सोनिया गांधी एक बार फिर कांग्रेस अध्यक्ष बनी। निर्णय सरल नहीं था। पर लिया गया। यह पार्टी की जरूरत थी। अगर कमान उन्हें नहीं दी जाती तो पार्टी बिखरने के कगार पर खड़ी थी। उसकी बड़ी वजह ओल्ड गार्ड खुद थे। एक वजह तो राहुल गांधी की जिद्द भी थी। वे इस बात पर अड़े थे कि अध्यक्ष गांधी परिवार से बाहर का हो। उन्होंने तो फरमान जारी कर दिया था कि गांधी परिवार अध्यक्ष के चुनाव में शामिल नहीं होगा। कार्य समिति वाले दिन सोनिया गांधी ने अध्यक्ष चुनाव वाली समिति में हिस्सा लेने से मना भी कर दिया था।
राहुल गांधी चाहते भी यही थे। यही पार्टी का असल सकंट था। पार्टी के ओल्ड गार्ड उनके इस फरमान को गलत मान रहे थे। सबकी राय थी अध्यक्ष परिवार से ही हो। लेकिन शायद राहुल गांधी भाजपा के राजनीतिक तिलस्म में फंस गए थे। उन्हें लग रहा था कि अगर अध्यक्ष परिवार से बाहर का होगा तो कांग्रेस परिवारवाद के आरोप से बच जाएगी। लेकिन इस दरमियान वे इतिहास देखना भूल गए थे। उनकी इस भूल को राजनीतिक नासमझी कहना ज्यादा सही होगा। वह इसलिए क्योंकि राजनेता इतिहास से सीख लेते हैं, उसे भूलते नहीं। राहुल गांधी ने उससे कुछ सीखा नहीं। वे भाजपा के आरोप-प्रात्यारोप में फंसे और कांग्रेस को परिवार से बाहर धकेलने पर उतारू हो गए।
इससे कांग्रेस में हड़कंप मच गया। यह स्वभाविक था। पार्टी के अंदर और बाहर हर कोई जानता है कि गांधी परिवार ही कांग्रेस की धुरी है। उसके बिना कांग्रेस की कल्पना की नहीं जा सकती। इतिहास गवाह है, जब कभी कांग्रेस की कमान गांधी परिवार से बाहर गई है, कांग्रेस टूटी है औऱ कमजोर हुई है। लेकिन जब वह परिवार के हाथ में लौटी है तो फिर खड़ी हुई। मगर इस बार राजनीतिक परिस्थितियां पहले की तरह अनुकूल नहीं है। वह इसलिए क्योंकि मौजूदा दौर में कांग्रेस एकमात्र दल नहीं है। तुष्टीकरण का शिगूफा अब काम नहीं करता। जातीय गोलबंदी में कांग्रेस का समीकरण खत्म हो चुका हैं।
ऐसी दशा में राहुल गांधी प्रयोग करने जा रहे थे। जो वास्तव में प्रयोग नहीं कांग्रेस मुक्त भारत की ओर बढ़ता कदम था। जाहिर है इसे राहुल गांधी नहीं समझ रहे थे। पर कांग्रेस में बैठे ओल्ड गार्ड भाजपा की चाल और राहुल का हाल दोनों समझ रहे थे। उनके सामने दो ही विकल्प थे। पहला या तो गांधी परिवार में से कोई पार्टी की कमान संभालने के लिए तैयार हो या फिर वे अपने में से किसी को अंतरिम अध्यक्ष बनाए। पहले विकल्प पर वे ज्यादा जोर दे रहे थे। लेकिन राहुल गांधी के अड़ियल रवैए ने उन्हें परेशान कर रखा था। वे न तो इस्तीफा वापस ले रहे थे और न ही परिवार में से किसी को अध्यक्ष बनने दे रहे थे। चर्चा तो यह भी है कि राहुल गांधी यह एक योजना के तहत कर रहे थे। उनके करीबी बताते हैं कि ओल्ड गार्ड को हाशिए पर धकेलने के लिए राहुल गांधी ऐसा कर रहे थे।
वे जानते थे कि गांधी परिवार से बाहर कमान जाने पर कांग्रेस दो फाड़ में बंट जाएगी। एक धड़ा ओल्ड गार्ड का होगा। और दूसरे में राहुल गांधी की टीम। उनकी टीम राहुल के हिसाब से काम करेगी। जो ओल्ड गार्ड की नाराजगी का सबब बनेगा। फिर या तो ओल्ड गार्ड पार्टी से अलग हो जाएंगे या फिर राहुल की टीम को बाहर जाने के लिए मजबूर कर देंगे।लेकिन कांग्रेस की बिडंबना यह थी कि हो दोनों रहा था।
कई कांग्रेसी पार्टी से अलग होने की योजना बना रहे थे। संजय सिंह सरीखे लोग टूटे भी। राहुल टीम में ज्यादा हलचल थी। उन्हें लग रहा था कि ओल्ड गार्ड अध्यक्ष तय करेंगे। जाहिर है, वह गांधी परिवार से बाहर का होगा। कारण, राहुल इसी पर अड़े थे। संकेत भी ऐसे मिल रहे थे कि गांधी परिवार राहुल के रास्ते पर चलेगा। इस वजह से टीम के लोग अपने भविष्य का आकलन करने लगे थे। उन्हें पता था कि अगर ओल्ड गार्ड ने किसी को कुर्सी पर बैठाया तो काम करना मुश्किल होगा। वही ओल्ड गार्ड की अपनी राजनीतिक मजबूरी थी। वे दूसरी पार्टी में जा नहीं सकते थे और कांग्रेस में उनके लिए रहना मुश्किल होता जा रहा था। कारण, कैप्टन अमरिंदर सिंह जैसे नेता युवा नेतृत्व के पैरोकार थे। युवा नेतृत्व के कमान संभालने पर ओल्ड गार्ड के लिए मुश्किल थी।
इसी दुविधा में दस अगस्त को कांग्रेस कार्य समिति की बैठक हुई। तय हुआ कि अंतरिम अध्यक्ष का चुनाव महज कार्यसमिति नहीं करेगी। उसमें राज्य प्रतिनिधियों को भी किया जाए। लिहाजा प्रदेश अध्यक्ष, विधायक दल के नेता, सांसदों और सचिवों को शामिल किया गया। उसके बाद कार्यसमिति को पांच समूहों में बांटा गया। उन्हें अंतरिम अध्यक्ष के लिए राय मशवरा करने की जिम्मेदारी सौंपी गई। सोनिया गांधी ने खुद को उससे अलग कर लिया। उन्होंने कहा कि वे अंतिरम अध्यक्ष के चुनाव में हिस्सा नहीं लेगी। यही राहुल गांधी चाहते थे। वे भी चयन प्रक्रिया का नहीं थे। लेकिन प्रिंयका वाड्रा चयन प्रक्रिया का हिस्सा थी।
वहां पहले राय बनी कि राहुल गांधी ही अध्यक्ष हो। उन्हें मानने के लिए सोनिया गांधी से कहा गया। पर उन्होंने इंकार कर दिया। प्रिंयका वाड्रा का नाम भी अंतरिम अध्यक्ष के लिए आया। लेकिन बात नहीं। फिर मुकुल वासनिक, सुशील कुमार शिंदे और मल्लिकार्जुन खड़गे के नाम पर विचार होने लगा। यहीं से पार्टी के भीतर गतिरोध बढ़ गया। पंजाब कांग्रेस के अध्यक्ष सुनील जाखड़ ने कहा कि यदि गांधी परिवार के बाहर कमान गई तो ठीक नहीं होगा। मैं निजी तौर पर तो पार्टी में रहूंगा, पर सक्रिय भूमिका में नहीं रहूंगा। इस तरह की बात करने वाले वे अकेले नेता थे। बहुतों का मानना था कि गांधी परिवार के बाहर कमान जाने पर पार्टी टूट जाएगी। यह होता भी रहा है। इसलिए कार्यसमिति ने एक बार फिर सोनिया गांधी की ओर देखा। प्रिंयका वाड्रा ने इसका विरोध किया।
हालांकि बाद में उन्होंने कहा कि सोनिया गांधी तय करें कि उन्हें कमान संभालनी है या नहीं। एके एंटनी ने भी विरोध किया था। उन्होंने कहा कि सोनिया गांधी का स्वास्थ्य ठीक नहीं है। लेकिन उन्हें ज्योतिरादित्य सिंधिया ने रोका। वे बोले जब राहुल गांधी पद संभालने के लिए तैयार नहीं है तो मैडम को आगे आना चाहिए। अन्य कई दिग्गज नेताओं ने भी इसका समर्थन किया। अंबिका सोनी, कुमार शैलेजा, आशा कुमारी जैसे नेताओं का मानना था कि पार्टी गांधी परिवार के बिना काम नहीं कर सकती। कार्यसमिति में माहौल भी कुछ इसी तरह का था। सबको सोनिया गांधी से ही उम्मीद थी। लिहाजा उन्होंने दस जनपथ पर गुहार लगाई। उन्हें यथास्थिति से अवगत कराया। सोनिया गांधी समझ गई कि पार्टी को उनकी जरूरत है। अगर वे कमान नहीं संभाली तो पार्टी बिखर जाएगी। इसके संकेत मिलने भी लगे थे। देख उसे सोनिया गांधी भी रहीं थीं। इसलिए पार्टी की कमान संभालने के लिए तैयार हो गईं।
(जितेन्द्र चतुर्वेदी यथावत पत्रिका में विशेष संवाददाता हैं।)