मर्दवादी सियासत का चक्रव्यूह तोड़ती एक राजनेता

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अपने पूरे वजूद के साथ कभी वह कांग्रेस में थी। अपने वजूद के लिए सदा सचेत रही उनकी जवानी का वक़्त कांग्रेस के नाम रहा। वजूद पर संकट आया,तो कांग्रेस को सीपीएम की कठपुतली कहकर कांग्रेस छोड़कर अपनी पार्टी बना ली। वह जिस दौर में बंगाल की वामपंथी सरकार के ख़िलाफ़ लड़ रही थीं, उनकी निडरता, साहस और जुझारुपन इसलिए मायने रखते थे, क्योंकि बंगाल से वामपंथ को सरका देने की बात किसी परीकथा की तरह दिखती थी। मगर, उस परीकथा को भी ममता ने अपनी हुक़ूमत की हक़ीक़त में तब्दील कर दिया। ममता की रार आज उसी भाजपा से है, जिसकी अगुवाई वाली अटल बिहारी वाजपेयी सरकार में वह कभी रेल मंत्री थीं।

प्रधानमंत्री की चाय बेचने की चर्चा बहुत होती रही है,मगर ममता के दूध बेचकर अपना परिवार चलाने की चर्चा शायद ही कभी होती है। प्रधानमंत्री के अविवाहित रहने के पीछे संघ के प्रचारक होने की शर्त थी, मगर ममता बिना किसी शर्त के घेरे में रहते हुए स्वेच्छा से अविवाहित रहीं हैं। प्रधानमंत्री 70 साल के हैं और ममता उनसे चार साल छोटी।

लोगों में किसी संन्यासी की छवि गढ़ते और भारतीय परंपरा के वाहक के तौर पर ख़ुद को पेश करते प्रधानमंत्री की ज़िंदगी में सादगी बिल्कुल नहीं दिखती, मगर ममता आज भी मामूली कमरे में रहती हैं, हवाई चप्पल पहनती हैं, कोई साज़-ओ-श्रृंगार नहीं करती हैं, परंपरागत सूती साड़ी यानी तांत की साड़ी पहनती हैं, कविता-कहानियां और किताबें लिखती हैं।

एक तरफ़ मुसलमानों की कट्टरता की अनदेखी करते हुए उनकी सुरक्षा का ख़ूब ख़्याल रखती हैं, दूसरी तरफ़ हिंदुओं की दुर्गा पूजा के गीत लिखती हैं, उन्हें कंपोज करती हैं और उन्हें गाती भी हैं, कभी वह अपनी सभाओं में अपने पल्लू को माथे पर रखकर कलमा पढ़ लेती हैं, तो कभी दुर्गा पूजा की आरती करतीं नज़र आती हैं, वह किताब लिखने, कविता और गीत रचने-कंपोज करने के अलावें ख़ूबसूरत पेंटिंग भी करती हैं। इस तरह, प्रधानमंत्री जहां अपनी दाढ़ी से टैगोर होने की छवि पेश करने की कोशिश करते नज़र आते हैं, वहीं ममता अपने व्यक्तित्व के अच्छे ख़ासे हिस्से में टैगोर की परंपरा को आगे बढ़ाते हुए दिखती हैं और उसे साबित भी करती हैं।

जिस देश में बड़ी संख्या में महिलाओं को अपने घर से लेकर बाहर तक रिश्ते के भावनात्मक बंधन में कसमसाती एक शख़्सियत के तौर पर पहचान नहीं मिल पा रही है, वहां ममता की महज़ औरत बना देने के ख़िलाफ़ एक ताक़तवर मनुष्य के तौर पर स्थापित होने की कहानी पूरे समाज की महिलाओं के लिए एक नई इबारत रचती कहानी साबित हो सकती है।

जिस दौर में हम जी रहे हैं, उस दौर में महज़ राजनेताओं के लिए विचारधारा ही नहीं, बल्कि समाज के हर क्षेत्र से जुड़े लोगों के मूल्य जमुना की प्रदूषित धारा बन गये हैं। सुविधा, सहूलियत और फ़ायदे के हिसाब से सांप्रदायिकता और धर्मनिर्पेक्षता, दोनों की व्याख्यायें की जा रही हैं। जिन पार्टियों, संगठनों और लोग धर्मनिर्पेक्षता की बात करते रहे हैं, उन्होंने लम्बे समय तक हर तरह की सांप्रदायिकता को अप्रत्यक्ष तौर पर खुराक दी है; जो पार्टियां, संगठन और लोग भारतीय परंपरा और संस्कृति का आह्वान करते रहे हैं, उन्होंने इस संस्कृति के परिशोध करने के बजाय, उसमें और भी विकृति पैदा की है।

ज़ाहिर है, बाक़ियों के साथ ममता बनर्जी भी इस दाग़ से बेदाग़ नहीं हैं। मगर, ममता के जूझने की कहानी, सिर्फ़ सत्ता से कामयाबी के साथ जूझने की उनकी ख़ुद की कहानी नहीं है, बल्कि इस समय और भविष्य की सोनिया गांधी, प्रियंका गांधी, मायावती, स्मृति ईरानी, कुमारी शैलजा, वसुंधरा राजे सिंधिया जैसी महिला राजनेताओं के लिए ही नहीं, बल्कि खेल, साहित्य, कला, सिनेमा और समाज और परिवार में जूझारूपन की चिंगारी पैदा करतीं महिलाओं के लिए भी एक प्रेरक कहानी है।

ख़ुद की लिखी ऐसी कहानी राजीव गांधी की पत्नी और इंदिरा गांधी की बहू, सोनिया गांधी के पास नहीं है; इस तरह की कहानी सोनिया गांधी की बेटी, प्रियंका गांधी के साथ नहीं है; इस तरह की कहानी कांसीराम के संरक्षण में आगे बढ़ीं मायावती के पास नहीं है; इस तरह की कहानी एमजी रामचंद्रन की दोस्त रहीं जयललिता के पास नहीं है; इस तरह की कहानी राजमाता सिंधिया की बेटी, माधवराव सिंधिया की बहन और राजघराने की बेटी-बहू रहीं वसुंधरा राजे सिंधिया के साथ नहीं जुड़ती; इस तरह की कहानी उस राबड़ी देवी के पास भी नहीं है,जिनकी मुख्यमंत्री बनने की पात्रता,सामाजिक बदलाव के वाहक और बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री लालू यादव की सिर्फ़ बीवी होने की योग्यता पर आधारित थी और इस तरह की कहानी की मोहताज वह स्मृति ईरानी भी हैं,जिनकी मज़बूती की बुनियाद प्रचंड बहुमत वाली सरकार और बेहद लोकप्रिय प्रधानमंत्री हैं।

ममता ख़ुद के बूते बनी हैं-परिस्थितियों को मात देकर;मुसीबतों के अंधेरे को मुंह चिढ़ाकर; राजनीति की मर्दवादी प्रकृति को नामंज़ूर कर और अपनी सादगी और रचनात्मकता को अपनी ताक़त बनाकर। लिहाज़ा,कोर्पोरेट वर्चस्व और क्रोनी कैपिलिज़्म के इस दौर में ममता बनर्जी की कमियों के साथ उनके लिए सहानुभूति ज़रूरी है, ताकि बहुत ख़राबों के बीच बहुत ख़ासियत वाली उस कम ख़राबियों वाली शख़्सियत को बल मिले, जो एक बारीक़ उम्मीद जगाती है।

(उपेंद्र चौधरी वरिष्ठ पत्रकार हैं और आजकल दिल्ली में रहते हैं।)

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