आत्मकथा के जरिये शिक्षक एस.पी. बंसल ने अपने जीवन के साथ-साथ शिक्षा को लेकर समाज के दृष्टिकोण, अपने कार्यों, निजी स्कूलों की प्रबंधन समितियों की हालत, शिक्षकों के शोषण और स्थिति को बदलने के लिए उनके द्वारा किए गए संघर्षों को उजागर किया है। तमाम विपरीत हालात में भी लेखक सकारात्मकता का भाव नहीं छोड़ता है। हर स्थिति को चुनौती की तरह लेता है और उससे पार पाने के लिए संघर्ष करता है। यही कारण है कि वह निरंतर आगे बढ़ता जाता है।
यही सकारात्मक दृष्टिकोण ही उनकी पूंजी है, जो कि ना तो उन्हें थकने देता है और ना ही हार मानने देता है। उत्साह के साथ मेहनत करते जाना उनके जीवन का सूत्र है, जिससे वे एक रास्ता बंद हो जाए तो उसे खोलने के प्रयासों के साथ ही नए रास्ते तलाशते हैं। यही कारण है कि वे एक आम शिक्षक से विश्वविद्यालय के कुलपति तक का सफर तय करते हैं। उनकी जीवटता पाठकों के लिए प्रेरणादायी है।
आत्मकथा में कुछ बहुत ही रोचक प्रसंग हैं। पहला प्रसंग तो तब का है, जब लेखक विद्यार्थी होता है। रात को सोते हुए कोई स्वप्न देखता है और उसके भीतर सब कुछ छोड़ कर संन्यास धारण करने के भाव जागृत हो जाते हैं। आधी रात को वह पिता के पास आता है और अपने मन के भाव व्यक्त करता है। पिता अपने पुत्र के मन के भावों का निरादर करने की बजाय उसे सुबह के लिए टालते हैं। और फिर उसे शिक्षा पूरी करने का संदेश देते हैं। क्योंकि शिक्षा के बिना जीवन को समझना बेहद मुश्किल कार्य है।
दूसरा प्रसंग तब का है जब शिक्षकों का शहर भर में प्रदर्शन है। उनकी बेटी की तबियत खराब है। वे बेटी को डॉक्टर को दिखाने की बजाय शिक्षक नेता के रूप में अपना दायित्व निभाते हैं। आधी रात को जब वे घर आते हैं तो पत्नी बेटी को लिए बैठी है। उन्हें डर है कि बेटी हाथ से निकल ना जाए। लेखक बेटी को चादर में लपेट कर अंधेरी सड़क़ की निस्तब्धता के बीच से डॉक्टर के पास जा रहा है और उसका इलाज करवाता है।

यूनियन का नेता होने और अध्यापकों के हक के लिए निर्णायक लड़ाई लड़ऩे के कारण लेखक को स्कूल से निकाल दिया गया। स्कूल की प्रबंधन समिति ने स्कूल को डिग्रेड करके स्कूल से प्राध्यापकों के पद को समाप्त कर दिया। लेखक ने शिक्षा निदेशक व शिक्षा मंत्री तक से मिलकर हर संभव कोशिश की कि वह दोबारा से अर्थशास्त्र के प्राध्यापक के पद पर कार्य करें। बार-बार की कोशिशों और पुराने स्कूल की प्रबंधन समिति के प्रयासों से पानीपत के किसी भी स्कूल में उन्हें प्राध्यापक का पद नहीं मिल पाता है। सिरसा के एक स्कूल में भी अच्छा शिक्षक होने के बावजूद उन्हें खाली हाथ लौटना पड़ता है।
लेखक की पत्नी गीता जी के द्वारा घर में स्कूल की स्थापना का प्रसंग भी कम रोचक नहीं है। लेखक की तरह ही शिक्षा के प्रति उनकी प्रतिबद्धता भी कमाल की है। वे स्कूल खोलने के लिए अपने आप प्रचार करती हैं। लेखक को इसकी सूचना तब मिलती है, जब स्कूल में 50 विद्यार्थी दाखिल हो जाते हैं। अगले साल बच्चों की संख्या 550 होना भी बहुत बड़ी उपलब्धि की ही तरह था।
यदि सामाजिक आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों के बच्चों को वे पढ़ाई में आगे बढ़ाने का काम करते हों तो यह काम देश की प्रथम महिला शिक्षिका सावित्रीबाई फुले और फातिमा शेख के साथ जोड़ा जा सकता है। एक से बढ़क़र एक शैक्षिक संस्थानों की स्थापना और अंतत: गीता विश्वविद्यालय शुरू करने के पीछे लेखक व उनके परिवार की सोच यही रही कि ग्रामीण क्षेत्र के युवाओं विशेषकर लड़कियों को शिक्षा के अवसर मिलें।
अलग-अलग प्रसंगों से पाठक बंधा हुआ पूरी आत्मकथा को पढ़ऩे के लिए मजबूर हो जाता है। हालांकि आत्मकथा में रोचकता में तब व्यवधान आ जाता है, जब वे कहानी को बहुत आगे तक ले जाकर पीछे लौट जाते हैं। इससे एक बारगी तो प्रवाह टूटता है, लेकिन छूटे हुए सूत्रों से फिर से जुड़ जाने पर रोचकता और गहराई बढ़ जाती है।
भाषा की दृष्टि से तो आत्मकथा पूरी तरह सफल रचना कही जा सकती है। क्योंकि ना तो कथा में ही कोई बनावटीपन है और ना ही भाषा में। बेहद सरल भाषा में कथा कही गई है। साधारण शब्दों के कारण एक आम पाठक भी आनंद के साथ कथा का संदेश ग्रहण कर सकता है। इससे यह किताब एक आम से खास सभी लोगों के लिए उपयोगी है।
पुस्तक : मुसाफिर न थका, न हारा
लेखक : एस.पी. बंसल
प्रकाशक : यूनिक पब्लिशर्स, कुरुक्षेत्र
मूल्य : रु. 199.
(अरुण कुमार कैहरबा हरियाणा के करनाल में हिंदी के अध्यापक हैं।)
