शिव सेना और एनसीपी को तोड़ना भाजपा को चुनाव में भारी पड़ेगा

भारतीय जनता पार्टी ने महाराष्ट्र में सत्ता हासिल करने के लिए पहले तो अपनी सबसे पुरानी और विश्वस्त सहयोगी रही शिव सेना को तोड़ा। फिर उस सत्ता के पाए मजबूत करने के लिए शरद पवार की उस राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी यानी एनसीपी को तोड़ा जिसे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ‘नेचुरल करप्ट पार्टी’ कहते रहे हैं। वैसे तो भाजपा और विखंडित शिव सेना की सरकार को पहले भी खतरा नहीं था और अब एनसीपी के टूटे हुए धड़े के आ मिलने के बाद तो बिल्कुल भी खतरा नहीं रह गया। अब भाजपा जिस दिन चाहेगी उस दिन अपना मुख्यमंत्री भी बना सकती है। लेकिन दो विपक्षी पार्टियों के ये टूटे हुए धड़े जो अभी सत्ता की खातिर भाजपा के बगलगीर बने हुए हैं, वे आगामी लोकसभा चुनाव में उसके लिए बड़ी मुसीबत बनने वाले हैं।

शिव सेना और एनसीपी के टूटे हुए धड़े भाजपा के लिए किस तरह मुसीबत बनेंगे उसकी झलक अभी से दिखना शुरू हो गई है। अजित पवार और उनके समर्थक आठ विधायकों को भाजपा-शिवसेना सरकार में शामिल हुए एक हफ्ते से ज्यादा का समय हो गया है, लेकिन अभी तक उनके बीच विभागों को बंटवारा नहीं हो पाया है। बताया जा रहा है कि विभागों को लेकर तीनों पार्टियों के बीच सहमति नहीं बन पा रही है। विभागों को लेकर खींचतान के अलावा मंत्रिपरिषद में बची हुई जगहों के लिए भी तीनों पार्टियों की ओर से दावेदारी की जा रही है।

महाराष्ट्र सरकार में कुल 42 मंत्री हो सकते हैं लेकिन अभी मुख्यमंत्री और दो उप मुख्यमंत्री सहित 29 मंत्री हैं। पिछले एक साल से सिर्फ 20 मंत्रियों से काम चल रहा था और कहा जा रहा था कि शिंदे गुट के विधायकों की अयोग्यता पर फैसले होने तक इंतजार किया जा रहा है। इसी दलील के जरिए उनके विधायकों को अभी भी मंत्री बनने से रोका जा रहा है। इसीलिए कहा जा रहा है कि शिंदे गुट ने दबाव बनाने के लिए अपने चार मंत्रियों के इस्तीफ़े की बात कही है। हालांकि पार्टी ने आधिकारिक तौर पर इसका खंडन किया है। इसी बीच उद्धव ठाकरे गुट की ओर से दावा किया जा रहा है कि शिंदे गुट के कुछ विधायक घर वापसी के लिए उसके संपर्क में हैं।

बहरहाल, खबर है कि मंत्रिपरिषद में बचे हुए 13 खाली पदों के लिए तीनों पार्टियों की ओर से दावेदारी की जा रही है। अजित पवार की ओर से चार और मंत्री पद की मांग की गई है। अगर यह मांग मान ली जाती है तो फिर तीन और मंत्री पद शिंदे गुट को भी देना होंगे। ऐसा होने पर दोनों के 13-13 मंत्री हो जाएंगे और भाजपा के लिए सिर्फ 16 मंत्री पद बचेंगे, जबकि इन दोनों पार्टियों के विधायकों की साझा संख्या से भी ज्यादा भाजपा के 105 विधायक हैं। इसीलिए कहा जा रहा है कि शिंदे गुट के 16 विधायकों की अयोग्यता पर स्पीकर का फैसला आने के बाद ही मंत्रिपरिषद का विस्तार होगा।

स्पीकर ने विधायकों की अयोग्यता पर सुनवाई शुरू कर दी है। उनका फैसला आने के बाद मंत्री पदों के बंटवारे का विवाद अगर किसी तरह सुलझ भी गया तो बड़ी समस्या लोकसभा चुनाव के समय भाजपा को दोनों पार्टियों के साथ सीटों के बंटवारे में आएगी। इसकी वजह यह है कि भाजपा जहां ज्यादा से ज्यादा सीटें लड़ना चाहेगी, वहीं एकनाथ शिंदे की शिव सेना और एनसीपी के अजित पवार गुट का दावा भी बहुत बड़ा है।

पिछले लोकसभा चुनाव भाजपा और शिव सेना का गठबंधन था। राज्य की 48 सीटों में से भाजपा ने 25 और शिव सेना ने 22 सीटों पर चुनाव लड़ा था। भाजपा ने 23 सीटें जीती थीं और 18 सीटों पर शिव सेना को जीत मिली थी। इस बार एकनाथ शिंदे की शिव सेना 22 सीटों की मांग कर रही है। अविभाजित शिव सेना के 18 में से 13 सांसद शिंदे गुट के साथ हैं। सो, इन 13 सांसदों को सीटें तो उसे चाहिए ही, इसके अलावा नौ और सीटों पर उसका दावा है।

अब अजित पवार के साथ आ जाने से स्थिति का और उलझना तय है, क्योंकि बताया जा रहा है कि भाजपा ने अजित पवार को 10 सीटें देने का वादा किया है। दूसरी ओर भाजपा खुद भी पहले से ज्यादा सीट लड़ना चाह रही है ताकि उसकी 23 सीटें बची रहे। अगर भाजपा पिछली बार की तरह 25 सीट लड़ती है तो वह बहुत भरोसे में नहीं है कि 23 सीटें जीत पाएगी। सो, जानकार सूत्रों का कहना है कि भाजपा 28 सीटों पर लड़ना चाहती है। एक सीट रामदास अठावले की पार्टी आरपीआई को भी देनी होती है। एकनाथ शिंदे और अजित पवार की पार्टियों को 10-10 सीटें देने पर भाजपा को अपने कोटे से एक सीट अठावले को देनी होगी। यानी तब भाजपा 27 सीट लड़ेगी।

लेकिन सवाल है 22 सीटों पर दावा जताने वाला शिंदे गुट क्या 10 सीटें लेकर संतुष्ट हो जाएगा? चूंकि शिंदे गुट के अभी 13 सांसद हैं, इसलिए उसके लिए 13 सीटों से कम पर राजी होना किसी भी तरह संभव नहीं होगा। अगर उसे इतनी सीटें नहीं मिली तो जाहिर है कि उसके खेमे में भगदड़ मचेगी। उसके जिन मौजूदा सांसदों को टिकट नहीं मिलेगा, वे वापस उद्धव ठाकरे के पास जाएंगे। भाजपा अगर शिंदे गुट को संतुष्ट करने के लिए अजीत पवार गुट की सीटें कुछ कम करेगी तो उसके यहां भी असंतोष पैदा होगा और उसके कुछ नेता वापस शरद पवार के पास लौट जाएंगे।

सीटों के बंटवारे के अलावा चुनाव में भाजपा के सामने एक बड़ी समस्या और भी पेश होने वाली है। वह समस्या है एकनाथ शिंदे और अजित पवार के पास जनाधार का अभाव। सत्ता में हिस्सेदारी का लालच और विभिन्न मामलों में ईडी, सीबीआई, आयकर आदि केंद्रीय एजेंसियों की जांच से बचने या उसमें क्लीन चिट हासिल करने के मकसद से शिव सेना और एनसीपी के विधायक व सांसद तो बड़ी संख्या में एकनाथ शिंदे और अजीत पवार के साथ आ गए हैं, लेकिन पार्टी संगठन और जनाधार अभी भी उद्धव ठाकरे और शरद पवार के पास ही है। शिव सेना के संदर्भ में तो यह बात कुछ समय पहले तीन विधानसभा सीटों के लिए हुए उपचुनाव में साबित भी हो चुकी है। भाजपा भी यह बात अच्छी तरह जानती है। इसीलिए बृहन्मुंबई महानगर पालिका यानी बीएमसी, ठाणे और कुछ अन्य बड़े शहरों में नगर निगमों के चुनाव लगातार टलते जा रहे हैं।

एकनाथ शिंदे और अजित पवार के पास न तो वोट है और न ही कार्यकर्ता। ऐसी स्थिति में दोनों ही नेताओं के लिए अपने-अपने उम्मीदवारों के लिए वोट जुटाना आसान नहीं होगा। उनके उम्मीदवारों को अपने-अपने क्षेत्र में लोगों की नाराजगी का सामना करना पड़ेगा सो अलग। यह स्थिति भाजपा के लिए भी नुकसानदायक होगी। उसके उम्मीदवारों को शिव सेना और एनसीपी के टूटे हुए धड़ों से मदद मिलना तो दूर उलटे इन पार्टियों को तोड़े जाने से इनके समर्थकों की नाराजगी का खामियाजा अपने-अपने चुनाव क्षेत्रों में भुगतना पड़ेगा।

इन दो बड़ी समस्याओं के अलावा तीनों पार्टियों को चुनाव में एंटी इंकम्बेंसी का भी सामना करना है। उद्धव ठाकरे की अगुवाई वाला महा विकास अघाड़ी की सरकार ढाई साल चली और उसके कार्यकाल का ज्यादा समय कोरोना महामारी से निबटने में ही बीता, जिसकी वजह से विकास के ज्यादातर काम रूके रहे। फिर भाजपा के कुख्यात ऑपरेशन लोटस से शिव सेना में विभाजन हो गया और वह सरकार गिर गई।

एक ठीक-ठाक चल रही सरकार को इस तरह गिराने को राज्य की जनता ने आमतौर पर पसंद नहीं किया। फिर भी भाजपा और शिवसेना (शिंदे गुट) ने मिल कर सरकार बनाई, जिसकी मंत्रिपरिषद का गठन अभी तक पूरा नहीं हो सका है। एक-एक मंत्री के पास कई-कई विभागों की जिम्मेदारी है। इन सब वजहों से नौकरशाही पर सरकार का नियंत्रण नहीं है और वह अपने हिसाब से काम कर रही है। विकास के काम ठप हैं।

इस सबके अलावा पिछले आठ-नौ साल के दौरान देशी-विदेशी पूंजी से शुरू होने वाली कई लाख करोड़ रुपए की बड़ी-बड़ी परियोजनाओं को महाराष्ट्र से उठा कर गुजरात ले जाए जाने से भी महाराष्ट्र के लोगों में नाराजगी है। इस सबका खामियाजा भी अगले चुनाव में भाजपा को भुगतना पड़ सकता है।

कुल मिला कर शिव सेना और एनसीपी को तोड़ने वाला सौदा भाजपा को साफतौर पर महंगा पड़ता दिख रहा है। दोनों पार्टियों से कहीं बड़ा संख्याबल होने के बावजूद वह अपना मुख्यमंत्री नहीं बना पाई है और न ही पर्याप्त संख्या में मंत्री पद उसके हिस्से में आए हैं। इसके अलावा दोनों पार्टियों को तोड़ने से जनता में बदनामी मिली सो अलग और अगले चुनाव में फायदा होते हुए कहीं से नजर नहीं आ रहा है।

(अनिल जैन वरिष्ठ पत्रकार हैं और दिल्ली में रहते हैं।)

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