प्रशांत भूषण ने रिट दाखिल कर कहा उनके खिलाफ अवमानना याचिका में प्रक्रियात्मक नियमों का हुआ उल्लंघन

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वरिष्ठ वकील प्रशांत भूषण ने अपने विरुद्ध अवमानना मामले के खिलाफ उच्चतम न्यायालय में याचिका दाखिल की है। याचिका में अवमानना मामले की सुनवाई का आदेश वापस लेने की मांग की गई है। याचिका में यह भी कहा गया है कि महक माहेश्वरी ने अवमानना याचिका दायर करने के लिए अटॉर्नी जनरल की अनुमति नहीं ली है।

महक माहेश्वरी द्वारा याचिका के आधार पर अवमानना कार्रवाई शुरू की गई है, जो कि अवैध है और उसे रद्द किया जाए। याचिका में कहा गया है कि सेक्रेटरी जनरल  की कार्रवाई “अवैध” है और ‘रोस्टर के मास्टर’ के रूप में भारत के मुख्य न्यायाधीश की भूमिका को हथिया लेने सरीखी है।

याचिका में कहा गया है कि चार जजों की प्रेस कांफ्रेंस के बाद उच्चतम न्यायालय ने यह स्पष्ट रूप से घोषित किया था कि भारत के चीफ जस्टिस रोस्टर के मास्टर हैं और उनके पास बेंच का गठन करने और बेंच को मामले सौंपने के लिए अनन्य विशेषाधिकार हैं।

याचिका में कहा गया है कि सेक्रेटरी जनरल की कार्रवाई मुख्य न्यायाधीश की शक्तियों को हथिया लेने सरीखी है और इसलिए गैरकानूनी है और  इस प्रकार यह व्यवस्थित कानून के साथ-साथ सुप्रीम कोर्ट नियम 2013 के विपरीत है। याचिका वकील कामिनी जायसवाल द्वारा दायर की गई है और वरिष्ठ अधिवक्ता दुष्यंत दवे भी इसमें शामिल हैं।

याचिका में इन दोनों आदेशों को वापस लिए जाने, या वैकल्पिक रूप से अदालत की नियमित सुनवाई फिर से शुरू होने पर सुने जाने की मांग की गई है। याचिका में कहा गया है कि उच्चतम न्यायालय के नियम 2013 के तहत माहेश्वरी को दोषपूर्ण अवमानना याचिका को वापस करने की आवश्यकता थी।

इसके बजाय सेक्रेटरी जनरल ने मामले को जस्टिस मिश्रा, जस्टिस बीआर गवई और जस्टिस कृष्ण मुरारी की पीठ के समक्ष सूचीबद्ध कर दिया। सेक्रेटरी जनरल की कार्रवाई “असंवैधानिक, अवैध और शून्य है।

याचिका में यह भी कहा गया है कि माहेश्वरी द्वारा दायर अवमानना याचिका “दोषपूर्ण” है, क्योंकि इसके लिए अटॉर्नी जनरल या सॉलिसिटर जनरल की पूर्व सहमति नहीं थी, क्योंकि न्यायालय अधिनियम 1971 की धारा 15 तथा रूल्स टू रेगुलेट प्रोसिडिंग फार कंटेम्प्ट ऑफ़ सुप्रीम कोर्ट 1975 के नियम 3 के तहत ऐसा करना अनिवार्य है।

याचिका में कहा गया है कि सेक्रेटरी जनरल  ने न केवल न्यायालय अवमान अधिनियम की अवहेलना का उल्लंघन किया है, बल्कि उनके कार्यों ने याची प्रशांत भूषण को संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत प्राप्त  गरिमा और स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार का भी उल्लंघन किया है।

याचिका में कहा गया है कि अदालत ने उस याचिका का स्वत: संज्ञान लिया है जो दोषपूर्ण थी और इसलिए, जो प्रत्यक्ष रूप से नहीं किया जा सकता था, वह अप्रत्यक्ष रूप से किया गया।

श्री माहेश्वरी की याचिका का स्वत: संज्ञान लेकर इस न्यायालय ने अटॉर्नी जनरल या सॉलिसिटर जनरल की सहमति लेने की आवश्यकता को नज़रंदाज़ किया जो कि कानून का व्यक्त और गैर-अपमानजनक जनादेश है।

योगेंद्र यादव ने द प्रिंट में प्रकाशित अपने लेख में प्रशांत भूषण के विरुद्ध अवमानना की कार्रवाई पर सवाल उठाया है और कहा है कि बहस का मुद्दा प्रशांत भूषण नहीं हैं। मामला ये नहीं है कि क्या प्रशांत भूषण ने अपनी बात कहने में किसी मर्यादा का उल्लंघन किया है। मामला तो दरअसल ये है कि क्या देश की सर्वोच्च अदालत में सर्वोच्च आसन पर बैठे कुछ पदाधिकारियों के हाथों निहायत बुनियादी किस्म के संवैधानिक, कानूनी और नैतिक मान-मूल्यों को चोट पहुंची है।

बीते तीन दशक से प्रशांत भूषण लगातार जनहित के मुद्दे पर बोलते रहे हैं, उन्होंने अपनी बात पर्याप्त जिम्मेदारी के भाव से कही है और ऐसा कहते हुए उन्होंने पेशेवर तथा निजी जिन्दगी के जोखिम उठाए हैं। अवमानना के मामले से एक अवसर मिला है कि प्रशांत भूषण ने जो मसले उठाए हैं, उन पर चर्चा हो।

उच्चतम न्यायालय ने प्रशांत भूषण के खिलाफ अवमानना के 11 साल पुराने मामले को फिर से उठाने का तय किया है तो सुनवाई से उस गंभीर मसले का उत्तर क्या मिलेगा जो प्रशांत भूषण ने तहलका के अपने मूल इंटरव्यू में उठाया था।

जब साल 2009 में अवमानना के मामले में पहली बार अदालती प्रक्रिया शुरू हुई तो प्रशांत भूषण ने अपने आरोपों के साथ अदालत को तीन हलफनामे सौंपे थे। नमें आरोपों की पुष्टि में दस्तावेजी प्रमाण दिए गए थे।

हलफनामे में साल 1991 से 2010 के बीच भारत के मुख्य न्यायाधीश के पद पर विराजमान रहे 18 जजों में से आठ का नाम लिया गया था और उनके विरुद्ध भ्रष्टाचार (जरूरी नहीं कि ये मामले घूसखोरी या फिर रुपयों के लेन-देन से जुड़े हों) के विशिष्ट मामलों का उल्लेख किया गया था और इन मामलों के पक्ष में यथासंभव दस्तावेजी साक्ष्य संलग्न किए गए थे, लेकिन अदालत कभी इन साक्ष्यों की परीक्षा के लिए बैठी ही नहीं।

मामले में आखिरी सुनवाई आठ साल पहले हुई थी और तब से मामले पर एकदम से चुप्पी है। अवमानना के मामले में उच्चतम न्यायालय में होने जा रही सुनवाई एक ऐतिहासिक अवसर है जब लंबे समय से उपेक्षित रहे कुछ अहम मसलों पर सार्वजनिक रूप से बहस का मौका होगा।

योगेंद्र यादव ने कहा है कि प्रशांत भूषण के ट्विट पर स्वतः संज्ञान लेते हुए अदालत ने जो मामला हाथ में लिया है, वो भी स्वागतयोग्य है। मुख्य न्यायाधीश एसए बोबडे से संबंधित ‘मोटरसाइकिल ट्वीट’ के विरुद्ध एक लचर सी याचिका को संज्ञान में लेना अदालत की प्रतिष्ठा के अनुकूल नहीं है।

फिर भी इससे एक महत्वपूर्ण बात उभर कर सामने आई है कि अदालत का कामकाज इतने लंबे समय तक बंद रहा, देश में तो अनलॉक की प्रक्रिया लगातार जारी है लेकिन नागरिकों की पहुंच अभी तक इंसाफ के मंदिर तक दूभर बनी हुई है।

इस सिलसिले की आखिरी बात ये है कि हमें अवमानना के मामले में होने जा रही सुनवाई से उम्मीद रखनी चाहिए कि उससे कानून और लोकतंत्र से जुड़े एक बुनियादी सवाल का उत्तर मिलेगा। सवाल ये कि सच्चाई अगर अदालत के लिए असहज करने वाली हो तो क्या ऐसी सच्चाई को अदालत की अवमानना माना जाएगा?

क्या अदालत के बारे में कोई साक्ष्य-पुष्ट विधिवत दर्ज राय, जिसकी परीक्षा होनी शेष है, अदालत की अवमानना के तुल्य समझ ली जाए? क्या अदालत के आंगन के अनैतिक आचार के खिलाफ बोलने से पहले किसी व्यक्ति को अपने हर आरोप की सच्चाई साबित करके कदम बढ़ाना चाहिए? और, इसी सिलसिले का सवाल है कि क्या किसी व्यक्ति को अवमानना के लिए दंडित करने से पहले अदालत को ये साबित करना होता है कि उस व्यक्ति ने जो कुछ भी कहा है वो सब गलत है?

योगेंद्र यादव ने कहा है कि ऐसी सुनवाई खुली अदालत में होनी चाहिए, चंद लोगों की पहुंच वाले कंप्यूटर स्क्रीन तक उसे सीमित रख कर चलना ठीक नहीं। साक्ष्यों को प्रस्तुत करने और उनकी जांच के लिए पर्याप्त समय दिया जाना चाहिए, जैसा कि निचली अदालतों की सुनवाई में होता है।

सुनवाई पांच वरिष्ठतम जजों (या भावी मुख्य न्यायाधीशों) की पीठ करे, इसमें मौजूदा मुख्य न्यायाधीश को शामिल न किया जाए (क्योंकि ट्वीट में उनका नाम है) तथा जस्टिस अरुण मिश्र को भी ऐसी सुनवाई में शामिल ना किया जाए, क्योंकि प्रशांत भूषण के पास ये मानने के पर्याप्त कारण है कि जस्टिस अरुण मिश्र के होते उनके साथ इंसाफ नहीं हो सकता।

योगेंद्र यादव ने कहा है कि प्रशांत भूषण ने अपने शपथपत्र में जो कुछ कहा है वो साबित होती है तो फिर क्या अदालत बहु-प्रतीक्षित आत्म-परीक्षण के काम में लगेगी और अपने भीतर दूरगामी संस्थानिक सुधार के बाबत सोचेगी?

अगर ऐसा नहीं होता तो प्रशांत भूषण पर चला अदालत की अवमानना का मामला एडीएम जबलपुर जैसा ही एक अन्य मामला साबित होगा जो भारतीय अदालत की आत्मा को आने वाले लंबे वक्त तक कचोटेगा।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और कानूनी मामलों के जानकार हैं। वह इलाहाबाद में रहते हैं।)

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