लाल सिंह चड्ढ़ा फिल्म का अनावश्यक बायकॉट के बीच हम पति-पत्नी आज महज 14 लोगों के बीच ‘लाल सिंह चड्ढा’ फिल्म देख आए। कोरोना काल में लम्बे समय के बाद थियेटर गए थे। फिल्म लम्बी थी और आईनॉक्स ने विज्ञापनों को ठूस कर उसे और लम्बा बना दिया था। इस फिल्म के निर्माता आमिर खान के इर्द-गिर्द पूरी फिल्म घूमती है जो लाल सिंह चड्ढा के रूप में उपस्थित हैं। लाल सिंह पैदाइशी, थोड़ा सुस्त मस्तिष्क वाला बालक है। बोलचाल में असामान्य है। उनका पूरा खानदान सेना में रहा है और शहीद हुआ है, परनाना, नाना और पिता सभी शहीद हुए हैं।
अकेली मां ने परिवार और उनकी जिन्दगी को संभाला। अपने हाथों ट्रैक्टर चलाकर खेती की। अपने बालक को यह एहसास दिलाया कि वह किसी सामान्य बालक से कम नहीं है। इस फिल्म में सिख, ईसाई, हिन्दू और मुस्लिम, चारों धर्मों के पात्र हैं। मिशनरी स्कूल के फादर, मंद बुद्धि बालक को अपने यहां स्थान नहीं देना चाहते मगर मां, बच्चे को दाखिला दिलाने के वास्ते फादर का खाना बनाने, घर की साफ-सफाई करने को तैयार हो जाती है। तब फादर को लगता है कि यह अनुचित होगा और बच्चे को दाखिला दे देना चाहिए। स्कूल में रूपा नामक लड़की से लाल सिंह की दोस्ती होती है।
लाल सिंह धीरे-धीरे सामान्य लड़कों से किसी भी मायने में कम साबित नहीं होते। दौड़ने में अव्वल तो हैं ही, कई प्रतियोगिताओं में जीतते हैं। विश्वविद्यालय तक ज्ञान हासिल करते हैं।
कहानी की शुरुआत इमरजेंसी के खात्मे से शुरू होती है। ऑपरेशन ब्लू स्टार का खौफनाक मंजर फिल्म में दिखाया जाता है और उसके बाद इंदिरा गांधी की हत्या। हत्या के बाद दिल्ली की सड़कों पर ‘मलेरिया का फैलना’ यानी दंगे का फैलना दिखाया जाता है। सिखों का कत्लेआम होता है। दंगे की चपेट में आते-आते लाल सिंह चड्ढ़ा और उनकी मां बच जाते हैं। मां नन्हें लाल सिंह का केश, टूटे शीशे की धार से काटकर मोना बना देती है जिससे जान बच जाए।
स्कूल में रूपा के साथ जीवन का मेलजोल, उनकी थोड़ी असामान्य विकलांगता को ढंक लेती है। अपनी परिवारिक पृष्ठभूमि की वजह से लाल सिंह सेना में जाने को सोचते हैं तो रूपा, मॉडलिंग और सौन्दर्य प्रतियोगिताओं की ओर बढ़ना चाहती है। उसे बहुत पैसा कमाना है क्योंकि उसकी मां की मृत्यु, दस रुपए न होने की वजह से होती है। चमक-दमक वाली दुनिया में जीना है, इसलिए लाल सिंह के अनुरोध को ‘रूपा तू मुझसे ब्याह करेगी’ को वह बेमेल जिंदगी समझ, टाल जाती है और बंबई की ओर रुख करती है। वहां वह हाजी मस्तान नामक, फिल्म निर्माता, माफिया और आतंकी के चंगुल में फंस जाती है जो नई हिरोइनों को फिल्मों में काम दिलाने के बहाने शोषण करता है। रूपा का कदम-कदम पर शारीरिक शोषण होता है और वह कुछ हासिल नहीं होता जो वह चाहती है।
इधर ‘सोमनाथ से अयोध्या’ तक आडवानी की रथयात्रा निकल पड़ी है। चारों ओर हिन्दू धर्मांधता का उभार दिखाई देता है। बाबरी मस्जिद विध्वंस को भी इस फिल्म ने छुआ है। लाल सिंह सेना में जा चुके हैं और रूपा हिरोइन बनने का ख्वाब पाले, शोषित हो रही है। सेना में लाल सिंह की दोस्ती दक्षिण भारतीय सैनिक ‘बाला’ से होती है, जिसके खानदान का कारोबार कच्छा-बनियान बनाना रहा है। खानदानी पेशे को छोड़, बाला सेना में भले आ जाता है मगर उसकी योजना, सदा यही रहती है कि सेना से रिटायर्ड होते ही वह एक कम्पनी बनायेगा और कच्छा-बनियान बनाकर बेचेगा। सेना में भी लाल सिंह के साथ वह इस योजना का प्रयोग करता है। दोनों बेहतर सिलाई कर सेना के जवानों के लिए बनियान और कच्छा सिलते हैं। बाला कहता है कि मेरी कंपनी में लाल सिंह पार्टनर रहेगा।
इधर लाल सिंह, रूपा को भूल नहीं पाया है और एक बार वह टीवी पर देखता है कि किसी शो में रूपा की नग्नता को देखकर कुछ धर्मांध संगठन विरोध कर रहे हैं तो वह वहां पहुंच कर उनसे भिड़ जाता है। वैसे रूपा उसके वहां अचानक पहुंच जाने को सामान्य रूप से नहीं लेती और गुस्सा होती है। लाल सिंह वहां भी रूपा से शादी का प्रस्ताव रखता है मगर वह उस पर बहुत ध्यान नहीं देती और कहती है कि उन दोनों की जिन्दगी में बहुत फर्क है। दोनों के उद्देश्य भिन्न हैं।
इसी बीच कारगिल युद्ध होता है। और उसमें बाला मारा जाता है। लाल सिंह बहुत से घायल जवानों को युद्धभूमि से बाहर लाकर जान बचाने में मदद करता है। उन्हीं के साथ वह अनजाने में दुश्मन-पक्ष के मुख्य धर्मांध मुखिया, घायल मुहम्मद को भी उठा लाता है जिससे उसकी भी जान बच जाती है मगर दोनों पैर कट जाते हैं। इस काम के दौरान लाल सिंह को गोली लगती है मगर लम्बे इलाज के बाद वह ठीक हो जाता है। जब लाल सिंह अपने कंधे पर मुहम्मद को ढोकर ला रहा होता है तब मुहम्मद, लाल सिंह की हत्या करना चाहता है मगर पिस्तौल में गोली खत्म हो जाने के कारण वैसा नहीं कर पाता। सैनिकों के जान बचाने के एवज में लाल सिंह को मेडल मिलता है। गोली लगने से वह नियमित सेना के योग्य नहीं रहता, रंगरूटों को दौड़ का प्रशिक्षण देता है।
सेना से स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति लेकर लाल सिंह, अपनी मां के पास चला आता है। वहां रूपा की यादें स्मृतियों में बनी रहती हैं। वह अपने दोस्त बाला के घर जाता है। उसकी पत्नी-बच्चों से मिलता है और आकर बाला की डायरी के आधार पर कच्छा-बनियान बनाने की फैक्ट्री खोलता है। पहले बिक्री की समस्या आड़े आती है परन्तु मार्केटिंग का काम मुहम्मद संभालता है और उसी की सलाह पर बनियान का ब्रांड नाम बाला के बजाय स्त्री पात्र के नाम पर ‘रूपा’ रखा जाता है। ‘रूपा’ कच्छा-बनियान का उत्पादन शुरू होते ही बिक्री एकाएक तेज हो जाती है। कारोबार बढ़ जाता है। वह न चाहते हुए भी करोड़पति बन जाता है। अपने दोस्त बाला की पत्नी को पैसे भेजता है।
इधर एक बार फिर पाकिस्तान प्रशिक्षित आतंकियों द्वारा मुम्बई पर हमला किया जाता है। कसाब की गिरफ्तारी होती है और टीवी पर यह दृश्य मुहम्मद देखता है। उसे लगता है कि अभी बहुत से युवकों को पाकिस्तान में धर्मांध बनाने का खेल जारी है। वह अपने वतन वापस जाकर इस खेल को रोकने के लिए स्कूल खोलना चाहता है और एक दिन चला जाता है। इधर लाल सिंह की मां का देहान्त कैंसर से हो जाता है।
फिल्मी दुनिया में दाउद जैसे डॉन का दखल और आतंकी गतिविधियों को अंजाम देने वाले निर्माता हाजी मस्तान द्वारा रूपा का शोषण जारी है। रूपा एक बार लाल सिंह के पास लौट आती है। दोनों में प्रणय मिलन होता है मगर हाजी मस्तान की दोस्त होने के नाते, रूपा की तलाश में पुलिस लाल सिंह के गांव आती है। रूपा, सोते हुए लाल सिंह को छोड़कर पुलिस के साथ चली जाती है। वह पुलिस को सहयोग करती है जिससे हाजी मस्तान गिरफ्तार होता है। सहयोग के कारण रूपा को महज दस माह की सजा होती है। इस समाचार को टीवी पर देखकर, आहत लाल सिंह पूरे चार वर्ष सात माह से अधिक, देशभर में दौड़ता है। वह जब लौट कर घर आता है तो उसकी फैक्ट्री में रूपा की बहुत सी चिट्ठियां आई होती हैं।
एक दिन फिर रूपा लाल सिंह के घर आती है। लाल सिंह को पता चलता है कि उसका बच्चा भी है, जिससे वह अनजान है। इसके बाद दोनों शादी कर लेते हैं। यह मिलन भी बहुत देर तक नहीं रहता। रूपा को भी कैंसर जैसी बीमारी है और वह दुनिया से चल बसती है। फिल्म बताती है कि ‘जिन्दगी गोलगप्पे की तरह है, पेट भर जाता है लेकिन मन नहीं भरता।’
लाल सिंह, ट्रेन सफर में अपनी जिन्दगी की दास्तान सुनाते-सुनाते पठान कोट से चंडीगढ़ पहुंच जाते हैं। डिब्बे की सवारियां पहले उन्हें पागल समझती हैं लेकिन एक सहज और सरल व्यक्ति द्वारा जिंदगी की दास्तान सुन अंत तक आते-आते भावुक हो जाती हैं। यह फिल्म, लाल सिंह चड्ढा नामक एक असाधारण प्रतिभा की दास्तां है।
लाल सिंह का बेटा अब उसी स्कूल में दाखिला ले लिया है, जहां कभी उनका दाखिला हुआ था। धीरे-धीरे देश बदलने का खेल शुरू हो चुका है। भ्रष्टाचार के बहाने अन्ना आन्दोलन का पदार्पण हो चुका है। ‘अबकी बार मोदी सरकार’ और हिन्दू धर्म के उभार के बोर्ड दिखाई देने लगे हैं। लाल सिंह कहते हैं, ‘धर्म मलेरिया फैलाता है’। उनकी जिंदगी की गाड़ी रूपा की याद में चलती रहती है। बाल काट दिए जाने के बाद जो पगड़ी वह छोड़ चुके थे, एक बार फिर पहनने लगे हैं।
‘लाल सिंह चड्ढा’ फिल्म एक स्लो मोशन की फिल्म है जो कुछ-कुछ कर्मवादी तो कुछ-कुछ भाग्यवादी भी है। थपेड़ों से एक परिंदे के पंख का उड़ना, जिंदगी के थपेड़ों की कहानी है। अपने मानवीय पक्ष के कारण लाल सिंह, दुश्मन मुहम्मद को भी प्यार करते हैं। उसके जाने पर दुखी होते हैं। मुहम्मद भी लाल सिंह के प्यार से कट्टरता से मुक्त हो, इंसान बन जाता है।
इस फिल्म में 1974 के बाद की उन तमाम मुख्य घटनाओं को दर्शाया गया है, जिससे भारतीय समाज-व्यवस्था की संवेदना प्रभावित हुई है मगर लगता है मजबूरी वश निर्माता ने गुजरात दंगों से खुद को किनारा कर लिया है।
कुल मिलाकर ‘लाल सिंह चड्ढा’ फिल्म, जिन्दगी को विषम परिस्थितियों में जीने की ताकत के साथ, दर्शकों के सामने प्रस्तुत होती है। इस फिल्म में ऐसा कुछ भी नहीं है, जो इसे विवादित या बॉयकाट’ का बहाना बनाया जाए।
(सुभाष चन्द्र कुशवाहा इतिहासकार और साहित्यकार हैं।)
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