रूपानी के इस्तीफे के पीछे गुजरात हारने का डर

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क्या कांग्रेस नेता हार्दिक पटेल का यह दावा सही है कि मुख्यमंत्री पद से विजय रूपानी के इस्तीफे का प्रमुख कारण अगस्त में आरएसएस और भाजपा का गुप्त सर्वे है, जिसमें कांग्रेस को 43 फीसद  वोट और 96-100 सीट, भाजपा को 38 फीसद वोट और 80-84 सीट, आप को 3 फीसद वोट और 0 सीट, मीम को 1 फीसद वोट और 0 सीट और सभी निर्दलीय को 15फीसद वोट और 4 सीट मिल रही थी। वरना किसी भी राजनीतिक विश्लेषक को यह विश्वास नहीं था कि गृहमंत्री अमित शाह के करीबी माने जाने वाले गुजरात के मुख्यमंत्री विजय रूपानी का इस्तीफ़ा हो जायेगा।  

गुजरात में विधानसभा चुनाव से पहले अचानक मुख्यमंत्री विजय रूपानी के इस्तीफे ने सबको चौंका दिया।

रूपानी ने सात अगस्त 2016 को पहली बार गुजरात के मुख्यमंत्री पद की शपथ ली थी। इसके बाद 2017 में राज्य में विधानसभा चुनाव हुए थे। इसमें भाजपा ने बहुमत हासिल कर सरकार बनाई थी। भाजपा ने गुजरात में 182 सीटों में से 99 सीटें जीतकर बहुमत हासिल किया था। विधानमंडल दल की बैठक में रूपानी को विधायक दल का नेता और नितिन पटेल को उपनेता चुना गया था। रूपानी ने 26 दिसंबर 2017 को दूसरी बार गुजरात के मुख्यमंत्री पद की शपथ ली।

दरअसल कांग्रेस ने पटेलों को साइडलाइन किया तो पटेलों ने भाजपा पकड़ी थी। भाजपा ने शुरुआत में पटेलों को फ्री हैंड दिया, लेकिन जैसे ही उनके ऊपर हिंदुत्व का नशा चढ़ा, आरएसएस ने कुर्सी खींच ली और नरेंद्र मोदी को पटेलों के ऊपर थोप दिया। तब से पटेलों का शासन प्रशासन, मान-सम्मान, धंधा पानी, खेती किसानी हिंदुत्व के नीचे दबकर रह गया है।

अब राजनीतिक पंडितों का मानना है कि तेजी से खिसकते जनाधार को थामने के लिए चुनाव के पहले भाजपा डैमेज कंट्रोल करना चाह रही है, जिससे विजय रुपानी की नाकाबलियत के खिलाफ एन्टी इनकंबेंसी फैक्टर को कम किया जा सके। संभव है कि मनसुख मंडाविया, पुरुषोत्तम रुपाला या नितिन पटेल जैसे किसी पटेल नेता को सीएम बना दिया जाए। इस समय कांग्रेस ने गुजरात में हार्दिक पटेल को फ्री हैंड दे रखा है।

लोकतंत्र का मजाक है कि चुनाव से पहले विभिन्न जातीय समूहों को मंत्री पद या कोई और झुनझुना थमा दिया जाता है और माना जाता है कि उनके अहं की तुष्टि हो गयी और उन जातीय समूहों के वोट उनकी पार्टी को मिलेंगे। यूपी से गुजरात तक जहां 22 में विधानसभा चुनाव होना है वहां कुर्मी, पटेल, मराठा आदि को चुनाव पूर्व पंकज चौधरी, अनुप्रिया पटेल, मनसुख मंडाविया, ज्योतिरादित्य सिंधिया, नीतीश कुमार, आरसीपी सिंह मंत्री पद का झुनझुना थमा देने से वे खुश हो जायेंगे और थोक के भाव से उनका वोट भाजपा को मिलेगा। गुजरात में अब पटेल मुख्यमंत्री बन जायेगा तो क्या हाशिये पर चल रहे पटेलों का पूर्ण समर्थन भाजपा को मिलेगा, इस पर गंभीर प्रश्नचिन्ह है।

गुजरात में दिसंबर 2022 में विधानसभा चुनाव होने हैं। राज्य में पिछली बार 2017 में विधानसभा चुनाव हुए थे। भाजपा को 99 सीटें और 50 फीसदी वोट मिले थे। इस चुनाव में भाजपा का वोट प्रतिशत एक फीसदी जरूर बढ़ा था, लेकिन 22 साल बाद उसकी सीटें सौ के नीचे चली गई थीं। इससे पहले 1995 में भाजपा को 121 सीटों पर जीत मिली थी। इसके बाद 1998 में भाजपा को 117, 2002 में 127, 2007 में 117, 2012 में 115 सीटें मिली थीं।

दिसंबर 2022 में गुजरात की 182 सीटों पर चुनाव होने हैं। बहुमत का आंकड़ा 92 है और भाजपा के पास फिलहाल 99 सीटें हैं। पार्टी ने 2017 विधानसभा चुनाव में 16 सीटों पर 5 हजार से कम वोट के अंतर से जीत दर्ज की थी। अगर इस बार एंटी इंकम्बेंसी की वजह से भाजपा की 16 सीटें भी कम हो जाती हैं तो उनकी संख्या 83 बचेगी। इसी तरह 32 ऐसी सीटें हैं, जहां तीसरे नंबर वाले प्रत्याशी को मिले वोट जीत-हार के अंतर से ज्यादा हैं। ऐसी 18 सीटों पर भाजपा जीती है। ऐसे में 18 सीटें भी कम होती हैं तो पार्टी का आंकड़ा 81 सीट बचेगा। ऐसे में भाजपा बहुमत के आंकड़े से दूर रह जाएगी और गुजरात में बना पार्टी का किला ढह सकता है।

गुजरात की राजनीति में एक दिलचस्प बात यह भी रही है कि नरेंद्र मोदी के मुख्यमंत्री पद छोड़ने के बाद यहां कोई भी मुख्यमंत्री अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर पाया है। मोदी के बाद आनंदी बेन पटेल और फिर विजय रूपानी ने राज्य की सत्ता संभाली थी। सुबह जब गुजरात के मुख्यमंत्री पीएम के साथ वर्चुअल कार्यक्रम में शामिल हो रहे थे तो किसी को अंदाजा नहीं था कि शाम होते-होते उनकी कुर्सी चली जाएगी।

पिछले चुनाव में भारतीय जनता पार्टी ने गुजरात में बहुत मुश्किल से जीत हासिल की थी। इसके बाद किसी तरह चार साल तक मामला चला, लेकिन जबकि चुनाव को एक साल बचा है। सीआर पाटिल के अध्यक्ष बनने के बाद रूपानी के लिए मुश्किलें और बढ़ गई थीं। विशेषज्ञों का कहना है कि अमित शाह के करीबी होने के नाते रूपानी की कुर्सी अभी तक बची हुई थी। लेकिन सीआर पाटिल ने अब पार्टी से स्पष्ट कर दिया था कि अगर अगले साल चुनाव में बड़ी जीत हासिल करनी है तो फिर नेतृत्व परिवर्तन करना होगा।

विजय रूपानी को फेस बनाकर पार्टी अगले चुनाव में नहीं उतरना चाहती थी। इसके पीछे एक बड़ी वजह थी गुजरात का जातीय समीकरण। रूपानी बनिया हैं  और उनके रहते पार्टी के लिए जातीय समीकरण साध पाना मुश्किल हो रहा था। गुजरात के जातीय समीकरण को साधने के लिए ही कुछ समय पहले केंद्र के मंत्रिमंडल विस्तार में पटेल समुदाय के मनसुख मंडाविया को जगह दी गई थी। रूपानी के लिए कोरोना की दूसरी लहर भारी मुसीबत बनकर आई। इस दौरान गुजरात में मिसमैनेजमेंट की कई खबरें बाहर आईं। इसलिए आम लोगों का आक्रोश खत्म करने के लिए विजय रूपानी की बलि ले ली गयी।

गुजरात में 23 साल में पांच मुख्यमंत्री बदले। केशुभाई पटेल 1995 में सात महीने तक मुख्यमंत्री रहे थे, लेकिन इसके बाद सत्ता शंकर सिंह वाघेला के हाथों में चली गई। केशुभाई 4 मार्च 1998 को दोबारा मुख्यमंत्री बने और करीब साढ़े तीन साल यानी 6 अक्टूबर 2001 तक मुख्यमंत्री रहे। केशुभाई के बाद नरेंद्र मोदी 7 अक्टूबर 2001 को मुख्यमंत्री बने। वे 22 मई 2014 तक इस पद पर रहे। उनके बाद आनंदीबेन पटेल 7 अगस्त 2016 तक दो साल तीन महीने मुख्यमंत्री रहीं। आनंदीबेन पटेल के इस्तीफे के बाद विजय रूपानी को राज्य की कमान मिली। वे दिसंबर 2017 तक मुख्यमंत्री रहे। फिर विधानसभा चुनाव के बाद भी उन्हें ही कमान मिली।

रूपानी ने 7 अगस्त 2016 को पहली बार गुजरात के मुख्यमंत्री पद की शपथ ली थी। इसके बाद 2017 में राज्य में विधानसभा चुनाव हुए थे। इसमें भाजपा ने बहुमत हासिल कर सरकार बनाई थी। भाजपा ने गुजरात में 182 सीटों में से 99 सीटें जीतकर बहुमत हासिल किया था। विधानमंडल दल की बैठक में रुपानी को विधायक दल का नेता और नितिन पटेल को उपनेता चुना गया था। रुपानी ने 26 दिसंबर 2017 को दूसरी बार गुजरात के मुख्यमंत्री पद की शपथ ली।

गौरतलब है कि रूपानी के इस्तीफे के कारणों को लेकर कयासबाजी शुरू हो गयी है। कहा जा रहा है कि गुरुवार रात को ही गृहमंत्री अमित शाह निजी दौरे पर गुजरात के अहमदाबाद पहुंचे थे। एक भाजपा नेता ने दावा किया था कि वे शुक्रवार सुबह ही दिल्ली भी लौट गए। उनके गुजरात पहुंचने पर कोई कार्यक्रम नहीं किया गया, न ही पार्टी या सरकारी स्तर पर उनकी किसी से मिलने की योजना सामने आई। कहा जा रहा है कि रूपानी को इस्तीफ़ा देने का संदेश उन्होंने दे दिया था।

एक और कहानी भी चल रही है। रुपानी के इस्तीफे की नींव इस साल जनवरी में हुई आरएसएस की बैठक में रखी गई और मुहर अगस्त के आखिर में हुए भागवत के दौरे में लगी। संघ का मानना है कि कोरोना काल में गुजरात की छवि को भारी क्षति पहुंची है। इतना ही नहीं, पिछले चुनाव में भाजपा 99 का आंकड़ा जैसे तैसे छू सकी। दोनों बातों का गुजरात की जनता पर गहरा असर पड़ा है। रुपानी जितने दिन पद पर रहेंगे, मतदाता की नाराजगी उतनी ही गहरी होती जाएगी।

एक वजह यह भी बतायी जा रही है कि चुनाव के लिए भाजपा को ऐसा चेहरा चाहिए था जिस पर कोरोना के दौरान राज्य में हुई अव्यवस्था का दाग न लगा हो। एक अच्छा स्पीकर हो और जो चुनाव में गुजरात की जनता को साध सके। यह काम रुपानी बिल्कुल भी नहीं कर सकते। एक अहम वजह यह भी है कि कोरोना काल में हुई अव्यवस्था का ठीकरा फोड़ने के लिए एक सिर भाजपा और आरएसएस को चाहिए। रुपानी जैसे आज्ञाकारी लीडर के सिर पर इसका ठीकरा भी फूट गया और केंद्र ने नेतृत्व परिवर्तन कर जनता को जता भी दिया कि मुख्यमंत्री के कामों की समीक्षा की वजह से उन्हें हटाया गया। केंद्र ने सख्त फैसला लिया।

 (जेपी सिंह वरिष्ठ पत्रकार हैं और आजकल इलाहाबाद में रहते हैं।)

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