नीतीश कुमार: वल्गैरिटी, सेक्सुअलिटी और जेंडर सेंस्टाइजेशन

Estimated read time 1 min read

वैशाली के पातेपुर प्रखंड में एक छोटी आबादी का गांव चपता है। यहां जब एक टूटी-फूटी झोपड़ी की एक दलित बहू पुलिस की वर्दी में आयी, तो पर्दे के बाहर निकल आने वाली वह युवा महिला ज़्यादातर लोगों के निशाने पर आ गयी। कुछ लोगों ने इसे बदलाव की आहट के रूप में भी महसूस किया। आज भी इस गांव में शिक्षा की अहमियत पूरी तरह समझी नहीं गयी है, लेकिन दस साल पहले बहू से पुलिस बनी वह नौजवान महिला कई महिलाओं के लिए ही नहीं बल्कि नौजवान पुरुषों के लिए भी इस मायने में प्रेरणा स्रोत बन गयी कि कुछ करने के लिए घर से बाहर का रुख़ करना होगा। अब दस साल बाद वहां की कुछ महिलायें थोपी गयी सामाजिक वर्जनाओं को तोड़कर खेती के अलावे दूसरा पेशा अपनाने लगी हैं और इसमें नौजवान पुरुषों का साथ भी मिलने लगा है।

चपता के बगल में ही राजपूतों का गांव महथी है। यहां चंद दशक पहले राजपूतों की ठाठ थी, लेकिन अब यहां की फ़िज़ा बदलने लगी है। राजपूत अपनी ज़मीन बेचने लगे हैं और कभी गांव के किनारे पर बसने वाली अति पिछड़ी और दलित जातियां उन बाबू साहेबों की ज़मीनों को ख़रीद-ख़रदीकर अपने नये और आधुनिक शैली के घर बनाने लगे हैं। सिर्फ़ आधुनिक शैली के घर ही नहीं बन रहे, बल्कि आधुनिक विचार भी अपने पांव पसारने लगे हैं।

अब दोनों जातियों के बीच किसी तरह के सामंती ताक़त की ज़ोर-आज़माइश नहीं, बल्कि धीरे-धीरे सशक्त पिछड़ी और सवर्ण जातियां अपनी हेठी छोड़ने लगी हैं और अति-पिछड़ी और दलित जातियां अब मुखर हो गयी हैं। हेठी छोड़ने और मुखर होने के बीच अब किसी तरह की कोई टकराहट नहीं है, किसी तरह की हिंसा की कोई ज़रूरत नहीं रह गयी है।

चार साल पहले इस महथी गांव के राजपूत के एक लड़के ने हलवाई जाति की एक लड़की से शादी कर ली थी। बिना किसी हंगामे और शोर शराबे के बेटे और बेटियों वाले इन अलग-अलग जातियों के परिवारों और समाजों ने नयी जोड़ी बने दुल्हा-दुल्हन को स्वीकार भी कर लिये हैं। थोड़ी ही दूर पर स्थित बिशनपुर गांव के एक लोहार जाति के लड़के ने पांच साल पहले कुशवाहा जाति की एक लड़की से शादी कर ली थी। थोड़ी सी ही-हुज्जत के बाद दोनों परिवारों ने एक दूसरे को स्वीकार कर लिया।

ऐसी ही कहानी मुज़फ़्फ़रपुर के भिखनपुरा गांव के दो युवा-युवती की भी है। यह गांव राजपूतों का है, मगर शहरीकरण ने इस गांव की आबादी में अब कई जातियों को मिश्रित कर दिया है। यहां की एक कायस्थ लड़की और एक ब्राह्मण लड़के के बीच इश्क़ हुआ और दोनों ने सालों तक अपने-अपने परिवारों को रज़ामंद किया और फिर शादी रचा ली। कुछ दिनों तक दूर-दराज़ के रिश्तेदारों की हल्की-फुल्की नाराज़गी रही, मगर धीरे-धीरे सबकुछ सामान्य हो गया। यह जोड़ी इंजीनियर है, अपने पैरों पर ख़ड़ी है और आज वह अंतर्जातीय विवाह के संदर्भ में सामाजिक परिवर्तन का वाहक बन गया है।

वैशाली के ही लालगंज में एक यादव लड़के और राजपूत लड़की की शादी की कहानी कुछ इसी तरह की है। शादी के बाद दोनों परिवारनों ने भी उन्हें अपना लिया है। इसी लालगंज में एक यादव लड़के और एक भूमिहार लड़की के बीच की प्रेमकथा है। सालों परिवार वालों से जुदा रहने के बाद आज वह अपने-अपने परिवार का अटूट हिस्सा हैं।     

सीतामढ़ी के रून्नी सैदपुर के मानिक चौक गांव में तो ऐसी दर्जनों कहानियां हैं। यहां इस तरह की कहानियों का एक तत्व यह भी है कि इस बड़े गांव के दो मुहल्लों या कभी-कभार तो एक ही मुहल्ले की दो जातियों से आने वाले लड़के और लड़कियां आपस में शादी रचा लेते हैं। यहां के बीचले टोले के कलवार लड़के ने कायस्थ लड़की से शादी रचा ली और एक ही मुहल्ले के लोगों के बीच इस बात की चर्चा ख़ूब हुई, लेकिन इसे लेकर किसी भी तरह का कोई हो-हंगामा नहीं हुआ।

कभी ब्राह्मणों का गांव माने जाने वाले इस मानिकचौक में जो जाति कभी मिट्टी के बर्तन की आपूर्ति करती थी, उस जाति, यानी कुम्हार जाति की नयी पीढ़ियों के दो-तीन बच्चे आज यहां के पिछड़ी-अतिपिछड़ी जातियों के साथ-साथ ब्राह्मणों के बच्चे को भी शिक्षा की रौशनी दिखा रहे हैं। वोटरों की संख्या के लिहाज़ से रुन्नी सैदपुर विधानसभा की जीत-हार का फ़ैसला करने वाले इस गांव के दो सबसे बड़े शैक्षणिक संस्थाओं का स्वामित्व इसी अति-पिछड़ी जाति, यानी कुम्हार जाति के नौजवान के हाथों में हैं और इनमें से एक की पत्नी तो ज़िला परिषद की सदस्य भी है।

यहां की लड़कियां कई सरकारी नौकरियों में है। इस गांव की एक जाति अमात है, जो स्वयं को कुर्मी की एक उपजाति मानती है और हाल के दिनों में उस जाति की एक लड़की ने ज्यूडिशियरी एक्ज़ाम पास करके गांव के लिए इतिहास रच दिया है। नाम नहीं छापने की शर्त पर मानिक चौक गांव का एक नौजवान बताता है कि जिस लड़की ने ज्यूडिशियरी की परीक्षा पास कर ली है और इस समय न्यायिक सेवा में है, उसके अतीत की कहानी भी कम दिलचस्प और संकटपूर्ण नहीं है।

उसने बताया कि उस लड़की की मां मुज़फ़्फ़रपुर में मारवाड़ियों के घरों में झाडू-पोंछा लगाया करती थी। मामूली आमदनी वाले उस परिवार ने इस लड़की की शादी बहुत ही कम उम्र में अपनी ही जाति के एक लड़के से कर दी थी। लड़का और लड़के का परिवार दिल्ली रहते थे, इसलिए वह भी उनके साथ दिल्ली आ गयी। कुछ ही दिनों बाद उसके साथ हिंसा शुरू हो गयी और लम्बे समय तक घरेलू हिंसा सहने के बाद विद्रोह कर वह वापस बिहार लौट आयी। लड़के के ख़िलाफ़ प्रताड़ना का केस दर्ज कर वह पढ़ाई करने इलाहाबाद यानी प्रयागराज चली गयी और कुछ ही दिनों बाद बिहार न्यायिक सेवा के लिए चुन ली गयी। कल की वह प्रताड़ित लड़की आज मानिक चौक गांव की नायिका है।

बिहार में इस तरह के जो सामाजिक बदलाव हो रहे हैं, वह यों ही नहीं हो रहे, उसके पीछे ठोस सरकारी पहल है, लड़कियों और महिलाओं के लिए चलायी जाने वाली कई शानदार योजनायें हैं। बिहार में इस समय पंचायती राज और नगर निकाय में पचास प्रतिशत आरक्षण है। महिलाओं के पास आज ज़िला परिषद अध्यक्ष, मेयर, मुखिया, प्रमुख समेत अन्य पदों पर आसीन होने का अवसर है।

नीतीश के राज में महिलाओं का सशक्तिकरण इस क़दर हुआ है कि आज महिलाएं या लड़कियां दहलीज से बाहर निकलकर समाज में अग्रणी भूमिका निभा रही हैं। शिक्षक बहाली, पुलिस सेवा से लेकर अन्य तमाम सरकारी सेवाओं में उनके आरक्षण ने नौकरियों और संस्थाओं में उनकी मौजूदगी को सतह पर ला दिया है। आर्थिक और राजनीतिक रूप से सशक्त होती महिलाओं की गूंज सामाजिक स्तर पर सिर्फ़ सुनायी ही नहीं दे रही है, बल्कि पुरुषों को यह समझाने में भी कामयाब रही है कि अब वह महज़ बायोलॉजिकल प्रोडक्ट भर नहीं, बल्कि एक एंटिटी के रूप में मर्दों से ज़्यादा नहीं, तो बराबरी के तौर पर सशक्त हैं।

नीतीश कुमार के जिस बयान की आज चारों तरफ़ निंदा और आलोचना हो रही है, उस बयान को बिहार में हुए पिछले दो दशकों के सामाजिक और ख़ास तौर पर लिंगगत बदलाव के संदर्भ में देखे जाने की ज़रूरत है। संभव है कि नब्बे के दशक से पहले पैदा हुई महिलाओं को भी नीतीश का यह बयान अनुचित लगा हो, लेकिन जिन महिलाओं या लड़कियों ने नीतीश की योजनाओं वाली साइकिल पर सवार होकर घर से स्कूल की दूरी को छोटा बनाते हुए स्कूल के कैंपस में दाखिल होती रही हैं, उन महिलाओं या लड़कियों के लिए नीतीश का यह बयान सामाजिक या लिंगगत बदलाव के मील के पत्थऱ से कम नहीं है।

उन्हें मालूम है कि नीतीश के इस बयान का अर्थ क्या है। बयान के निंदक या आलोचकों के लिए नीतीश का यह बयान ठीक उसी तरह का अनर्गल प्रलाप और अश्लील है, जैसे कि साढ़े तीन दशक पहले लालू प्रसाद यादव का ऊंची जातियों को हड़दी बुलवाने वाले बयान की निंदा या आचोलना हुई थी।

सचाई यही है कि साढ़े तीन दशक पहले मीडिया और ख़ुद के अभिव्यक्त करने वाले मंच पर जिस तरह से सवर्णों का बोलबाला था, ठीक उसी तरह आज इन मंचों पर मर्दों और मर्दों को सपोर्ट करने वाली महिलाओं का दबदबा है। ऐसे में नीतीश के इस बयान की आलोचना या निंदा का सामने आना बहुत स्वाभाविक है। लेकिन, आने वाले दिनों में इस निंदा या आलोचना करने वालों का वही सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक या लैंगिक हश्र होने वाला है, जो कभी सवर्णों का सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक हश्र हुआ था।

महिला सशक्तिकरण को लेकर 21वीं सदी में नीतीश का यह बयान कुछ उसी तरह का असभ्य नज़र आता है, जिस तरह 20वीं सदी के आख़िरी दशक में लालू का भूराबाल साफ़ करो वाला बयान मूर्खतापूर्ण नज़र आता था। नीतीश का यह बयान सही मायने में इस बात की भी एक झलक है कि लालू प्रसाद यादव के जातीय आधार पर शुरू हुआ वह सामाजिक आंदोलन अपने सैचुरेशन प्वाइंट तक पहुंच चुका है, जहां के बाद अगड़ों और पिछड़ों के बीच किसी तरह के संघर्ष की जुंबिश की अब कोई गुंजाइश नहीं है।

बहुजन का नारा सही मायने में अब यादवों और कुशवाहा-कुर्मियों के नेतृत्व की आकांक्षा की पराकाष्ठा वाला नारा बनकर रह गया है, जो अब अतिपिछड़ों और दलितों को मंज़ूर नहीं है। इस नामंज़ूरी के सामानांतर बिहार में अब महिला सशक्तिकरण का एक नया आंदोलन चल रहा है, जो आने वाले दिनों में जातीय समीकरण पर भारी पड़ने वाला है। इस आंदोलन के हाथ में झंडे, बैनर और किसी ख़ास रंग की टोपियां नहीं है। यह एक ख़ामोश बदलाव का आंदोलन है, जो नीतीश कुमार के साथ मुखर रूप से नज़र भले ही नहीं आ रहा हो, लेकिन यह चुनाव में अपना रंग ज़रूर दिखायेगा।

जिन्हें नीतीश का यह बयान वल्गर लगता हो, उन्हें अपने घर-सामाज और आपस में इस्तेमाल होने की भाषा पर ग़ौर करना चाहिए; जिन्हें इसमें सेक्सुअलिटी नज़र आती हो, उन्हें महिलाओं और लड़कियों को लेकर अपने विचार के सिलसिले में अपने सीने पर हाथ रखकर स्वयं से पूछ लेना चाहिए। इसका सही अर्थ तो उन महिलाओं या लड़कियों को पता है, जिन्हें सशक्त होने की सही क़ीमत मालूम है।

ये महिलायें या लड़कियां अब अपने भाइयों, पिताओं या पतियों से हक़ दिये जाने के इंतज़ार में नहीं हैं, इनके क़दम हक़ पाने की तरफ़ बढ़ गये हैं और इसमें कोई शक नहीं कि इनके इस मनोवैज्ञानिक आधर को मज़बूत करने में जहां समय-समय पर अदालत के दिए फ़ैसलों की भूमिका है, वहीं पिछले डेढ़ दशक में नीतीश कुमार की विभिन्न पहल और योजनाओं का भी दमदार असर है।

कुछ लोग मानते हैं कि नीतीश का मानसिक संतुलन गड़बड़ हो गया और कुछ लोग तो यहां तक चले गये हैं कि नीतीश का यह वल्गर बयान मां-बहनों का अपमान है। लेकिन, वल्गैरिटी और सेक्सुअलिटी से गुज़रती हुई इन्हीं मां-बहनों की जुबान पर सेक्स को लेकर “ना” कहने की जिस कारण से हिम्मत आ पायी है, उन कारणों को मिटाने में एक दशक पहले यूनिवर्सल “हां’’ को इस “ना’’ में बदलने की उस राजनीतिक कोशिश का भी हाथ रहा है, जिसका नेतृत्व नीतीश कुमार ने किया है।

(उपेंद्र चौधरी वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

You May Also Like

More From Author

5 1 vote
Article Rating
Subscribe
Notify of
guest
0 Comments
Inline Feedbacks
View all comments