नेक बनने और बनाने के लिए तरह-तरह से आवाज लगाई जा रही है, नहीं-नहीं आह्वान किया जा रहा है। इस आह्वान से ही साफ-साफ पता चल जाता है कि लोग एक नहीं हैं। एक नहीं हैं लेकिन उन्हें एक हो जाना चाहिए। किस बात के लिए एक हो जाना चाहिए।
लोगबाग यदि एक नहीं हैं तो क्यों एक नहीं है! लोगों के एक और अनेक होने के कारणों पर विचार किया जाना चाहिए। अनेक को ‘नेक नहीं’ समझने के पहले गंभीरता से विचार कर लिया जाना चाहिए।
ऐसा इसलिए भी जरूरी है कि खुद प्रधानमंत्री कह रहे हैं कि ‘एक होने पर सेफ’ यानी ‘सुरक्षित’ रहने की बात कह रहे हैं तो इस बात के निहितार्थ को अच्छी तरह से समझ लिया जाना चाहिए। संसाधनों का अभाव अपनी जगह है।
नीयत में खोट को संसाधनों का अभाव बताकर छिपाया नहीं जा सकता है। समस्या के मूल में अभाव नहीं वितरण का दुर्भाव छिपा है।
एकता का आपदा से बहुत गहरा संबंध होता है। क्या हम किसी आपदा से घिरे हैं! क्या कोई हम आपदा के आस-पास हैं! यह न सवाल है, न अचरज यह तो राजनीतिक हकीकत है।
कुल मिलाकर यह कि एक हो जाने के पहले ‘संवर्धित आपदा’ के चरित्र को समझ लिया जाना चाहिए। चिल-चिल्लाती राजनीति के दौर में यह कहीं अधिक जरूरी है। चुनाव के वातावरण में प्रधानमंत्री दल-बल के साथ यह सब कह रहे हैं।
समझदार लोग मानते हैं कि आपदा है। रोजी, रोजगार का अभाव, बढ़ती हुई बेलगाम हो चुकी महंगाई, शिक्षा, इलाज, भ्रष्टाचार, राजनीति और व्यवस्था का अपराधीकरण, धर्म आधारित ध्रुवीकरण, भेद-भाव, नफरती माहौल, भाई-भतीजावाद, नागरिकों में घटती हुई परस्परता और बढ़ती हुई आक्रमण-प्रति-आक्रमण की प्रवृत्तियों से आपदा सिर पर खड़ी है।
ऐसा नहीं कि भारत के नागरिक के सामने इस तरह की आपदा पहली बार दिखाई दे रही है। लेकिन इस आपदा में उल्लास और अवसर की उपलब्धता तलाश करनेवाले लोगों की राजनीतिक जमात अपनी कुतार्किक शक्ति के साथ सत्ता की राजनीति में सफल हो रही है।
असल में एकता की आवाज में, एक हो जाने के आग्रह और अपील में वोट की राजनीति का रहस्य छिपा है। रहस्य! सच पूछा जाये तो अब यह कोई रहस्य भी नहीं है। लोगों को साफ-साफ समझ में आ गया है कि एकता की इस आवाज में लोगों के जीवनयापन की समस्याओं का कोई समाधान नहीं है।
समाधान क्या है यह भी पता नहीं। विषमताओं के चलते बढ़ती हुई भुखमरी और मारक कुपोषण से जूझती आबादी के मानवाधिकार की ओर नजर डालनेवाले लोग लगातार कम होते जा रहे हैं। विचित्र बात है कि विज्ञान और तकनीक के विकास का लाभ आर्थिक रूप से पीछे रह गई आबादी को नहीं मिलता है।
बल्कि यह कहना अधिक युक्ति-संगत होगा कि विज्ञान और तकनीक के व्यापक इस्तेमाल ने लोगों की वंचना को अत्यधिक तीखा और क्रूर बना दिया है। बस उदाहरण के लिए; विज्ञान और तकनीक के इस्तेमाल से सड़क बनाने के काम में सामान्य मजदूरों की संख्या में भारी कमी आई है।
बेकाम हुए मजदूरों का रोजगार गया और काम पर लगे मजदूरों की मजदूरी आनुपातिक रूप से तो बिल्कुल ही नहीं बढ़ी। लागत में कमी से बढ़ा हुआ मुनाफा कहां गया! बेकाम और काम पर लगे दोनों तरह के लोगों की स्थिति पर नजर डालने से भयावह चित्र सामने आता है।
आदिवासी, पिछड़ा और अल्पसंख्यक समुदाय के नागरिकों की निरंतर गिरती हुई स्थिति चिंतित करनेवाली है। जिन्हें ‘अगड़ा’ कहा जाता है उनकी तो खैर कोई पूछनेवाला ही नहीं है। वैसे देखा जाये तो ‘अगड़ा समुदाय’ से जुड़े अधिसंख्य आबादी की स्थिति भी कोई कम बदतर नहीं है।
दूसरी तरफ ऊंचे लोग भगवान बनने के लिए बिल्कुल तैयार हैं। ऊंचे लोग अपने को मालिक और भगवान मानने लगे हैं। जाहिर है कि दुनिया की बाकी आबादी उन के लिए भक्त या गुलाम होता है। इस तरह का मनोभाव मानसिकता मनुष्यता के पक्ष में तो बिल्कुल ही नहीं है।
दुनिया जिस तेजी से बदल रही है वह बड़ा भयावह है। पहले भूमंडलीकरण का शोर मचानेवाले और भूमंडलीकरण को पूरी दुनिया पर थोपनेवाले विश्व नेतागण अब अपने-अपने अब हित के पीछे परेशान हैं। नये विश्व नेताओं के राष्ट्र-हित की परियोजना में मानव-हित के लिए कोई जगह, नागरिक-हित की कोई परवाह नहीं है।
राष्ट्र-हित में विषमताओं के विषाणु पलते हैं। सच पूछा जाये तो राष्ट्र-हित में ‘हिंदू-हित’ के लिए भी कोई जगह नहीं है। कुछ लोग जरूर साधारण मनुष्य से अपने को भिन्न और श्रेष्ठतर और भिन्न प्रजाति का मानने लगे हैं। ‘हिंदू-हित’ की चिंता करनेवाले बेहतर जानते हैं कि वर्ण-व्यवस्था में इस के लिए पर्याप्त जगह पहले से मौजूद है।
वे इस जगह को बचाने और बनाये रखने की कोशिश में लगे हुए हैं। यह पूंजीपतियों और ढनाढ्यों के भी माकूल है। इस कोशिश के सामने सबसे बड़ी चुनौती कम्युनिस्ट हैं। इसी जगह पर पूंजीपतियों, ढनाढ्यों और ‘हिंदू-हित’ के चिंतक समझदारी से एक दूसरे के साझेदार और हित चिंतक बनते हैं।
इनकी साझेदारी और समझदारी इन्हें सिर्फ कम्युनिस्टों के खिलाफ ही नहीं खड़ी करती है बल्कि समानता की बात करनेवाला कोई भी हो, किसी भी रूप में हो समाजवादी हो, कांग्रेस हो सब के खिलाफ खड़ी कर देती है। समानता की बात करनेवाले भी अब धीरे-धीरे समझदारी से इसी जमीन पर अपनी साझेदारी की पहचान करने लगे हैं।
आज की तारीख में कम्युनिस्ट भले ही मीडिया के प्रवक्ताओं की नजर में कमजोर लगते हों, ‘कम्युनिस्ट रंग और मिजाज’ की ताकत को पूंजीपति और ढनाढ्य कमतर नहीं आंक पाते हैं। मुश्किल यह है कि यह ‘कम्युनिस्ट रंग और मिजाज’ उनके घर में घुसकर बैठा है; मानव स्वभाव बहुत रहस्यमय होता है। इतना रहस्यमय कि वह घाटा उठाने से भी नहीं हिचकता और ‘घाटा फायदे का बड़ा भाई मानता है।’
भारत में ही देखा जाये तो अपने ‘सुखी संसार’ से बाहर निकलकर बुद्ध से लेकर महात्मा गांधी जैसे सामान्य अर्थ में समृद्ध और संपन्न लोगों ने ही गरीबों और विपन्नों के हित की लड़ाई का नेतृत्व किया है। भारत के बाहर भी ऐसे बलिदानियों की अटूट परंपरा है।
इधर जरूर सदेह स्वर्ग द्वार तक पहुंच चुके नव-ढनाढ्यों की जमात परेशान है। जाहिर है परेशानी तो होगी क्योंकि नव-ढनाढ्यों की जमात और उनके राजनीतिक सह-चर इस ‘जननी जन्म-भूमि’ का ‘गुण-गान’ करते हुए खुद को इस धरती का प्राणी नहीं बल्कि किसी अन्य उपग्रह का भावी बाशिंदा मानने लगे हैं।
मजे की बात है न कि अपने को ‘अन्य ग्रह-उपग्रह के भावी बाशिंदा’ मान चुके लोग राष्ट्र-हित की भी बात करते हुए अघाते नहीं हैं। बात है या जाल है! क्या पता!
इधर, ह्वाइट हाउस में डोनाल्ड ट्रंप की वापसी से सदेह स्वर्ग यात्रा की आकांक्षा से भरे लोगों में नये तरीके से उत्साह का संचार हुआ है। विश्व सेठों और अर्थ व्यवस्था के निर्द्वंद्व संचालकों की बाछें खिल गई है। युद्ध और उपद्रव में फंसी दुनिया के लिए ह्वाइट हाउस में डोनाल्ड ट्रंप की वापसी के संकेत पूरी दुनिया के लिए बहुत गहरे हैं।
कहना न होगा कि दुनिया में अमेरिका की राजनीतिक, आर्थिक और वैज्ञानिक हैसियत से कोई इनकार नहीं सकता है। अमेरिका की विभिन्न नीतियों का असर पूरी दुनिया के विभिन्न देशों की सरकारों पर तो पड़ता ही है, जाहिर है कि असर उन देशों के बाशिंदों पर भी सीधा, सरल और सुनिश्चित तौर पर पड़ता है।
असर उन पड़ भी पड़ता है जो किन्हीं कारणों से अपने-अपने देश से जायज और ना-जायज तरीका अपनाकर दूसरे देश में चले जाते हैं और जिन्हें चलती भाषा में ‘घुसपैठिया’ कहा जाता है।
‘घुसपैठिया’ पहले आगंतुक समझे जाते थे। सभी आगंतुकों का सब समय स्वागत ही नहीं होता था, आक्रमण-प्रति-आक्रमण का दौर चलता था। एक बार आक्रमण-प्रति-आक्रमण का दौर समाप्त हो जाने पर आबादी उस भू-भाग का बाशिंदा हो जाती थी।
सभ्यता विकास और दुनिया के कई देशों और आधुनिक राष्ट्रों खासकर भारत और अमेरिका के जत्थावार बसावट की लगभग यही कहानी है। आवा-गमन की जानमारा परिस्थिति भी साहसी मनुष्य के घुमंतू स्वभाव में कभी रुकावट नहीं बन पाई।
असल में मनुष्य के घुमंतू स्वभाव का गहरा संबंध उसके खोजी स्वभाव में है। मनुष्य हमेशा कुछ-न-कुछ खोजता रहता है। खोज में लगे रहना उसके स्वभाव का मूल हिस्सा है।
खोज में लगे रहने के इसी स्वभाव के चलते दुनिया के कई देश खोजे जा सके, मूल रूप से स्पेन के रहनेवाले कोलंबस का नाम और 1492 की कहानी तो सबसे अधिक चर्चा में रही ही है। ठीक चार सौ साल बाद यानी 1893 में स्वामी विवेकानंद की अमेरिका यात्रा और वहां किये गये विख्यात और यादगार भाषण को प्रसंग में भी गंभीरता से देख लिया जा सकता है।
देखा जा सकता है कि किन मूल्यों के बखान के विश्वसनीय आधार पर वह वहां प्रशंसित हो रहे थे! आज भारत में उन जीवन मूल्यों के अपनाव, सहिष्णुता और सह-अस्तित्व की भावनाओं की क्या स्थिति है। भारत में ये गंगा-जमुनी मूल्य यों ही नहीं विकसित हुए थे;
निश्चित ही गंगा-जमुनी संस्कृति के मूल्यों के विकास का रहस्य भारत की विशिष्ट बसावट की कहानियों में छिपा है। खैर, भारत के विशिष्ट बसावट की कहानी तो विश्व विख्यात ही है।
1943 में कम्युनिस्ट इंटरनेशनल के स्थगित होने और राष्ट्रवाद के घमासान के रुकने के बाद भूमंडलीकरण के दौर का सबसे बड़ा आकर्षण यही था कि राष्ट्रवाद के आग्रहों के दबाव में विभक्त हो चुके पूरी पृथ्वी के मनुष्य को एक मानने की भरपूर गुंजाइश भूमंडलीकरण में दिख रही थी।
प्रकृति की भौतिक और मेधा संपदाएं पूरी पृथ्वी पर फैली हुई हैं। इन सब पर प्रत्येक मनुष्य का निर्बाध हक है। भौगोलिक और राजनीतिक रुकावटों को दूर करते हुए मनुष्य जाति के सभी लोगों को ही नहीं, अन्य प्राणियों को भी न्याय मिलने की भरपूर संभावनाएं थी।
खैर वह तो नहीं हुआ। अब तो ऐसा लग रहा है कि भूमंडलीकरण की परियोजना में अंतर्निहित संभावनाओं की उलटी परिस्थिति के सामने मनुष्य जाति को लाकर बड़ी निर्ममता से खड़ा किये जाने की ‘परियोजना’ पर काम हो रहा है। खतरा सिर्फ मनुष्य पर नहीं सृष्टि में सक्रिय मौलिक बनावट, अन्य जीवों और शस्यों पर भी है।
भारत जैसा देश भी घुसपैठिया के सवाल को राजनीतिक वाचालता के साथ उठाता रहा है। विश्व नेताओं के राष्ट्रवाद के खोल में सिमट जाने से एक नये तरह का वैश्विक संकट खड़ा हो रहा है। ह्वाइट हाउस में डोनाल्ड ट्रंप की वापसी के बाद आबादी के बहुत बड़े हिस्से को उन के देश में वापस भेजने की तैयारी जोर-शोर से शुरू हो गई है।
वापस भेजे जाने की इस प्रक्रिया में अन्य देशों के लोगों के साथ-साथ बड़ी संख्या में भारतीय भी शामिल हैं। पूरी दुनिया में इस के क्या-क्या परिणाम होते हैं, देखना दुखद हो तो भी दिलचस्प होगा। वापसी की नीति अमेरिका तक ही सीमित नहीं रहनेवाली है।
कहना जरूरी है कि भारत के लोग कई देशों में हैं। संकेत साफ-साफ समझे जा सकते हैं कि विश्व व्यवस्था और वैश्विक संस्थाओं की नीतियों में भारी परिवर्तन हो रहा है। मनुष्य जाति में पैदा होने के हक या मानवाधिकार का न्यूनतम ध्यान भी इस पूरी वापसी प्रक्रिया में रखा जा सकेगा या नहीं यह तो बाद में ही पता चल सकेगा।
एक बनने, नेक बनने और एक हैं तो सेफ हैं कहनेवाले भारत का सत्ता संस्थान तेजी से बदलती हुई अंतरराष्ट्रीय परिस्थितियों में क्या रुख-रवैया अपनायेगा या अपना सकेगा यह तो बाद में पता चलेगा।
दुनिया के किसी भी देश के लोकतंत्र में दुनिया के किसी भी देश के मनुष्य की बदतर लोकतांत्रिक स्थिति पूरी दुनिया के लोकतंत्र के दावों के भी खंडित होने का स्वयं सबूत होता है।
चाहे वह अपने देश को ‘मदर ऑफ डेमोक्रेसी’ कहने के गुमान में रहे या लोकतांत्रिक देशों के विश्व नेता के रूप में अपने को पेश करे। सावधान! आगे बहुत तीखा मोड़ है, धीरे चलें!
(प्रफुल्ल कोलख्यान स्वतंत्र लेखक और टिप्पणीकार हैं)
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