विजय शंकर सर, इतनी भी क्या जल्दी थी!

रिटायर्ड आईपीएस अफसर विजय शंकर सिंह का निधन हो गया है। आज सुबह ही उन्होंने कानपुर में आखिरी सांस ली। भड़ास के संपादक यशवंत सिंह ने उनके बेटे व्योम रघुवंशी से बात की और उन्होंने इस दुखद खबर की पुष्टि की। उन्होंने बताया कि सुबह 11 बजे वह रूटीन चेकअप के लिए डॉक्टर के पास जा रहे थे तभी रास्ते में ही उनको दिल का दौरा पड़ा और वहीं उनका निधन हो गया। यहां तक कि उन्हें अस्पताल तक पहुंचने का भी मौका नहीं मिला। विजय शंकर सिंह के निधन की यह खबर उनके दोस्तों, पाठकों और समर्थकों के लिए किसी वज्रपात से कम नहीं है। विजय शंकर सिंह एक ईमानदार आईपीएस अधिकारी थे। उन्होंने उसूलों पर चलते हुए आम लोगों की सेवा में अपना पूरा जीवन लगा दिया। सेवा से रिटायर होने पर भी वह थके नहीं। और कलम को सेवा का नया माध्यम बना लिया।

सिविल सर्विसेज की तैयारी के दौर का ज्ञान और अपनी सेवा के लंबे अनुभव का खजाना उनके पास था। और एक बार जो कलम आगे बढ़ी तो फिर समुद्र की गहराइयों में उतर कर वह ज्ञान के मोती चुनने लगी। बहुत ही कम समय में विजय शंकर जी लेखन क्षेत्र के बड़े धुरंधऱों की कतार में खड़े हो गए। देश का कोई भी गंभीर मसला हो उस पर बेहद गहराई से अध्ययन करना और फिर हर पक्ष से उसकी चीरफाड़ करना उनके लेखन की खास विशेषता थी।

इस दौर में जबकि देश का पूरा लोकतांत्रिक ढांचा संकटग्रस्त है। और संविधान से लेकर संसद तक का वजूद खतरे में है। तब उन्होंने अपने सामने आने वाले खतरों का ख्याल न करते हुए सत्ता और उसके द्वारा संचालित तमाम प्रतिक्रियावादी और प्रतिगामी ताकतों से सीधा मोर्चा लिया। और सुबह से ही सोशल मीडिया पर जो वह उतरते थे तो रात तक मोर्चे पर डटे रहते थे। और हर तरह के उल्टे-सीधे सवालों और कुतर्कों का वह बेहद बेलाग तरीके से जवाब देते थे। और जब कोई बड़ा विषय आता था तो उस पर पूरी गहराई के साथ अध्ययन कर पूरा लेख लिख देते थे।

यहां तक कि जज लोया की हत्या के मामले को सबसे आगे बढ़कर उठाने वालों में वो शामिल थे। जबकि यह बात सबको पता है कि इस मामले को उठाना किसी के लिए कितना खतरनाक साबित हो सकता था। लेकिन उन्होंने न तो अपने भविष्य की परवाह की और न ही अपनी पेंशन और परिवार की। वह खुद को इस दौर के स्वतंत्रता सेनानी की भूमिका में देखते थे। और उसी जज्बे के साथ मैदान में डटे रहते थे।

इतने दिनों तक सेवा में रहने और फिर उसके बाद बाहर आने के बाद बहुत कम लोगों में संविधान, लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता जैसे मूल्यों को प्रति प्रतिबद्धता बचती है। ऐसे दौर में जबकि भाजपा के भक्तों की जमात के पेंशनधारी इंजन बने हुए हैं तब उसमें किसी का विजय शंकर होना बहुत मायने रखता है। उनके लिए मानो ये सारी चीजें प्राणवायु हों और इनके बगैर उनका जिंदा रहना मुश्किल है। इसीलिए दिन हो या रात वह जनता से जुड़े मुद्दों को उठाने के अभियान में जुटे रहते थे।

मेरी अक्सर उनसे बात होती रहती थी। जनचौक परिवार के तो वह अभिन्न हिस्से बन गए थे। कोई भी लेख लिखते सबसे पहले जनचौक को भेजते। साथ में फेसबुक मेसेंजर और ह्वाट्सप पर उनका मैसेज आता। ‘महेंद्र जी मेल चेक कर लीजिए’। और फिर उस पर मेरा महज दो शब्दों का जवाब होता ‘जी,सर’। हमारा उनका रिश्ता यहीं तक सीमित नहीं था। यह बात किसी से छुपी नहीं है कि जनचौक अपने पाठकों, समर्थकों और आम लोगों के सहयोग से ही चलता है। कई बार ऐसा मौका आया जब मैं आर्थिक संकट से गुजरा तो उनको याद किया। और वह बगैर किसी ना नुकुर तुरंत पैसा भेजने का इंतजाम करते। अभी चंद दिन पहले की बात है जब उनका सहयोग हम लोगों को मिला था। और अब जबकि वह नहीं हैं तो लग रहा है कि जनचौक का एक हिस्सा चला गया। और उसकी कमी कभी भी पूरी नहीं हो सकेगी।

विजय शंकर सर के साथ हम लोगों का संपर्क अपने साथी प्रदीप सिंह के माध्यम से हुआ था। सबसे पहले वही उनके संपर्क में आए थे। और जब उन्होंने नियमित तौर पर जनचौक में लिखना शुरू किया, फिर तो वह जनचौक परिवार के हिस्से बन गए थे।

विजय सर, इस दौर में आपका जाना अंदर से खल रहा है। यह किसी की व्यक्तिगत से ज्यादा सामाजिक और राष्ट्रीय क्षति है। अभी जिस मोर्चे पर आप योद्धा की तरह तैनात थे। उससे लग रहा है कि हम लोगों ने युद्ध का एक कमांडर, एक सेना नायक खो दिया है। और इस बात में कोई शक नहीं है कि मौजूदा फासीवादी सत्ता के खिलाफ लड़ाई का हमारा मोर्चा कमजोर हो जाएगा। अभी तो आपकी हम लोगों को बहुत जरूरत थी।

अलविदा विजय सर, आप हमेशा हम लोगों की यादों में बने रहेंगे।

महेंद्र

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संजीव शुक्ल
संजीव शुक्ल
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4 months ago

बहुत बढ़िया लिखा आपने। विजय शंकर सर का जाना बहुत कुछ रिक्त कर गया। विनम्र श्रद्धांजलि 🙏🙏