कुछ दिन पहले एक नामचीन गांधीवादी लेखक इस बात पर परेशान रहे कि फेसबुक उनकी पोस्टों को कम्युनिटी स्टैंडर्ड के खिलाफ मानकर उनके एकाउंट का वेरिफिकेशन मांग रहा था। ठीक बैंकों में मांगे जाने वाले केवाईसी की तरह। उसके साथ-साथ उनसे और जानकारी भी चाही थी।
उन्हें यह शिकायत थी कि वो तो ऐसी कोई पोस्ट नहीं करते जो किसी को बुरी लगे, और कोई उस पर आपत्ति करे। उनकी पोस्ट सीधे-सादे गांधी मूल्यों और दर्शन पर होती हैं। कभी-कभी गांधी से संबंधित इतिहास पर भी पोस्ट लिख देते हैं, फिर इसकी शिकायत कौन करता होगा?
गांधीवादी बड़े सीधे सादे होते हैं। सोचते हैं कि गांधी से जुड़ी हर बात पर किसी को एतराज़ नहीं होता होगा। गांधी की बातें तो सब के लिए होती हैं। उनका दृष्टिकोण समग्र होता है उस पर कौन प्रश्र करेगा? या फिर किसको इन बातों पर ऐतराज़ करने की ज़रूरत होगी?
अब उन्हें कौन समझाए कि गांधी की जो बातें उन्हें सीधी सादी लगती हैं, वह कुछ लोगों को शूल की तरह चुभती हैं। पहले तो यह समझना कोई मुश्किल नहीं है कि आज गांधी का सिर्फ नाम बेचा जा रहा है। उनका ठप्पा लगाकर वह सब कुछ बेचा जा रहा है, जो गांधी और गांधी मूल्यों के खिलाफ है।
गांधी का दर्शन जहां समग्रता के लिए था, तो अब समग्रता के खिलाफ एक खास दृष्टिकोण, मत या समूह के हित में सोचने-समझने वालों का बहुमत है, उनकी सत्ता है और उन्ही की चलती है, उन्हीं का उगला हुआ, परोसा हुआ पसंद किया जाता है।
वह गांधीवादी लेखक वह सब लिखते हैं जो स्वतंत्रता आंदोलन में गांधी युग में घटा। गांधी ने जो जिया और जो गांधी ने किया, लेकिन वो लेखक यह भूल गए कि उनका लिखा हुआ एक खास विचारधारा के लिए असहज है। उनके बर्दाश्त से बाहर है। ऐसे लोग गांधी का जुलूस निकाल सकते हैं, गांधी को समग्र स्वीकार नहीं सकते।
फिर गांधीवादियों की एक और बड़ी कमज़ोरी व्यक्तिगत विचारधारा को लेकर समन्वय की है। वह सोचते हैं कुछ थोड़े बहुत विपरीत विचार और मत बड़ी समस्या नहीं हैं। हो सकता है पहले यह बात सही होगी, लेकिन अब ऐसा नहीं है।
इस संदर्भ में यह भूल जाते हैं कि गांधी को लेकर विरोध करने वाले उसके मूल्यों को कैसे समन्वय स्थापित कर सकेंगे। इसीलिए ऐसे गांधीवादी मित्रता बनाने में भी उदारमना होकर गलती कर जाते हैं, वह राष्ट्रवाद के नाम पर, भारतीयता के नाम पर, गंगा और गाय के नाम पर, संस्कृति के नाम पर और यहां तक ग्राम प्रेम के नाम पर गांधीवाद की चादर में छिपे कट्टर लोगों से मित्रता कर लेते हैं। गांधी के गौ और ग्राम प्रेम का अर्थ दक्षिणपंथी गौ प्रेम से अलग होता है।
मैंने जब उन गांधीवादी लेखक की फ्रैंड लिस्ट देखी तो पता चला कि उनके कथित मित्रों में वह लोग भी शामित थे, जिनके गांधी की समग्रता से कोई लेना देना नहीं था। वह तो गांधी को अपने स्वार्थवश कंधे पर बैठाने वाले लोग थे। ऐसे में वह लेखक जब गांधीवादी मूल्यों पर लिखते होंगे तो क्योंकर उनके फेसबुक मित्रों को अच्छा लगता होगा?
जैसा कि आमधारणा है कि सत्ता पक्ष में मुहिम चलाने वाली आईटी सेल किसी भी विरोधी विचार को कुचलने के लिए हमेशा तैयार रहती है। आईटी सेल की पहुंच फेसबुक के प्रबंधन तक है। वे ऐसे सभी एकाउंट्स की लगातार शिकायत करवाकर उस एकाउंट को बंद करवा देते हैं। या फिर इतना आतंकित कर देते हैं कि फेसबुक चलाने वाला बंदा हथियार डालकर सोचता है क्यों लफड़े में पड़ा जाए।
पिछले कुछ सालों में ऐसी अनेक घटनाएं हुई हैं, जिसमें लोगों ने मजबूरी के कारण फेसबुक छोड़ दिया या फिर उनका पुराना एकाउंट बंद करवा दिया गया। निश्चित रूप से उनके फेसबुक एकाउंट बंद कराने में उन मित्रों की भी भूमिका रही होगी जो आईटी सेलों के लिए ऐसी ख़ुफ़ियागिरी करते हैं।
फेसबुक के सत्ता पक्ष के पोषण का जो खुलासा इन दिनों हुआ है, उससे ऐसे गांधीवादियों और समन्वयवादी लोगों की पीड़ा आसानी सी समझती जा सकती है, जो सत्तापक्ष के आईटी सेलों की भूमिका को कम करके आंकते हैं।
- इस्लाम हुसैन
(लेखक पत्रकार और सामाजिक कार्यकर्ता हैं। वह काठगोदाम में रहते हैं।)