आखिर तमिलनाडु में हिंदी को लेकर भारी विरोध की वजह क्या है?

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2011 की जनगणना के आंकड़ों से जानकारी प्राप्त होती है कि करीब 43.6% भारतीयों की मातृभाषा हिंदी है। इसके अलावा 55% भारतीय इसे अपनी दूसरी भाषा के तौर पर मान्यता देते हैं। इसके बावजूद, तमिलनाडु ( जहां मात्र 1.9% लोग ही हिंदी समझते और बोल सकते हैं) के अलावा, दक्षिण के अन्य राज्य और पूर्वोत्तर के अधिकांश हिस्से में अधिकांशतः गैर-हिंदी भाषी लोग रहते हैं।

स्वतंत्रता संघर्ष के दौरान 30 के दशक और आज़ाद भारत में 60 के दशक के हिंदी विरोध को छोड़ दें तो हाल के दशकों में दक्षिण एवं पूर्वोत्तर के राज्यों में भी हिंदी की स्वीकार्यता बढ़ती देखी गई है। लेकिन, आज दक्षिण प्रदेश, विशेषकर तमिलनाडु एक बार फिर केंद्र सरकार के द्वारा हिंदी थोपे जाने का आरोप लगाते हुए हिंदी भाषा के खिलाफ मुहिम तेज करता जा रहा है।

इसे एक विडंबना ही कह सकते हैं कि उत्तर भारत को अक्सर दक्षिण भारत की खबर ही नहीं होती, लेकिन दक्षिण के बारे में ऐसा नहीं है। इसकी वजह देश की राजधानी दिल्ली है, जिसके इर्द-गिर्द देश की राजनीति, अर्थनीति और मीडिया चक्कर काटती रहती है। अभी फिलहाल समाचारपत्रों में यही देखने को मिल रहा है कि तमिलनाडु की डीएमके सरकार राज्य के स्कूलों में त्रि-भाषा फार्मूले को लागू न करने पर अड़ी हुई है। लेकिन मामला इससे कहीं पेचीदा है। 

यह विवाद असल में राष्ट्रीय शिक्षा नीति (एनईपी 2020) को लागू करने से जुड़ा है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति (एनईपी) 2020 के तहत केंद्र की मोदी सरकार देश के स्कूलों में तीन-भाषा के ढांचे को पूरे देश में लागू करना चाहती है, जिसे तमिलनाडु के द्वारा लगातार नकारा जा रहा था।

तमिलनाडु के पूर्व वित्त मंत्री त्यागराजन का इसके बारे में तर्क है कि तमिलनाडु पिछले 7 दशक से अपने दो-भाषा वाले फॉर्मूले पर अमल करती आई है, जिसके परिणाम देश के किसी भी राज्य से बेहतर रहे हैं। यह एक जांचा-परखा और व्यावहारिक दृष्टिकोण है, जो क्षेत्रीय पहचान के साथ-साथ वैश्विक एकीकरण को संतुलित करता है।

लेकिन त्रि-भाषा फार्मूले को लागू न करने को आधार बनाकर केंद्र सरकार ने समग्र शिक्षा योजना के तहत तमिलनाडु के हिस्से की निधि को जारी किये जाने पर रोक लगा दी है। समग्र शिक्षा योजना एक केंद्र प्रायोजित कार्यक्रम है, जिसके तहत नर्सरी से कक्षा 12 तक स्कूली शिक्षा का वित्त पोषण किया जाता है।

वित्त वर्ष 2024-25 के लिए तमिलनाडु के लिए आवंटन राशि 3,586 करोड़ थी, जिसमें केंद्र का योगदान 2,152 करोड़ (राज्य के साथ 60:40 का बंटवारा) है। इस फंड से शिक्षकों का वेतन, बुनियादी ढांचे, पाठ्यपुस्तकों, वर्दी और छात्र कल्याण योजनाओं को कवर किया जाता है। 

इस फंड के अवरुद्ध होने से 40 लाख से अधिक छात्र और 32,000 शिक्षक प्रभावित होते हैं। यह मामला तब तूल पकड़ा, जब फरवरी 2025 में केंद्रीय शिक्षा मंत्री धर्मेंद्र प्रधान ने साफ़ शब्दों में कह दिया कि जब तक तमिलनाडु एनईपी को “लैटर एंड स्पिरिट” स्वीकार नहीं करता, तब तक यह धनराशि जारी नहीं की जाएगी। इसके साथ ही उन्होंने राज्य पर संवैधानिक मानदंडों की अवहेलना करने का आरोप मढ़ दिया। 

बता दें कि गुजरात और उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों को उनकी धनराशि मिल चुकी है, क्योंकि इन राज्यों ने केंद्र द्वारा साझा की गई MOU पर हस्ताक्षर कर दिए थे, जहां त्रि-भाषा फार्मूले के तहत संस्कृत का चलन रहा है। तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन का आरोप है कि केंद्र कथित तौर पर तमिलनाडु के हिस्से में आने वाले 2,152 करोड़ रूपये की धनराशि भाजपा शासित राज्यों को राजनीतिक दबाव के तौर पर दे रहा है। 

यहां बता दें कि तमिलनाडु दशकों से राज्य में दो-भाषा नीति (तमिल और अंग्रेजी) पर अमल करता आ रहा है, जिसकी जड़ें 1930 के दशक से हिंदी विरोधी आंदोलन में रही हैं और 1968 में सीएन अन्नादुरई के तहत इसे औपचारिक स्वरुप प्रदान किया गया था। राज्य तीन-भाषा फॉर्मूले को तमिल और अंग्रेजी के साथ हिंदी को अनिवार्य करने के रूप में देखता है। वह इसे केंद्र सरकार के द्वारा क्षेत्रीय भाषाई पहचान को खतरे में डालने वाला एक डिक्टेट समझता है। 

मुख्यमंत्री स्टालिन इसे मूर्खतापूर्ण ब्लैकमेलिंग की संज्ञा दे रहे हैं। उन्होंने इसके खिलाफ तमिल प्रतिरोध की चेतावनी तक दे डाली है। वहीं स्कूली शिक्षा मंत्री अंबिल महेश पोय्यामोझी इसे पीएम श्री योजना को मजबूर करने का प्रयास करार देते हैं, और उन्होंने इसे एनईपी स्वीकृति के समतुल्य बताया है।

तमिलनाडु को 2024-25 समग्र शिक्षा की किश्तें अभी तक नहीं मिली हैं, और सत्तारूढ़ डीएमके सहित प्रमुख विपक्षी दल एआईएडीएमके और अन्य दल केंद्र सरकार के इस तानाशाही रवैये के खिलाफ एकजुट दिख रहे हैं। फिलहाल तमिलनाडु केंद्र के रुख को चुनौती देते हुए अपनी शिक्षा प्रणाली को स्वतंत्र रूप से वित्तपोषित कर रहा है।

हिंदी थोपे जाने के विवाद के साथ ही दक्षिण के राज्यों की ओर से एक और प्रश्न बड़ी तेजी से उभर रहा है, और वह है उत्तर भारत को अक्सर दक्षिण भारत की तुलना में आर्थिक रूप से पिछड़ा क्यों माना जाता है। यदि उत्तर भारत अपनी शिक्षा नीति के बल पर पिछले सात दशकों में दक्षिण के मुकाबले आर्थिक, शैक्षणिक मामले में उच्चतर स्थिति में होता, तब सहज रूप से हिंदी को अपनाने में कोई दिक्कत नहीं होती। लेकिन हमारे देश के नीति-नियंताओं, जिन्हें संख्या के लिहाज से हमेशा उत्तर भारत से ही चुना जाता रहा है, ने उत्तर भारत की स्थिति सुधारने के बजाय बिगाड़ी ही है। 

आज बिहार, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और झारखंड से पलायन दिल्ली, गुजरात, महाराष्ट्र और पश्चिम बंगाल से कर्नाटक, तमिलनाडु और केरल की ओर बढ़ा है। कुछ वर्ष पूर्व, बिहार के एक फर्जी यूट्यूबर के द्वारा तमिलनाडु में कार्यरत प्रवासी बिहारी श्रमिकों के साथ दुर्व्यहार के फेक वीडियो के चलते हजारों की संख्या में प्रवासी श्रमिकों के पलायन की खबर देश देख चुका है। यह बताता है कि सिर्फ इंडस्ट्रियल सेक्टर में ही नहीं बल्कि तमिलनाडु के ग्रामीण अंचलों में कृषि एवं ईंट-भट्टे पर भी उत्तर भारतीय प्रवासियों की तादाद बढ़ी है। 

अगर हिंदी भाषा को सरकार वास्तव में महत्व देती, और इसे महज संस्कृतनिष्ठ सरकारी भाषा का रूप देकर बोझिल और बेकार न बनाती तो संभव है कि आज इसे सरकारी कामकाज की भाषा का स्थान मिल गया होता। सरकारी विभागों और विभिन्न राज्य सरकारों की पत्रावलियों से स्पष्ट नजर आता है कि हिंदी भाषा का इस्तेमाल कर किस प्रकार प्रशासन आम जन की तकलीफ कम करने के बजाय दुरूह कर रहा है। यही कारण है कि हर जगह सरकारी हिंदी के साथ अंग्रेजी का व्यवहार लगभग अनिवार्य है। स्वंय सरकार और हिंदी भाषा विज्ञानी, लेखक और साहित्यकार हिंदी के प्रति आम पाठकों में अरुचि पैदा कर रहे हैं।

वो तो भला हो बॉलीवुड और पिछले एक दशक से सोशल मीडिया के प्रादुर्भाव का, जिसने हिंदी को जिंदा रखा है। वर्ना, हकीकत तो यह है कि 90 के दशक से ही उत्तर भारत में आम मध्य वर्गीय परिवार अपने बच्चों के भविष्य को उज्ज्वल बनाने के लिए इंग्लिश मीडियम स्कूलों का रुख करने लगे थे। यह परिघटना केवल महानगरों और शहरों तक सीमित नहीं रही, बल्कि दूर-दराज के गांव और कस्बों तक में यह एक छुतहा स्थायी बीमारी के तौर पर जड़ जमा चुकी है। 

आज उत्तर भारत में एक गरीब मां-बाप को भी लगता है कि उसके बच्चे अगर अंग्रेजी में गिटिर-पिटिर करने लग जायें तो समझिये, उनके वर्षों की मेहनत साकार हो गई है। इसके लिए वे अपना पेट काट सस्ते और अयोग्य शिक्षकों वाले अंग्रेजी माध्यम के प्राइवेट स्कूलों में अपने बच्चों का दाखिला करा रहे हैं, जबकि सरकारी स्कूल बच्चों के अभाव में लगातार बंद हो रहे हैं। 

इसीलिए, तमिलनाडु के पूर्व वित्त मंत्री पलानीवेल त्यागराजन जब अपने राज्य में दो-भाषा नीति की तरफदारी करते हुए इसे सांस्कृतिक गौरव, आर्थिक व्यावहारिकता और वर्षों के अनुभव का परिणाम बताते हैं, तो उनकी बात में दम नजर आता है। त्यागराजन तर्क पेश करते हैं कि दो-भाषा फॉर्मूले ने तमिलनाडु के लिए सांस्कृतिक और आर्थिक दोनों अर्थ में अपना महत्व साबित किया है। उन्होंने जोर देते हुए कहा है कि मातृभाषा के रूप में तमिल और वैश्विक संपर्क भाषा के तौर पर अंग्रेजी पर तमिलनाडु के फोकस ने “बेहद शानदार परिणाम” दिए हैं, जिससे राज्य हिंदी जैसी अतिरिक्त भाषा के बगैर ही देश में अग्रणी बन गया है। 

पिछले कुछ वर्षों से दक्षिण के राज्य संघवाद की बहस को भी आगे बढ़ाने में लगे हुए हैं, विशेषकर जीएसटी के संदर्भ में। 2017 में जीएसटी को लागू कर पूरे देश में बिक्रीकर, VAT और एक्साइज ड्यूटी को केंद्रीकृत कर दिया गया था, जिसके लिए सभी राज्य सरकारों ने रजामंदी दिखाई थी।

केंद्र की ओर से 2022 तक राज्यों को आय में हानि की भरपाई का आश्वासन देकर यह सहमति बनाई गई थी। आज आर्थिक, राजनीतिक और क़ानूनी शक्तियां अधिकाधिक केंद्र के हाथों में जा चुकी हैं, जबकि स्थानीय प्रश्नों पर राज्य सरकारों की जवाबदेही उन्हें आम लोगों के सामने अलोकप्रिय बनाती जा रही हैं। 

तमिलनाडु सहित दक्षिण भारत की राज्य सरकारें लगातार इन मुद्दों पर केंद्र के सामने अपना विरोध दर्ज कर चुकी हैं। 2026 तक लोकसभा सीटों के पुनर्गठन की केंद्र सरकार की योजना को लेकर भी दक्षिण के राज्य मुखालफत कर रहे हैं। ऐसे में, NEP 2020 के त्रि-भाषा फार्मूले पर तमिलनाडु के लाखों विद्यार्थियों और शिक्षकों के लिए आरक्षित फंड को रोककर केंद्र की मोदी सरकार सिर्फ आग में घी डालने का काम कर रही है, जो कहीं से भी उचित नहीं है।

(रविंद्र पटवाल जनचौक की संपादकीय टीम के सदस्य हैं।)

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