8 मार्च अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस : महिला मुक्ति संघर्ष का गौरवशाली इतिहास

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अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस दुनिया भर में मनाया जाता है। यह दिन महिलाओं की सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक उपलब्धियों के जश्न मनाने, उनके प्रगति पर विचार करने और हर तरह की समानता की मांग करने का दिन है। लेकिन असल में महिलाओं के समान अधिकार और उनकी मांगें, न्याय के लिए वैश्विक अभियान व लड़ाईयां पूरे साल जारी रहती है।

इस दिन पूरे विश्व में हजारों कार्यक्रम आयोजित होते हैं, रैली, वार्ता, संगीत कार्यक्रम, प्रदर्शनियां और वाद-विवाद इत्यादि। पर सवाल ये है कि क्या आज भी अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस उस सोच के साथ मनाया जा रहा है, जिस सोच के साथ इसे मनाना शुरू किया गया था।

आज ये समझने की ज़रूरत है कि “अंतर्राष्ट्रीय मज़दूर महिला दिवस” जो विशेषतः मज़दूर महिलाओं के संघर्ष और अधिकार के लड़ाई से जुड़ा हुआ था वो कैसे आज के दौर में सिर्फ़ “अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस” बन कर रह गया है। किन कारणों से उन तमाम महिलाओं की संघर्ष, उनकी क़ुर्बानी और उनकी लड़ाई से जुड़ी जड़ें कमजोर पड़ रही है और अब इस दौर में इस ऐतिहासिक दिन को केवल उत्सव या त्योहार नामक दिन बनाकर कर रख दिया गया है, जहां कुछ इवेंट्स, नाच-गाना, पार्टी, गिफ़्ट्स देने-लेने तक ही इस दिन को सीमित कर दिया गया है।

सवाल ये है कि इसका कारण क्या है और यह हुआ कैसे ? महिलाओं को किस तरह एक पितृसत्तात्मक समाज के भीतर रखा जाए जहां वे बस ग़ुलाम बन कर रहें, इसको बनाए रखने में पूंजीवादी संस्कृति, साम्राज्यवाद और बाज़ार का सबसे बड़ा हाथ है।

पूंजीवादी संस्कृति ने एक ऐसी स्थिति पैदा कर दी है जहां महिलाएं अपने घर, परिवार के अलावा और कुछ सोच ही नहीं पाती हैं, और ये सब इस लिए किया जा रहा है क्योंकि अगर महिलाएं भी अपने हक और अधिकार के लिए आवाज उठाने लगीं तो शायद देश में वो क्रांति के दिन दूर नहीं जब देश में अलग-अलग वर्ग के लोग नहीं देखे जाएंगे कोई अमीर कोई गरीब नहीं देखा जाएगा और एक समाजवादी देश का स्थापना के साथ  पूंजीवादी व्यवस्था को चुनौती देगा। इसीलिए महिलाओं को ऐतिहासिक रूप से अलग-अलग चीजों के अंदर उलझा कर रखा गया है।

“महिलाओं की शक्ति, मजदूर वर्ग की आधी शक्ति”

पूंजीवाद नहीं चाहता की महिलाएं भी देश की राजनीति समझें। उन्हें यह पता है कि जिस दिन महिलाएं इस मकड़ी के जाल की तरह उलझी राजनीति को समझ गईं तो मज़दूर किसान के शासन को आने से नहीं रोका जा सकता।

आइए जानते हैं कि ये शुरू कैसे हुआ।

1947 और 1990 के बीच में पूंजीवादी व्यवस्था ने अपना राज और स्थान बनाए रखने के लिए “अंतर्राष्ट्रीय मज़दूर महिला दिवस” को एक “सामान्य महिला दिवस” में परोसना शुरू किया। क्योकि 8 मार्च मज़दूर महिला दिवस समाजवादी आंदोलन से निकला था, और पश्चिमी देशों का पूंजीवाद क्रांतिकारी आंदोलन को कमजोर करने की कोशिश कर रहा था। 

वे नहीं चाहते थे कि श्रमिक वर्ग और महिला मुक्ति संघर्ष एक होकर काम करें। क्योंकि अगर ऐसा हुआ तो उनके संघर्ष और आंदोलन सब कुछ पूंजीवादी व्यवस्था और पश्चिमी देश को धूल चटा सकते हैं। 1917 की रूसी क्रांति में महिलाओं की भूमिका इसकी जड़ में थी।

सोवियत संघ और कुछ समाजवादी देश इसे श्रमिक महिलाओं के संघर्ष के रूप में मनाते थे। लेकिन पश्चिमी देशों को क़तई मंज़ूर ना था कि कोई भी श्रमिक आंदोलन उनके पूंजीवादी व्यवस्था को चुनौती दे। फिर क्या था पूंजीवादी ताक़तों ने अपनी बाज़ार और कॉर्पोरेट ताक़तों से मज़दूर महिला दिवस को केवल महिला सशक्तिकरण के नाम पर सामान्य महिला दिवस बनाने में क़ाबू पा लिया।

पहले इस दिन को महिलाओं के अधिकारों, समान वेतन, उनके हक, कार्यस्थल पर शोषण, घरेलू हिंसा और आंदोलन और संघर्ष का प्रतीक माना जाता था, जिसे अब मात्र “सेलिब्रेशन” के तौर पर देखा और मनाया जाता है। यहां बाज़ार भी अपनी मुख्य भूमिका निभाता है सेलिब्रेशन के नाम पर गिफ़्ट, प्रमोशन, डिस्काउंट, बड़ी-बड़ी पार्टियां, शॉपिंग ये सारी चीजें महिलाओं को खुश करने के लिए और उन्हें उलझाए रखने के किया जाता है।

नतीजा यह हुआ कि धीरे-धीरे महिला दिवस पर संघर्ष की जगह खरीदारी और सेलिब्रेशन ने ले लिया है। इतना ही नहीं कॉर्पोरेट कंपनियां महिला दिवस पर “फील-गुड” अभियान चलाती हैं महिला के सम्मान का दिन बना दिया गया है जबकि उन्हीं कम्पनियों में महिलायें कम वेतन, काम के दौरान छेड़छाड़, काम करने के साधन के मांग, काम के घंटे को बढ़ाना ऐसी कई समस्याओं से जूझती रहती हैं।

निसंदेह महिला दिवस मनाने या उसे देखने का सभी का अपना-अपना एक अलग नज़रिया हो सकता है। सभी देशों में महिला दिवस मनाने का अपना एक तरीक़ा होता है और जश्न मनाने में भी कोई संदेह करने वाली बात नहीं है लेकिन ऐसे में महिला दिवस मनाने का कारण और उसके आंदोलन के इतिहास की कहानी को, संघर्ष को कहीं ना कहीं मिटाया जा रहा है। जबकि अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस महिलाओं के अधिकारों को हासिल करने के लिए उनके लम्बे संघर्षों के गौरवशाली इतिहास को स्मरण करने और उन शहीदों को श्रद्धांजलि अर्पित करने का अवसर है, जिन्होंने महिलाओं को संगठित करने और उनके अधिकारों के लिए लड़ने में अपने प्राणों की आहुति दी है।

आज मज़दूर महिलाओं के बारे में विशेषकर फैक्ट्रियों, खेतों, और असंगठित क्षेत्रों में काम करने वाली महिलाओं की स्थितियों के बारे में बात ही नहीं की जाती है। मेहनतकश महिलाओं के संघर्ष और क़ुर्बानी को याद रखने और उससे ताक़त को लेकर अपनी लड़ाई को और मज़बूत करने का दिन है। मेहनतकश महिलाएं हमेशा अपने वर्ग के हक़ों की लड़ाई और घर के साथ समाज में अपने हक़ों की लड़ाई लड़ रही हैं।

जहां एक तरफ़ वह अपने पुरुषों के साथ पूंजीवादी और सामन्ती व्यवस्था के ख़िलाफ़ लड़ रही हैं वहीं दूसरी तरफ़ पितृसत्ता के ख़िलाफ़ घर में, समाज में, और काम के जगह पर लड़ रही हैं। महिला दिवस कई समाजवादी आंदोलनों का परिणाम था, जिसमें महिलाओं के लिए मतदान के अधिकार और बेहतर कामकाजी परिस्थितियों की मांग की गई थी।

महिला दिवस 20वीं सदी की शुरुआत में तेजी से बढ़ते औद्योगिकीकरण के दौर में एक साथ बढ़ते हुए श्रमिक और महिला अधिकार आंदोलनों से उभरा। उसके पूर्व महिलाओं के मताधिकार और कारखानों में अमानवीय व्यवहार के विरोध में बड़े पैमाने पर हड़ताल और प्रदर्शन किए जा रहे थे।

गेड कैलसेन और एलेक्जेंड्रा कोलोनताई के महिला दिवस के विषय में लिखे रिपोर्ट के अनुसार राष्ट्रीय महिला दिवस पहली बार 28 फरवरी, 1909 को संयुक्त राज्य अमेरिका में मनाया गया था। जो सोशलिस्ट पार्टी ऑफ़ अमेरिका द्वारा किया गया था।

उससे पहले इसकी शुरुआत 1908 में की गई थी जब 15,000 महिलाओं ने काम के घंटे कम करवाने और बेहतर वेतन और मतदान और समानता के अधिकार की मांग को लेकर न्यूयॉर्क में मार्च निकाला था। अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस श्रमिक आंदोलन से उत्पन्न हुआ है।

ठीक एक साल बाद 1910 में डेनमार्क के कोपेनहेगन में समानता और महिलाओं के वोट के अधिकार को लेकर एक सम्मेलन हुआ जिसमें “क्लारा ज़ेटकिन” जो एक कम्युनिस्ट कार्यकर्ता और महिला अधिकारों की वकील थीं ने उस सम्मेलन में अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस आयोजन का अपना विचार रखा किया था।

उनके इस सुझाव का समर्थन सम्मेलन में उपस्थित 17 देशों की 100 महिलाओं ने किया। यूरोप में यह विचार आगे बढ़ा और 1911 में पहली बार अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस (IWD) बन गया।1913 में अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस को 8 मार्च को स्थानांतरित कर दिया गया। संयुक्त राष्ट्र ने 1975 में 8 मार्च को अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस घोषित किया।

“अपने-अपने देशों के सर्वहारा वर्ग के वर्ग-चेतन, राजनीतिक और ट्रेड यूनियन संगठनों के साथ सहमति से, सभी देशों की समाजवादी महिलाएं हर साल महिला दिवस मनाएंगी, जिसका सबसे बड़ा उद्देश्य महिलाओं को मताधिकार प्राप्त करने में सहायता करना होना चाहिए। इस मांग को समाजवादी सिद्धांतों के अनुसार महिलाओं के पूरे प्रश्न के साथ जोड़कर देखा जाना चाहिए। महिला दिवस का स्वरूप अंतर्राष्ट्रीय होना चाहिए और इसे सावधानीपूर्वक तैयार किया जाना चाहिए।”- क्लारा ज़ेटकिन

हमारे देश के अलग अलग हिस्सों और काल में महिलाओं ने आंदोलन और संघर्ष की अगुवाई की है। आज़ादी के आंदोलन से लेकर लगातार होने वाले आंदोलनों में महिलाएं हमेशा आगे निकलकर आई हैं। आज भी पूरे देश भर में चल रहे आंदोलनों में महिलाएं अग्रणी भूमिका निभा रही हैं।

कुछ साल पहले CAA-NRC के ख़िलाफ़ हुए आंदोलन में महिलाओं की हिस्सेदारी इसका सबसे बड़ा उदाहरण है। बीते कुछ वर्षों के साथ साल 2025 तक कई घटनाएं और आंदोलन हुए जिसमें महिलाएं न्याय और अपना अधिकार लेने के लिए आज भी संघर्ष के मैदान पर डटे हुए हैं। 

देश के औद्योगिक क्षेत्र में करने वाली महिलाएं 12-12 घंटे काम करने को मजबूर हैं। दूसरी ओर घरेलू कामगार महिलाएं बहुत कम वेतन में काम कर अपने परिवार का जीवन चलाने को विवश हैं। सफ़ाई कर्मचारी के महिला मज़दूर, जीने के लिए वेतन, नियमितिकरन सहित सम्मान जनक काम और अपने अस्तित्व को बचाने संघर्ष कर रहे हैं।

इन्हीं मजदूरों के दम पर पूरे देश में स्वच्छ भारत अभियान चलाया गया और इन्हीं को मेहनताना देने की जब बात आती है तो उनके साथ मारपीट किया जाता है। छत्तीसगढ़ के दुर्ग जिले में ऐसी घटना अब रोज़ की कहानी बन गई है बस पात्र बदलते रहते हैं।

ठेकेदार हो या मैनेजर, महिलाओं के साथ गाली-गलौच करना, समय पर उनका वेतन ना देना, समय से ज़्यादा काम करवाना, बिना गलब्स बिना जूता बिना कोई साधन मल और कचरे को साफ़ करवाना इस तरीक़े के घटनाओं से वहां की महिलाएं लगातार जूझ रही हैं लेकिन उसके बावजूद अपने हक की आवाज उठाने में कोई कसर नहीं छोड़ती।

मणिपुर जहां एक महिला को निर्वस्त्र कर घुमाया जाता है और वे न्याय के उम्मीद में तड़पती रहती है। मणिपुर में कूकी समुदाय के ख़िलाफ़ भड़काए दंगों में हुए मौत और अपने अस्तित्व को बचाने पर रोक लगाने के लिए स्थानीय लोगों के आंदोलन में महिलाओं का बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेना उनकी अग्रणी भूमिका को दर्शाता है।

आज भारत की शिक्षा पर खर्च दुनिया में सबसे कम है, यह भारत की जीडीपी का मात्र 0.5% से भी कम है। 2018 से 2023 के बीच यह अनुपात 0.46% से घटकर 0.37%  हो गया है। एससी/एसटी और आर्थिक सामाजिक रूप से पिछड़ी लड़कियों को निर्मम जाति व्यवस्था और भारी फीस वृद्धि के कारण उच्च शिक्षा से वंचित किया जा रहा है।

अल्पसंख्यक, दलित,आदिवासी और अन्य वंचित वर्गों की लड़कियों और महिलाओं के छात्र वृत्तियां बंद कर दी गई है। छत्तीसगढ़ के उत्तर और दक्षिण में अपार बहुमूल्य कोल भंडारण और लौह अयस्क का भंडार है जिसे देशी विदेशी पूंजीपतियों द्वारा लूटने का षड्यंत्र लगातार जारी है।

छत्तीसगढ़ के दोनों ओर खनिज भंडारण के लिए आदिवासियों का रोज़ कत्लेआम और महिलाओं का यौन शोषण हो रहा है।आदिवासी अपने जल,जंगल,ज़मीन को बचाने, अपने अस्तित्व को बचाने को लेकर निरंतर संघर्ष कर रहे हैं उन तमाम आंदोलन में महिलाएं ही मुख्य भूमिका निभा रही हैं। और जो इन आंदोलनों में बढ़ कर हिस्सा ले रहीं जैसे “सुनीता पोट्टाम” उन्हें झूठे आरोपों में जेल भेजा जा रहा है।

देश की महिला पहलवान जिन्होंने दुनिया भर में भारत देश का नाम सम्मानित किया लेकिन उन्हीं महिला पहलवानों ने अपनी सम्मान, अस्तित्व के लिए लड़ा और कितने ही युवा महिला पहलवानों के साथ हो रहे यौन उत्पीड़न को उजागर कर विरोध किया तो आरोपी बृजभूषण सिंह को बचाने के लिए पहलवानों के साथ ज़ोर ज़बरदस्ती कर उन्हें जेल में डाल दिया गया।

पिछले  कुछ सालों से देश में लगातार बलात्कार, अनाचार का मामला देखने और सुनने को मिल रहा है इसमें अंकुश लगने के बजाय ये और अधिक बढ़ रहा है ऐसा क्यों ? क्यों कि घृणित घटना को अंजाम देने वालों को रजनीतिक संरक्षण प्राप्त हो रहा है।

घर उजड़ने से सबसे ज़्यादा प्रभावित महिलाएं ही होती हैं। शहरी गरीब बस्तियों की बात हो या विस्थापन की या गांव की हो या जंगलों की सरकारी नीतियां लगातार पूंजीपतियों की मांग को बढ़ावा देते हुए गरीब वर्ग को उजाड़ रहे हैं और इन सबके ख़िलाफ़ आज भी महिलाएं संघर्ष में डटी हुई हैं।

हर चुनाव में सरकार अपने घोषणा पत्र में महिलाओं के ख़िलाफ़ अपराधों की उच्च दर को कम करने, महिला शिक्षा और रोज़गार बढ़ाने, तथा संसद और राज्य विधानसभाओं में महिलाओं के लिए 33% आरक्षण लाने के लिए संवैधानिक संशोधन का वादा करती है।

अब सरकार दावा कर रही है कि चुनावी वादे पूरे कर दिए गए हैं लेकिन ये सिर्फ़ जुमला है। 2014 में महिलाओं के ख़िलाफ़ अपराधों की दर 56.3 प्रति लाख थी, जो 2022 में बढ़ कर 66.4 प्रति लाख हो गई। साफ़ है कि सरकार कारपोरेट पूंजीपति समर्थक नीतियां महिलाओं के लिए अस्तित्व का संकट पैदा कर रहे हैं।

देश की वे तमाम महिलाएं जो महिला मुद्दों और मज़दूर किसान के हितों के लिए काम कर रहे थे जिसमें कुछ वकील, कुछ पत्रकार, स्टूडेंट्स, सामाजिक कार्यकर्ता, लेखिका, सांस्कृतिक कार्यकर्ता हैं उन्हें या तो जेलों के अंदर कर उनके आवाज को दबाने की कोशिश की जा रही है या उनकी हत्या कर सच बोलने वाले को दबाया जा रहा है।

जैसे- गुलफिशा फ़ातिमा, सोमा सेन, सोनी सोरी, सुधा भारद्वाज, सुनीता पोट्टाम, मनीषा, सफ़ूरा जरगर, कंचन नन्नवरे, गौरी लंकेश, बी अनुराधा, नताशा अग्रवाल, देवांगना, जकिया जाफ़री, ज्योति इनके अलावा और ऐसे लोग हैं जो बेवजह सालों से जेल बंद हैं लेकिन उनकी लड़ाई अब भी जारी है।

वैज्ञानिक विचारों के दौर में महिलाओं को अंध श्रद्धा में डुबो कर ग़ुलाम बनाया जा रहा है, दूसरी ओर लाडली बहन योजना, महतारी वंदन योजना के नाम पर चंद रुपया देकर ग़ुलाम बना रहे हैं महिलाओं के सम्मान और अस्तित्व के साथ कुठारा घात है लोकतंत्र का अपमान है।

ऊपर बताए गए सभी मुद्दों से अधिकतर महिलाओं को जान बुझ कर वंचित किया जा रहा है क्या इन मुद्दों से जुड़े सवाल 8 मार्च महिला दिवस पर नहीं उठाए जाने चाहिए ? पर क्या इन सवालों को उठाने की उम्मीद बाजारू महिला दिवस के मंच से किया जा सकता है?

जब राज्य में महिला दिवस मनाया जाता है तो वे महिलाएं कैसे महिला दिवस में शामिल हो पाएंगी जहां राज्य के ही पुलिस फ़ोर्स द्वारा महिलाओं का आए दिन बलात्कार किया जाता है या फिर माओवादियों के नाम झूठे आरोप पर  बेगुनाह महिलाओं को मार दिया जाता है।

उदाहरण के रूप में आफ़्सपा (AFSPA) के समय और और सलवा जुडूम के समय नॉर्थ ईस्ट और बस्तर में लगातार रेप का घटना बहुत बड़ा उदाहरण है। इसी तरह एक महिला मजदूर किसी पूंजीपति या उनके कठपुतलियों के द्वारा आयोजित किए महिला दिवस में कैसे शामिल हो सकती है, जिसका सारा पूंजी उस मजदूर महिला के ख़ून पसीने के गढ़ी कमाई की लूट से बना हो।

इस बात से यह बिल्कुल स्पष्ट है की वास्तव में राज्य और छोटे बड़े पूंजीपतियों या एक वर्ग विशेष द्वारा मनाए जाने वाले महिला दिवस कभी ९०% मेहनतकश महिलाओं का प्रतिनिधित्व नहीं कर सकती।

आज के समय में बाज़ार ने अपने फ़ायदे के लिए महिला दिवस को महज़ एक त्योहार बना कर रखा है जिसमें महिलाओं का ही इस्तेमाल किया जा रहा है। महिला दिवस के अस्तित्व को ही खत्म करने का प्रयास नज़र आता है। कुछ प्रगतिशील संगठन या संस्थाओं के सिवाय आज के दौर में महिला दिवस पर मज़दूर महिला की बात की नहीं की जाती।

हर साल 8 मार्च को मनाया जाने वाला यह दिन मूल रूप से अंतर्राष्ट्रीय मज़दूर महिला दिवस के रूप में जाना जाता था। यह बदलाव का आह्वान था और आज भी है, जिसकी जड़ें मज़दूर और शोषित  वर्ग की महिलाओं के सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक अधिकारों के लिए श्रमिक आंदोलन के संघर्ष में हैं।

आज ज़रूरत है कि महिला आंदोलन को पूंजीवाद और साम्राज्यवाद के ख़िलाफ़ आंदोलन का फिर से हिस्सा बनाया जाए।महिलाओं के लड़ाई और एकता पितृसत्ता के ख़िलाफ़ उतना ही ज़रूरी है जितना पूंजीवाद के ख़िलाफ़।

लेकिन भारत जैसे देशों में, जहां प्रतिक्रियावादी और धार्मिक कट्टरपंथी फासीवादी शासन विद्यमान है, वहां महिलाओं की स्थिति सबसे दयनीय है। ऐसे माहौल में महिलाओं के प्रति घृणा और पितृसत्तात्मक मानसिकता समाज में पूरी तरह हावी है। भारत इसका एक विशिष्ट उदाहरण है, जहां दलितों, पीड़ितों, आदिवासियों और विशेष रूप से मेहनतकश वर्ग की महिलाओं और मुस्लिम महिलाओं की गरिमा और उनके मौलिक मानवधिकारों को शासन के तहत बर्बरता से कुचला जा रहा है।

 8 मार्च पर उन तमाम मुद्दों पर भी ध्यान देना और सवाल उठाने की ज़रूरत है जहां महिलाएं आज भी अपने-अपने जगहों पर अपने अधिकारों के लिए अलग-अलग रास्ते अपनाकर लड़ रही हैं।

अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस को क्रांतिकारी रूप से मनाए जाने की ज़रूरत है, सभी महिलाओं को अपने अधिकारों के रक्षा लिए एकजुट होने का समय है और हमें उन शहीदों को याद करने की ज़रूरत है जिन्होंने महिला अधिकारों के लिए संघर्ष किया और तमाम भेदभाव को समाप्त करने के लिए लड़ाई लड़ी।

(रचना देहरिया स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

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