानों के मोर्चे के रूप में पेश किया था।
इस दल ने जाति आधारित शोषण के खिलाफ कई उल्लेखनीय कार्य भी किए। इस दल के लक्ष्यों में किसानों को महाजनों के चंगुल से बचाना, जमीन की बढ़ती हुई लगान का विरोध करना और कृषि उत्पादों के लिए को-ऑपरेटिव एवं विपणन समितियां बनाना आदि शामिल था। लेकिन मौजूदा दलित आंदोलन और उसके नेतृत्व में इन वर्गों के लिए अपने कार्यक्रमों व अभियानों में कोई भी ठोस योजना नजर नहीं आती है। आंबेडकर की इन चिंताओं को आप उनके द्वारा संविधान सभा में दिए गए भाषणों और हस्तक्षेप में देख सकते हैं। इस तरह से आंबेडकर अपनी राजनीति के प्रारम्भिक चरण में किसानों-मजदूरों की साझा लड़ाई में साथ रहे। इसके लिए इंडिपेंडेंट पार्टी के राजनीतिक कार्यक्रमों से समझा जा सकता है लेकिन बाद में यह कड़ी भी टूट गई।
इसके बाद डॉ.आंबेडकर ने ‘आल इंडिया शेड्यूल्ड कास्ट फेडरेशन’ की स्थापना 1942 में की और इसके बाद में जब उन्हें लगा कि कहीं यह जाति आधारित दल बनकर न रह जाये, इसलिए उन्होंने इसको 30 सितंबर 1956 को भंग कर दिया। अंतिम समय में आंबेडकर के सुझावों पर रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया की (आरपीआई) की स्थापना की गई। लेकिन पार्टी के गठन से पहले, 6 दिसंबर 1956 को उनका निधन हो गया।
डॉ.आंबेडकर की उपस्थिति
चुनावी राजनीति में दलितों की जोरदार दस्तक 1936 में इंडिपेंडेंट लेबर पार्टी की स्थापना के साथ ही शुरू हो गई थी। उसके बाद करीब आज 83 वर्ष बीत चुके हैं, इन वर्षों में यह चेतना एआईएससीएफ, आरपीआई एवं दलित पैन्थर्स से होते हुए बसपा तक पहुंची है। भारत की चुनावी राजनीति में आंबेडकर की उपस्थिति प्रतीक के रूप में है, एक तरफ स्वतंत्र दलित राजनीतिक दलों व सामाजिक संगठनों में वह विचार और प्रतीक के तौर पर उपस्थित हैं। जिसकी सफलता और असफलताओं की अनेक कहानियाँ है। वहीं दूसरी ओर मुख्यधारा की चुनावी राजनीति में आंबेडकर को लेकर सबके अपने-अपने दावे हैं।
उत्तर पूर्व को छोड़कर पूरे भारत में गांवों, कस्बों, गलियों और शहरों के चौराहों में आंबेडकर मूर्तियों के रूप में उपस्थित हैं। कभी टूटी हुई या तोड़ दी गई मूर्ति के रूप में, कभी मूर्ति तोड़ दिये जाने और मूर्ति लगाए जाने के संघर्ष के रूप में। दलितों को आंबेडकर की संविधान लिए मूर्ति इतनी क्यों प्यारी है? जाहिर सी बात है आंबेडकर की यह मूर्ति जो एक किताब लिए है जिसका नाम संविधान है। यह संविधान ही है जो दलितों को अधिकार देता है उन्हें संरक्षण प्रदान करता है शोषण से बचाता है।
ज्ञान व बौद्धिक विमर्श में आंबेडकर
ज्ञान के क्षेत्र में पूरी दुनिया के समाज वैज्ञानिक आंबेडकर को पढ़ रहे हैं, उन पर लगातार लिख रहे हैं। 1990 के दशक के बाद से आंबेडकर ने काफी अकादमिक ध्यान आकर्षित किया है लेकिन मुख्यधारा के सामाजिक विज्ञान विषयों में उनके सैद्धांतिक योगदान का अभी तक पर्याप्त विश्लेषण नहीं नहीं किया जा रहा है। फिर भी, उनकी उपस्थिति किताबों में और प्रकाशनों में धीरे-धीरे बढ़ रही है।
आंबेडकर की सांस्कृतिक उपस्थिति
आंबेडकर के बौद्ध धर्म स्वीकार करने के पीछे बहुत बड़ा कारण था उसमें एक हद तक वैज्ञानिक चिंतन, तर्क-वितर्क की जगह होना साथ ही बौद्ध धर्म सामाजिक बराबरी, सद्भाव और करुणा जैसे मानवीय मूल्यों की वकालत करता है। डॉ. रमा शंकर सिंह अपने लेख ‘आंबेडकर ने हिंदू धर्म क्यों छोड़ा?’ में लिखते है कि आंबेडकर ने देवताओं के संजाल को तोड़कर एक ऐसे मुक्त मनुष्य की कल्पना की जो धार्मिक तो हो लेकिन ग़ैर-बराबरी को जीवन मूल्य न माने। आज वे ग़रीब, कमजोर सहित अनुसूचित जातियों के एक बड़े हिस्से में शादी-विवाह के कार्ड्स पर मौजूद हैं। खर्चीले कर्मकांडों को हटाकर लोग उनकी तस्वीर की उपस्थिति में विवाह कर रहे हैं। हालाँकि, इसे भी कहीं एक कर्मकांड में न बदल दिया जाए, यह डर मौजूद है।
लोक कल्याणकारी राज्य के पक्ष में आंबेडकर
आज जब देश में निजीकरण की वकालत ही नहीं की जा रही है बल्कि सत्ताधारी वर्गों द्वारा राज्य की कल्याणकारी भूमिका को तहस-नहस कर दिया गया है, ऐसे में आंबेडकर के लोक-कल्याणकारी या राजकीय समाजवाद की अवधारणा को सामने लाने की फिर से जरूरत है चाहे वो बड़े उद्योगों के राष्ट्रीयकरण का सवाल हो, जमीन के राष्ट्रीयकरण का सवाल हो, सामाजिक क्षेत्र से जुड़ी स्वास्थ्य, शिक्षा पेयजल, खाद्य सुरक्षा, आवास जैसी मूलभूत आवश्यकताओं का सवाल हो। आज देश गहरे संकट के दौर में है, लूट पर आधारित पूंजीवादी नीतियों के कारण हम अंदर से खोखले हो चुके हैं। स्वास्थ्य, शिक्षा का व्यापारीकरण देश को गहरे संकट में डाल रहा है ऐसे में आंबेडकर के लोक कल्याणकारी राज्य की अवधारणा प्रासंगिक हो जाती है।
मौजूदा कोरोना संकट के दौर में राह चलते लाखों मजदूरों को देखा जा सकता है। दिहाड़ी पर करीब एक तिहाई आबादी जीवन बसर कर रही है। ऐसे दौर में लोक-कल्याणकारी राज्य की अहमियत बहुत बड़ी हो जाती है। सामाजिक न्याय व बराबरी का मतलब लोगों की आर्थिक बराबरी से भी जुड़ा है, इसे नजरंदाज नहीं किया जा सकता। सामाजिक न्याय व बराबरी की पैरोकारी करने वालों को मजदूरों, गरीब किसानों, भूमिहीनों के मुद्दों को शिद्दत से उठाना होगा, संघर्ष करना होगा… यदि ये ऐसा नहीं करेंगे तो आंबेडकर के विचार और संघर्ष के साथ धोखा होगा।
कठिन दौर में डॉ.आंबेडकर के विचारों की प्रासंगिकता
आंबेडकर प्रतीक भर नहीं है, वे पूजा की वस्तु भी नहीं हैं बल्कि वे परिवर्तन, भाईचारा, धर्म-निरपेक्षता, वैज्ञानिक चिंतन के जुझारू योद्धा हैं। सामाजिक बराबरी, सद्भाव, धर्म-निरपेक्षता, भाईचारा आंबेडकर के विचार के बुनियादी लक्षण हैं। सांप्रदायिकता की मुखालफत आंबेडकर के विचारों में प्रमुखता से रही है।
डॉ.भीमराव आंबेडकर का पूरा जीवन संघर्ष सामाजिक-आर्थिक असमानता के प्रतिरोध में था। उनका लेखन अमानवीय-बर्बर वर्ण व्यवस्था, जातिवाद, लैंगिक भेदभाव, सांप्रदायिकता के खिलाफ था। वे केवल छूआछूत खत्म करने की ही वकालत नहीं करते थे। बल्कि जाति का समूल नाश चाहते थे। उनका सपना भारत को वैज्ञानिक चिंतन, तर्क, विवेक, मानवता जैसे आधुनिक मूल्यों से लैस धर्म-निरपेक्ष देश बनाने का था।
डॉ. आंबेडकर अपनी प्रसिद्ध किताब ‘जाति का विनाश’ में लिखा है : ”आप पूछ सकते हैं कि अगर आप जाति और वर्ण के खिलाफ हैं तो आपका आदर्श समाज क्या है? मेरा कहना है कि मेरा आदर्श समाज एक ऐसा समाज होगा जो आजादी, समानता, भाईचारे पर आधारित हो। देश कि संपत्ति पर सबका समान अधिकार होना चाहिए। जीवन के लिए आवश्यक भोजन, वस्त्र, दवा, और शिक्षा पाने को सभी लोग बराबर के हकदार हैं। इसी का नाम भाईचारा है। इसी का दूसरा नाम जनतंत्र है। खान-पान, रहन-सहन, लिखने-बोलने चिंतन करने, भाषण देने, अपने मन से धर्म का आचरण करने की सभी को आजादी होनी चाहिए। अपनी इच्छा से व्यवसाय चुनने और आचरण करने की सभी को आजादी होनी चाहिए। न्याय, भाईचारा, समता आजादी से युक्त समाज ही मेरा आदर्श समाज है।”
डॉ.आंबेडकर का सपना पोंगा पंथी भक्त, सत्ता लोलुप नेता तैयार करना नहीं था बल्कि आजादी, समानता, भाईचारे के लिए संघर्ष करने वाले जुझारू जन योद्धा तैयार करना था। ”खोये हुए अधिकार लुटेरों से अनुरोध और प्रार्थनाओं से दुबारा हासिल नहीं हो सकते हैं , इसके लिए संघर्ष की जरूरत पड़ती है।” आंबेडकर के कहे गए ये शब्द सामाजिक-आर्थिक बराबरी के लिए संघर्ष कर रही ताकतों के लिए एक दिशा देते हैं, संघर्ष करने की ताकत देते है।
डॉ.आंबेडकर ने कहा था : ”आप किसी भी दिशा में मुड़ें, जाति का राक्षस आपका रास्ता रोके मिलेगा। जब तक आप इस राक्षस को खत्म नहीं करते तब तक आप न राजनीतिक सुधार कर सकते हैं और न ही आर्थिक सुधारों को अंजाम दे सकते है।” जब तक दलित आदिवासी सामाजिक-आर्थिक रूप से सबल नहीं होंगे तब तक न छूआछूत खत्म हो सकता है और न जातिवाद खत्म हो सकता है। जब तक दलित भूमिहीन हैं तब तक आर्थिक बराबरी नहीं आ सकती। हृदय परिवर्तन, समरसता संबंधी दिखावे दलितों को मुक्त नहीं कर सकते।
मौजूदा दौर में घृणा और नफरत की राजनीति करने वाली शक्तियाँ सामाजिक-आर्थिक गैर बराबरी के खिलाफ चल रहे संघर्षों को पीछे धकेलना चाहती हैं। इस समय सांप्रदायिकता, वर्ण व्यवस्था, जातिवाद, पूंजीवादी लूट की समर्थक ताकतों को परास्त करना सबसे बड़ी चुनौती है। अंधविश्वास-असमानता कि वकालत करने वालों से जनता को बचाना समय की मांग है। समानता और गरिमा से से जीने के हक, संविधान में बोलने के हक, धर्मनिरपेक्ष व वैज्ञानिक मूल्यों की रक्षा के लिए एकजुट होकर एक आधुनिक और समता मूलक भारत का निर्माण करने के संघर्षों के कठिन दौर में आंबेडकर के विचारों की प्रासंगिकता और ज्यादा बढ़ जाती है।
(डॉ. अजय कुमार, शिमला स्थित भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान में (2017-2019) फेलो रहे हैं। वह यहाँ पर समाज विज्ञानों में दलित अध्ययनों की निर्मिति परियोजना पर एक फ़ेलोशिप के तहत काम कर चुके हैं।)