Tuesday, March 19, 2024

आरक्षण कोई गरीबी उन्मूलन कार्यक्रम नहीं है

जब भी हमारे देश में जाति, जातिगत हिंसा और जातिगत भेदभाव की बात शुरू होती है तो यह आरक्षण तक पहुंच जाती है और अंतत: जनता के इतने बड़े हिस्से का ऐतिहासिक उत्पीड़न चर्चा से गायब हो जाता है और पूरे मसले को आरक्षण बनाम गरीबों के हक़ में तब्दील कर दिया जाता है। अखबार रोजाना जातीय हिंसा की खबरों से भरे पड़े होते है लेकिन चर्चा होने पर लोग जाति को ही ख़ारिज कर देते है और तर्क दिया जाता है कि अब परिस्थितियां बदल गई है। उच्च पदों पर आसीन कुछ दलितों के उदहारण देकर यह सिद्ध करने की कोशिश की जाती है कि जैसे सब बराबर हो गए है।  फिर उदाहरण दिए जाते है सामान्य जातियों से कुछ गरीबों के और उनको खड़ा कर दिया जाता के पूरी आरक्षण व्यवस्था के निषेध में। सामान्यता इस पूरी प्रक्रिया में बड़े ही सुविधापूर्ण तरीके से जाति की पूरी क्रूर व्यवस्था को ही नज़रअंदाज किया जाता है। 

परिणामस्वरुप एक बड़ी चर्चा समाज में जानबूझ कर प्रचारित की जा रही है कि आरक्षण का आधार आर्थिक होना चाहिए ताकि सब जरुरतमंदों को इसका फायदा मिले। जातिगत आरक्षण में सभी जरुरतमंदों को इसका लाभ नहीं मिल पाता है। हालांकि यह भुला दिया जाता है कि जातीय आरक्षण का लाभ लेने वाले व्यक्तियों को क्या जातीय भेदभाव का शिकार नहीं होना पड़ता है। इस तरह हमारे देश में संवैधानिक बाध्यता के तहत आरक्षण रूपी सकारात्मक कार्रवाई (अफर्मटिव ऐक्शन) का सही मकसद और जातीय व्यवस्था के सच को भी छुपाने का प्रयास किया जाता है। 

इन दिनों एक बार फिर यह चर्चा जोरों पर है। इसकी वकालत करने बाले लोग माननीय सुप्रीम कोर्ट के आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों के लिए आरक्षण पर आए निर्णय का इस्तेमाल आरक्षण की पूरी अवधारणा पर हमला करने के लिए कर रहे है। माननीय उच्चतम न्यायालय की संवैधानिक पीठ के आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों के लिए आरक्षण को सही ठहराने के विभाजित निर्णय पर बहुत कुछ लिखा जा चुका है, उसे दोहराने की कोई आवश्यकता नहीं। केवल एक बात रेखांकित करनी है कि माननीय उच्चतम न्यायालय की संवैधानिक पीठ में आर्थिक तौर पर आरक्षण पर कोई भी विभाजन नहीं था। पांचों न्यायाधीश इस पर एकमत थे कि आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों को आरक्षण मिलना चाहिए और यह संविधान के मूल रूप के अनुसार ही है। विभाजन केवल इस बात को लेकर था कि क्या दलितों, आदिवासियों और अन्य पिछड़ा वर्ग के आर्थिक तौर पर कमजोरों को इस आरक्षण का लाभ मिलेगा या नहीं।

संसार के सभी समाजों में किसी न किसी तरह का भेदभाव होता रहा है। जैसे नस्ल और चमड़ी के आधार पर ऐतिहासिक भेदभाव। इसका परिणाम यह होता है कि समाज से कुछ समूह आर्थिक, शैक्षणिक और राजनितिक तौर से पिछड़ जाते है। समाज में इन समूहों का बराबरी पर लाने के लिए और भेदभाव पर अंकुश लगाने के लिए अफर्मटिव ऐक्शन लागू किये जाते है। सकारात्मक कार्रवाई (अफर्मटिव ऐक्शन) का मतलब ही है ऐसे प्रावधान या प्रक्रियाएं जिनका मकसद समाज में लोगो के बीच अवैध भेदभाव को खत्म करना, इस तरह के पूर्व भेदभाव के परिणामों को दूर करना और भविष्य में इस तरह के भेदभाव को रोकना है। यह किसी ऐसे समूह को चिन्हित कर लाभ पहुँचने का कार्य है जो सामाजिक रूप से वंचित रहे हैं और वहाँ की संस्कृति में भेदभाव का शिकार रहे हैं।

हमारे देश में समाज में भेदभाव और शोषण का हथियार रहा है वह है जाति और इसका स्वरुप बाकी देशों से अलग है। हमारे यहां जाति केवल भेदभाव का साधन ही नहीं है बल्कि हिन्दू समाज का आधार है और यह समाज में संसाधनों और शक्तियों के घोर असमान वितरण को न केवल सुनिश्चित करता है बल्कि न्योचित भी ठहराता है। असल में तो समाज के मेहनतकश जनता का बड़ा हिस्सा शूद्र और अतिशूद्र हिन्दू समाज के चतुर्वर्ण का भाग ही नहीं है। इस लेख का मक़सद जाति व्यवस्था की व्याख्या करना नहीं है बल्कि इस व्यवस्था के चलते जो दलित और आदिवासी हज़ारो वर्ष हाशिये पर धकेल दिए गए थे, उनको समाज की मुख्य धारा में लाने के लिए संविधानिक आरक्षण के प्रावधान पर जो हमला हो रहा है उस पर चर्चा करना है।

पहली बात तो यह है कि केवल आरक्षण से अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों का सशक्तिकरण नहीं होने वाला बल्कि इसके लिए अन्य बहुत से प्रयास भी आरक्षण के साथ करने की जरुरत है।  दूसरा आरक्षण का मक़सद केवल आर्थिक सशक्तिकरण नहीं है। आरक्षण एक बहुआयामी प्रयास है जिसमे वंचित तबकों का प्रतिनिधित्व शिक्षा और सरकारी रोजगार में बढ़ता है। आरक्षण का लाभ केवल  लाभार्थी तक सिमित नहीं रहता बल्कि परिवार और समुदाय के बाकी लोगो तक भी पहुँचता है और उनके लिए भी बंद दरवाजे खुलते है। जब वंचित जातियों के लोग नीति निर्धारण में पहुंचते है तो ज्यादा समावेशी नीतियां बनती है। आरक्षण का दीर्घकालीन मकसद है लाभार्थी का व्यक्तिगत और सामूहिक सामाजिक उत्थान होना। सामाजिक बराबरी एक महत्वपूर्ण लक्ष्य है क्योंकि जातीय भेदभाव संसाधनों से तो वंचित जातियों को महरूम करता ही है इसका परिणाम सामाजिक दासता भी  होती है।

इसलिए आर्थिक आरक्षण के पैरोकारों को यह समझना चाहिए कि आरक्षण कोई गरीबी उन्मूलन कार्यक्रम नहीं है जिसका मकसद व्यक्तियों या परिवारों की गरीबी हटाना। इसके लिए कोई उदाहरण देने की आवश्यकता नहीं है की आरक्षण से आर्थिक फायदा तो वंचित जातियों को मिल जाता है परन्तु सामाजिक बराबरी के लिए एक लम्बी प्रक्रिया से गुजरान पड़ेगा। क्या हम जानते नहीं कि उच्च पदों पर काम कर रहे दलितों के प्रति उनके अधिनस्थो में अनेकों जातीय पूर्वाग्रह होते है। देश के उच्च शिक्षण संस्थानों में आर्थिक तौर से अच्छे दलित छात्रों और अध्यापकों को भी जातीय भेदभाव शिकार होना पड़ता है।

आगे बढ़ने से पहले यह स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों के लिए 10% आरक्षण का विरोध हम नहीं करते है। हमारा यह मानना है कि समाज से गरीबी दूर होनी चाहिए और संसाधनों के आभाव में गरीब परिवार शिक्षा से पिछड़ जाते है और फिर रोजगार की दौड़ से भी बाहर ही हो जाते है। इसलिए उनको आगे बढ़ने के लिए एक अतिरिक्त मदद (सकारात्मक कार्रवाई) की आवश्यकता है। लेकिन समर्थन करते हुए भी यह बहुत जरुरी हो जाता है कि संविधान में प्रावधान लिए गए आरक्षण की सही अवधारणा को मज़बूती से दोहराया जाए । 

सरकार द्वारा 2019 में संविधान के 103वे संसोधन के लागू करने और अब माननीय उच्चतम न्यायालय द्वारा इसे सही ठहराने पर हमारे देश के नागरिकों, मीडिया और बुद्धिजीवियों की प्रतिक्रिया पर गौर करे हमारे समाज का जातिवादी चेहरा ही उभर कर सामने आएगा। हमारे अखबार और टेलीविज़न चैनल आरक्षण के खिलाफ चर्चा छेड़ने का एक भी मौका भी नहीं छोड़ते, यह बात अलग है कि जातीय हिंसा और भेदभाव की खबरें कभी इनकी सुर्खियां नहीं बनती। देश में कई बुद्धिजीवी मजबूती से अपना पक्ष रखते है कि वह सैद्धांतिक रूप से आरक्षण के खिलाफ है। वह ऐसा पेश करते है जैसे वह सभी तरह के आरक्षण के खिलाफ है। मण्डल कमीशन लागू होने पर पूरे देश में उग्र और हिंसक विरोध हुए थे। देश के कई शिक्षण संस्थानों में ‘यूथ फॉर इक्वलिटी’ जैसे कई संगठन बने थे और आज भी काम कर रहें है। लेकिन आर्थिक तौर पर कमजोर लोगो के लिए आरक्षण लागू होने पर कोई विरोध नहीं। आरक्षण को बराबरी के सिद्धांत के विपक्ष में खड़ा करने वाले सिद्धांतकार प्रसन्नता से शांत बैठे है। 

अब किसी को भी तथाकथित मेरिट की चिंता नहीं सता रही। हालाँकि जब से EWS आरक्षण लागू हुआ है कई उदाहरण सामने आए है जहाँ शिक्षण संस्थानों में प्रवेश परीक्षाओं में अन्य पिछड़ा वर्ग से कम अंक वाले छात्रों का भी प्रवेश हुआ है। परन्तु मेरिट के चिंता करने वाले द्रोणाचार्य कहाँ गायब है।  सोशल मीडिया पर भी कोई हैशटैग नहीं ट्रेंड करवाया गया। आखिर क्यों? क्योंकि जब आरक्षण प्रभावशाली जातियों के लिए है तो सब सही है। लेकिन अगर देश की मेहनतकश परन्तु वंचित जातियों को उनका हिस्सा मिले तो इससे योग्यता का अनादर होता है। अजब पाखंड है यह। 

हालांकि यक्ष प्रश्न तो यह भी है कि आज तक अदालतों ने आरक्षण के कोटे की सीमा 50% से ऊपर कभी नहीं जाने दी। एक तरह से इंदिरा साहनी एवं अन्य बनाम केंद्र सरकार केस के बाद से यह स्थापित हो गया था कि आरक्षण की सीमा को 50% से ऊपर बढ़ाना संभव ही नहीं लेकिन वर्तमान मामले में उच्चतम न्यायालय ने सब पलट ही नहीं दिया बल्कि इसकी बड़ी नायाब व्याख्या भी की।  

इससे पहले आरक्षण लागू करवाने के लिए बड़े ही कड़े मापदंड अपनाये जाते थे। अदालतों का भी यही रूख रहता था। मसलन अगर किसी जाति को अनुसूचित जाति के लिए आरक्षण का लाभ मिलना है तो इसकी पूरी परख होनी चाहिए कि जाति अत्यंत पिछड़ी है। इसके लिए तमाम तरह के मापदंड है। यह ठोस सबूत के साथ समर्थित होना चाहिए कि इस तरह से पहचाना गया समूह ऐतिहासिक तौर से वंचित है और कम प्रतिनिधित्व से ग्रस्त है, जो आरक्षण की आवश्यकता के लिए पर्याप्त महत्वपूर्ण है। लेकिन EWS के लिए आरक्षण लागू करते हुए न तो सरकार ने और न ही उच्चतम न्यायालय ने ऐसी कोई कड़ी शर्त रखी। हालांकि ऐसा भी प्रतीत होता है कि यह आर्थिक तौर से अति पिछड़ों के लिए है ही नहीं।

EWS आरक्षण का लाभ लेने किये लिए सालाना 8 लाख या 70 हज़ार मासिक आमदनी की सीमा बहुत कुछ बयान करती है। मासिक 70 हज़ार रुपये आमदनी वाला अगर गरीब है तो उन करोड़ों लोगों को हम क्या कहेंगे जिनकी मासिक आय 15 हज़ार से भी कम है। देश में नागरिकों की औसत आय सालाना 1.5 लाख रुपये है और 2.5 लाख सालाना आय पर तो इनकम टैक्स देना पड़ता है। EWS आरक्षण के लिए पात्रता की शर्ते पूरी तरह से निराधार है। वैसे तो SC/ST आरक्षण की कड़ी आलोचना समाज के ठेकेधार करते है कि इसका फायदा तो गरीब दलितों और आदिवासियों को नहीं मिल पाता परन्तु EWS  के नाम पर उच्च जातियों में से आर्थिक रूप से संपन्न वर्ग को सीधा आरक्षण पर इन तथाकथित तर्कवादियों के होंठ सिल गए हैं। हो भी क्यों न शिक्षा और रोजगार में भी बाकियों का मारने का कानूनी अधिकार जो मिल गया है।

दलितों, आदिवासियों और अन्य पिछड़ा वर्ग के गरीबों को EWS कोटे से बाहर करना भी गहरी चिंता पैदा करता है। इसके लिए तो किसी शोध की जरुरत नहीं है कि जिनको शिक्षा और संसाधनों से महरूम रखकर सामाजिक हीनता उनमे भर दी गई हो, वही सबसे ज्यादा गरीब होंगे। जब आधार आर्थिक है तो फिर जाति के आधार पर भेदभाव क्यों। हालाँकि उच्चतम न्यायालय की पीठ के बहुमत के फैसले में इसके लिए स्वर्ण जातियों में वर्गीकरण का तर्क दिया गया है परन्तु यह ज्यादा यक़ीनी नहीं लगता। सिन्हो रिपोर्ट के अनुसार भी गरीबो में से केवल 5.4 प्रतिशत ही सामान्य जातियों से आते है फिर उनके लिए 10 प्रतिशत का आरक्षण क्यों ?

ऐतिहासिक रूप से आरक्षण का मक़सद ऐतिहासिक भेदभाव से उत्पन्न होने वाले सामाजिक और आर्थिक पिछड़ेपन और गैरबराबरी को दूर करते हुए एक बराबरी का समाज बनाना होता है। हमारे देश में यह भेदभाव व्यक्तियों नहीं बल्कि जाति रूपी सामाजिक समूहों के साथ हुआ है इसलिए व्यक्ति की पहचान उसकी जाति बन गई है।  इसी कारण से गैर बराबरी और शोषण को ख़त्म करने के लिए आरक्षण के लाभार्थी के तौर पर जाति चिन्हित की जाती है। 

इसके विपरीत ईडब्ल्यूएस आरक्षण स्पष्ट रूप से व्यक्तिगत आर्थिक स्थिति पर जोर देता है, जो सामाजिक समूह की पहचान से जुड़ा नहीं है। चिंता इस बात की भी है कि यह ईडब्ल्यूएस आरक्षण का निर्णय, समूह-आधारित आरक्षण की नीति में एक मौलिक बदलाव की शुरुआत कर इसे व्यक्तिगत केंद्रित कर देगा। सीधे शब्दों में कहें तो संवैधानिक तौर पर आरक्षण का आधार जाति है न की आर्थिक। उच्चतम न्यायालय के निर्णय और निर्णय के बहुमत के दृष्टिकोण की टिप्पणी चिंता पैदा करती है। वर्तमान परिवेश को देखते हुए इसके खतरे अधिक है कि भविष्य में आरक्षण का आधार के लिए आर्थिक पहलू को सामाजिक जाति पर तरजीह दी जाए।

जिस तरह से वर्तमान में हमारे देश में राजनीतिक सरक्षण में मनुवादी विचार जातिवाद को फिर से स्थापित करने के लिए संविधान पर खुले हमले कर रहा है,  EWS आरक्षण से शुरू हुआ यह चलन जातिगत आरक्षण के खात्मे की तरफ ही बढ़ता नज़र आ रहा है। एक तरफ जाति को मजबूती से पुनस्थापित किया जा रहा है जो दलितों और आदिवासियों पर बढ़ते हमलो में परिलक्षित हो रहा है और दूसरी तरफ आरक्षण को ख़त्म करने की कवायद चल रही है ।

यह एक गहरा चिंतन का विषय है लेकिन वर्तमान समय में सरकार की आर्थिक और सामाजिक नीति को देखते हुए पूरी प्रक्रिया ही बेमानी नज़र आती है। उपरोक्त चर्चा अपने जगह महत्वपूर्ण है परन्तु जब बात आती है पूरी आरक्षण नीति को लागू करने की तो हम पाते है देश में व्यापक निजीकरण चलते सार्वजानिक संस्थान तो गिने चुने रह गए। जब सार्वजानिक संस्थान ही नहीं बचेंगे तो आरक्षण कहां मिलेगा। हालत तो यह है कि उच्च शिक्षा के क्षेत्र में सार्वजानिक संस्थानों में भी फीस इतनी ऊँची हो गई है कि आरक्षण के वावजूद छात्र अपनी पढ़ाई पूरी नहीं कर पाते। निजी क्षेत्र में तो आरक्षण क्या किसी भी तरह के अफर्मटिव ऐक्शन का सवाल ही पैदा नहीं होता। यहाँ तो आपकी जाति देख कर आपको बाहर ही बैठाया जाता है। 

इसलिए जहाँ आरक्षण की सही अवधारणा की रक्षा करने के लिए संघर्ष की जरुरत है वहीं सरकार की आर्थिक नीति जो निजीकरण के जरिये वंचितों के लिए अवसर ख़त्म कर रही है के खलाफ भी निरंतर लड़ाई की दरकार है। सामाजिक न्याय की यह लड़ाई दोनों मोर्चों पर लड़नी होगी।

दलित, आदिवासी और अन्य पिछड़ा वर्ग जो मेहनतकश जनता का बड़ा हिस्सा है उसे शिक्षा, रोजगार और संसाधनों जिनमे ज़मीन सबसे महत्वपूर्ण है में अपनी हिस्सेदारी किसी भी कीमत पर नहीं छोड़नी होगी चाहे इसके लिए कोई पुरोहित या फिर मनु भगवान जी भी खुद आकर उसे जाति व्यवस्था का पालन करते हुए मोक्ष की शिक्षा दे। मेहनकश का मोक्ष तो संघर्ष से ही होगा और यह सामाजिक न्याय की लड़ाई के बिना संभव नहीं। देश के शासक हमारी एकता को तोड़ने के लिए तमाम हथकंडे करेंगे। भाजपा तो दलितों में भी एक जाति को दूसरे के खिलाफ खड़ा करके चुनाव जीतने में कुशल हो गई। मुद्दा तो सीधा है जिसका समाज में जो प्रतिनिधित्व है, उसके अनुसार देश के संसाधनों और राजनीती में उतनी हिस्सेदारी। इसके लिए जरुरी है जाति जनगणना।

(विक्रम सिंह ऑल इंडिया एग्रीकल्चर वर्कर्स यूनियन के संयुक्त सचिव हैं।)

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