“एक बार कलेक्टर एक गांव में गए, वहां पर एक कुआं तीन साल से आधा खुदा पड़ा था, और लगभग 45 लोगों को उसकी मजदूरी नहीं मिली थी। जब कलेक्टर गए तो पूछा कि क्या समस्या है, लोगों ने बताया कि गांव में रास्ता नहीं है, दबंग लोगों के खेत हैं, वह हमें रास्ता नहीं दे रहे हैं, पानी की सुविधा नहीं है, हमारे पास तालाब है लेकिन सिंचाई नहीं कर सकते क्योंकि दूसरे बड़े-बड़े काश्तकार सिंचाई कर लेते हैं, गांव का तालाब जब सूखता है तब हमें वहां जाने को मिलता है। फिर वहां पर पांचवीं पास एक लड़की दुर्गा मवासी ने कलेक्टर से पूछा कि हमारे मजदूरों के काम की एम.बी. होती है, कार्य के हिसाब से हमारी मजदूरी दी जाती है, आप लोग जो मोटी-मोटी तनख्वाह पाते हो, आपके काम की एमबी कैसे होती है? कलेक्टर साहब इधर-उधर देखने लगे, तो मुझे बड़ा सुकून मिला कि जिन लोगों को हम जागरूक करने में लगे हैं, वह जागरूक हो रहे हैं”।
ये वाकया सुनाते हुए मझगवां के प्रतीक बताते हैं कि जब मेरी शादी हुई तो ससुराल के लोग समझते थे कि मैं अध्यापक हूं। पत्नी की भी शिकायत रहती थी कि आप बहुत मीटिंग करते हैं, अधिकतर बाहर ही रहते हैं। बहुत समय लगा अपने कामों और उसके महत्व को समझाने में, जो बहुत कठिन था। अब पारिवारिक और सामाजिक स्थिति यह है कि हमारे कामों को समझते हैं, सपोर्ट करते हैं और संतुष्ट हैं हमारे काम से परिजन अब गर्व महसूस करते हैं। प्रतीक सतना जिले के आदिवासी बहुल मझगवां इलाके के लगभग 50 गांवों में सामुदायिक समूहों के 2000 लोगों की भागीदारी से विभिन्न आयामों के साथ बदलाव के प्रयासों में लगे हैं। पिछले डेढ़ दशक से गरीब, आदिवासी, दलित एवं समाज के अन्य पिछड़े तबके के हक़ एवं अधिकारों को सुनिश्चित करने हेतु सामुदायिक संगठन निर्माण, जागरूकता और सरकार के सम्बंधित विभागों के साथ समन्वय का काम कर रहे हैं।
प्रतीक गुप्ता मध्यम वर्गीय परिवार में जन्मे, पुश्तैनी घर मप्र-उप्र की सीमा पर स्थित अतर्रा में है। पिता जी रेडीमेड गार्मेंट का व्यवसाय करते थे। पढ़ाई-लिखाई तो ग्रेजुएशन तक हुई। प्रतीक के पिताजी के मित्र सामाजिक कार्य करते थे, तो उनकी वजह से कई संस्थाओं में जाने और कामों को समझने का मौका मिलता था। प्रतीक का रूझान इस सेक्टर की तरफ गया, और लगा कि “मुझे भी ऐसा ही कुछ काम करना चाहिए, आज जिस तरह की सामाजिक विसंगितियां हैं, अधिकारों का हनन हो रहा है, ग्रामीण इलाकों में जो शोषण है वह सब खत्म होना चाहिए, सबको बराबरी का दर्जा मिले, सबको सम्मान से जीने का अवसर मिले।
प्रतीक ने बीएससी किया, फिर चित्रकूट ग्रामोदय विद्यालय से समाज कार्य में मास्टर किया, पढ़ाई के दौरान भी समझने को मिला कि समाज क्या होता है, कई तरह की विचारधाराओं- गांधी जी, अम्बेडकर को पढ़ने समझने का मौका मिला। पढ़ाई के बाद कुछ संस्थाओं में नौकरी की। शुरुआत में कुछ संस्थाओं में काम किया, फिर चित्रकूट में आदिवासी इलाकों में कई साल तक काम किया, लेकिन ये सब संस्थाओं की नौकरी थी और एक तरह के ढर्रे का काम था, फिर कुछ दिनों तक नौकरी छोड़ कर विचार मंथन में समय लगाया कि क्या किया जाए। जीवन के इस मोड़ पर सही है या नहीं- इस पर सोच विचार चलता रहा, लगा कि बाहर निकलना चाहिए, तो एक साल तक लखनऊ में काम किया, फिर दिल्ली चला गया। कुल मिलाकर समझ यह बनी कि यहां पर सुविधाएं अच्छी हैं, पैसा भी ठीक मिलता है लेकिन जिस समझ के साथ हम बदलाव करने आए थे कि जमीन पर काम करना है, लोगों के जीवन में बदलाव लाना है, वो मकसद पूरा नहीं हो रहा है। तय किया कि अब नौकरी नहीं छोटे समुदाय के साथ काम करेंगे, भले ही दो, चार, पांच गांव में काम करेंगे -जिससे हम लोगों के जीवन में सीधे ही कोई परिवर्तन देख पाएं, अपनी पढ़ाई और अनुभव का प्रयोग लोगों के जीवन बदलने में कर पाएं।
चित्रकूट इलाके को अच्छे से जानता था जानने वाले लोग थे, और लगा था कि यहां पर काम करने की ज्यादा जरूरत है। मझगवां के इलाके में लोगों के साथ बैठकर स्थिति के बारे में, उनके अधिकारों और सरकारी योजनाओं से मिलने वाले लाभों के बारे में पता लगाया, सरकार की सामाजिक सुरक्षाओं की बड़ी सारी योजनायें हैं पर जमीन पर इनका क्रियान्वयन सही नहीं था। यह भी अध्ययन किया कि वास्तव में लोगों को क्या मिल रहा है?
शुरुआती काम के दौरान समझ थी कि यह सामंतशाही वाला इलाका है इसलिए भू अधिकारों के लिए काम करना है, बड़े लोगों ने पिछड़े या जानकारी से दूर लोगों की जमीन पर कब्जे कर रखे थे। गांव में जमीन की क्या स्थिति है, बंटवारा, नामांतरण, कब्जा आदि की हालत बहुत खराब थी, फिर प्रतीक ने प्रशासन को बताना शुरू किया कि यह जमीन किसकी है, जमीनों पर अवैध कब्जे किसके हैं? इसका असर यह हुआ कि लोग एकजुट होने लगे छिटपुट रूप से आंदोलन होने लगे। इसमें चुनौती यह रही कि कुछ मामलों में कोर्ट के मसले अटकते थे। इसलिए हमें मुकदमों में जाना पड़ा। वित्तीय संसाधन और मानव बल भी उस तरह से नहीं था जो इस तरह के काम में आवश्यक था।
इस तारह के काम को प्रोत्साहित करने के लिए क्राय संस्था की ओर से छोटी से शिष्यवृत्ति मिल गई, तो आर्थिक मसला कुछ हद तक हल हुआ। इसी दौरान परिचय का दायरा बड़ा, विभिन्न संस्थाओं के साथ नेटवर्क विकसित हुआ। फील्ड पर जाता था तो यह देखा कि बच्चों की स्थिति बहुत दयनीय थी, दस्त जैसी बीमारी से उनकी असमय मृत्यु हो जाती थी। यह समझ बनी की खाद्य असुरक्षा का चक्र टूट गया है, खासतौर पर यहां के मवासी, गौंड और कोल आदिवासी समुदायों में खाद्य सुरक्षा की स्थिति बहुत दयनीय थी। इनकी आजीविका का बहुत बड़ा भाग लघु वनोपज से आता था, जलवायु परिवर्तन और वन विभाग के जो नये एक्ट बने उनके कारण संसाधन उनकी पंहुच से दूर हो गए – जिसका असर बच्चों पर कुपोषण के रूप में दिखता था, महिलाओं में एनिमिया के रूप में दिखता था।
चूंकि इस क्षेत्र का यह मुद्दा ज्वलंत था तो 2010 से इस मुद्दे पर काम करने की शुरुआत की। समुदाय को जागरूक करने का, सरकार के विभिन्न विभागों के साथ लायजनिंग और एडवोकेसी करना शुरू किया। पहले तो आंगनवाड़ी केंद्रों में बच्चों के पंजीयन ही नहीं होते थे, मानिटरिंग भी नहीं होती थी। शुरू में तो प्रशासन के साथ विवाद की स्थिति भी बनी, बहुत जांचें हुईं बहुत लिखा पढ़ी हुई, तो इस तरह से करते-करते हमको बहुत सफलता मिली।
स्वास्थ्य सुविधाओं में, बच्चों के कुपोषण के स्तर में काफी सुधार आया। फिर हम सरकार को सुझाव भी देने लगे कि इस तरह से काम करें तो सुधार होगा। खुला पोषण आहार देने से दिक्कतें आती हैं, खराब हो जाता है, इसकी कालाबाजारी होती है, लोग अपने जानवरों को खिलाते हैं। इस तरह की अनुशंसाएं विभाग के लोगों से चलने लगी।
पहले तो हम सरकार पर सवाल उठाने का ही काम करते थे, पर फिर सरकारी कार्यक्रमों में हमने भागीदारी बढ़ाई। बैठकों में एक घंटे के लिए हमें समय दिया गया जिसमें हमने आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं की ट्रेनिंग की, स्टेट नेटवर्क से जुड़े साथियों ने हमारी क्षमता वर्धन का भी काम किया। कुपोषण को खत्म करने के लिए किशोर उम्र की बच्चियों को भी साथ लिया, परिवार में जेंडर आधारित भेदभाव मिटाने पर काम किया, गर्भवती महिलाओं के साथ भी काम किया ताकि गर्भावस्था में उनकी तीन जांचें हों, टीके लग जाएँ, उनका खानपान और आराम पर निगरानी रखी, सुरक्षित प्रसव के लिए जननी सुरक्षा योजना के लाभ दिलवाए।
कुछ गांवों में काम करके एक मॉडल खड़ा किया है। हम उसी दिशा में पिछले 5-6 सालों से आगे बढ़े हैं। मझगवां इलाके में मवासी समुदाय के लोग अधिक हैं। इस समुदाय में मातृ मृत्युदर अधिक है, बच्चों की मृत्युदर अधिक है,शिक्षा के स्तर बहुत कमजोर हैं, योजनाओं की लोगों तक पहुंच नहीं है। वर्तमान में खाद्य सुरक्षा के मामले में हम कोशिश कर रहे हैं कि समुदाय किसी योजना का मोहताज ना हो, आत्म निर्भर बन सके। इसके लिए हम लोगों ने इन गांवों में महिलाओं, युवाओं और किसानों के समूह बनाएं हैं – जिनको हम मुद्दों पर समझ बनाने में मदद करते हैं ताकि वे हर बात को समझ कर स्व पहल निर्णय करके कदम उठा सकें। यह पहाड़ी क्षेत्र है यहां पर पानी की समस्या है, सिंचाई संसाधनों के लिए पानी नहीं है, कुछ गांव तो ऐसे हैं जहां वर्ष भर पानी नहीं रहता है, दूर-दूर से लोग पानी लाते हैं। नए हैंड पम्प यहां सफल नहीं हैं। हमने यह चुनौती स्वीकार की कि यहां पर पुराने जो भी प्राकृतिक स्रोत हैं उन्हें संरक्षित करेंगे और हम गांवों के बुजुर्ग ही लोगों के पास जो जानकारी है उसी के अनुसार संरक्षित कर रहे हैं, ये पानी बना रहे और साफ सुधरा रहे, जल स्रोतों की मरम्मरत वगैरा का काम कर रहे है।
कुछ लोगों से बात करके यह अनुभव आया है कि पहले जो मोटे अनाज थे, खासतौर पर खरीफ फसलों के अनाज विलुप्त हो गए हैं। जहां सूखा क्षेत्र है वहां दलहन की खेती ठीक हो जाती है, यहां के लोग भी व्यवसायिक खेती की तरफ चले गए जैसे गेंहू, चना एवं सरसों की फसलें ज्यादा ले रहें है। हम यह भी प्रयास कर रहे है कि लोगों को देशी बीज दें और गांव में एक कमेटी बना कर बीज बैंक जैसा बना दे, ताकि लोग अपनी जरूरत के हिसाब से बीज ले, फसल उगाएं, फसल आने पर बीज लौटा दें, जिससे यह चक्र चलता रहे। पिछले दो-तीन सालों से किचन गार्डन 2500 परिवारों में विकसित किए है। लोगों को कानूनी तौर पर जागरूक कर रहे हैं – खास तौर पर जंगल क्षेत्रों में रहने वाले लोगों के लिए मनरेगा, वन अधिकार अधिनियम, खाद्य सुरक्षा अधिनियम, सूचना अधिकार अधिनियम आदि। इसके बारे में युवाओं और महिलाओं को जागरूक करके इनके बारे में बताना और पहल करवाना। अब युवा और महिलायें आवेदन दे रहे हैं।
अब तक के प्रयासों से 2000 कुपोषित बच्चों के स्वास्थ्य को बेहतर किया है , 3000 गर्भवती /धात्री माताओं के प्राथमिक स्वास्थ्य की सेवाएं सुनिश्चित की है, 300 से अधिक परिवारों को वनाधिकार कानून के तहत 500 एकड़ जमीन में मालिकना अधिकार मिला है। प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा में 2000 से अधिक बच्चों को जोड़ा है।
एक लम्बी प्रक्रिया से बदलाव तो बहुत हुए हैं परन्तु जिस तरह से हम काम करना चाहते थे वह अभी भी दूर है, हालांकि अब लोग जागरूक हैं और सरकारी विभागों में जवाबदेही का मसला भी बढ़ा है पर आदिवासी समूहों में बदलाव होना इतना आसान नहीं है, और यह बहुत धीमा होता है, बहरहाल प्रतीक का काम आश्वस्त करता है कि महानगरों की चकाचौंध से दूर रहकर भी छोटे समूहों में बदलाव संभव है, और जमीनी स्तर पर काम होते हैं और चीजें बदलती हैं।
(मनोज निगम लेखक और सामाजिक कार्यकर्ता हैं।)