Sunday, April 28, 2024

सवर्ण वर्चस्ववाद के प्रतीक पुरुष राम क्यों RSS-BJP के खिलाफ संघर्ष में किसी काम के नहीं हैं?

राम पर केंद्रित ‘आदिपुरुष’ फ़िल्म को लेकर चल रहे शोर-शराबे के बीच पा. रंजीत की 2018 में आई फ़िल्म ‘काला’ को याद किया जाना चाहिए। हेजेमनी के संघर्षों से जुड़े सवालों को सीधे सम्बोधित करने वाली यह फ़िल्म सीमित दर्शक वर्ग को ध्यान में रखकर बनाई गई कोई कला फ़िल्म नहीं है। यह एक कमर्शियल फ़िल्म है और जिस बात को बुद्धिजीवी नज़रअंदाज़ करते रहे हैं और प्रतिरोध की राजनीति करने वाली प्रगतिशील ताक़तें भी जनता के बीच नहीं ले जा सकीं, उसे यह फ़िल्म पूरी स्पष्टता और मुखरता के साथ रखती है।

काला की भूमिका में पा. रंजीत इसीलिए सुपर स्टार रजनीकांत को चुनते हैं। एक सामान्य कद-काठी का यह नायक मुंबई के उन प्रवासी मेहनतकश दलित-वंचित-अल्पसंख्यक समुदायों का प्रतिनिधित्व करता है जिन्होंने धारावी को अपने खून-पसीने से खड़ा किया है। हिंदुत्ववादी राजनीति के सहारे सवर्ण प्रभुत्व की राजनीति करने वाले ताक़तवर भूमाफिया राजनीतिज्ञ हरि दादा की भूमिका में नाना पाटेकर हैं। काला अपने जन (बहुजन) के अधिकारों, संघर्षों, प्रतीकों, विचारकों-नायकों और ख़तरों को लेकर बिल्कुल साफ़ है तो हरि दादा के मन में भी सदियों से जारी अन्याय और उत्पीड़न को लेकर कोई द्वंद्व नहीं है। वह साफ़ जानता है कि वह जो कर रहा है, एक भयानक अन्याय है। वह काला को मारने की योजना पर काम कर रहा होता है तो उसकी कोठी पर रामकथा चल रही होती है।

जनता के अधिकारों और संघर्षों के नायक काला की हत्या उसके लिए रावण वध की तरह है। वह ख़ुद राम की जगह है। पा. रंजीत जिस स्पष्ट और कम्युनिकेटिव ढंग से यह बताते हैं, वैसा करना सवर्ण सेकुलर बुद्धिजीवियों ने कभी चाहा ही नहीं। इसी फ़िल्म का एक बड़ा मौज़ूं दृश्य याद आ रहा है। गणेश विसर्जन का। मुंबई के भू-माफ़िया, हिंदुत्ववादी नेता, मंत्री और पूर्व गैंगस्टर हरि भाई के प्यादे गुंडे एमएलए विष्णु को धारावी के वंचितों का नायक काला मारता है। सीन में काला धारदार हथियार से विष्णु पर वार करता दिखाई देता है। विष्णु की गर्दन पर हथियार पहुंचने से पहले ही दृश्य इतनी तेज़ी से बदलता है कि गणेश की प्रतिमा पानी में गिरती हुई दिखाई देती है।

फ़िल्म तल्ख़-धारदार संवादों के साथ बहुत ही सचेत ढंग से पात्रों के प्रतीकात्मक नामों, ऐसे तीखे प्रतीकात्मक दृश्यों और स्पष्ट बोलते संकेतों से भरी पड़ी है – ‘काले और गोर रंग को लेकर, अमीर-गरीब को लेकर, अच्छे-बुरे को लेकर, राजनीति में और जनता को लूटने के लिए धर्म के इस्तेमाल को लेकर।

यह ज़िक्र इसलिए क्योंकि जिस दक्षिणपंथी एजेंडे की सेवा में ‘आदिपुरुष’ फिल्म बनाई गई है, उसी के मुरीद जिस तरह आरएसएस प्रेमी मनोज मुंतशिर शुक्ला के लिखे ‘टपोरी’ संवादों को लेकर आहत होते हुए राम-हनुमान आदि पात्रों की मर्यादा, उदात्तता और रामचरित मानस से लेकर रामानंद सागर के सीरियल रामायण को आदर्श की तरह याद कर रहे हैं, बहुत से प्रगतिशील बुद्धिजीवी भी फ़िल्म की राजनीति की आलोचना करते हुए तुलसी, रामानंद सागर और रामायण के पात्रों की मर्यादा, उदात्तता को लेकर भावुक हो रहे हैं। जाहिर है कि इस फिल्म को लिखने बनाने वालों को जिनका आशीर्वाद है, आहत होने वाले भक्तगण भी उन्हीं के लोग हैं लेकिन प्रगतिशीलों के इस हाल की वजह क्या है?

रामनवमी के जुलूुसों के नाम पर मुसलमानों के साथ बार-बार व्यापक हिंसा हो, बेबस मुसलमानों को लिंच करने की वारदातें हों, तीन शब्दों ‘जय श्री राम’ को बार-बार हुंकार की तरह गुंजाया जाता रहा है। लेकिन ‘भले-भोले’ और बहुत से प्रगतिशील दोस्त राम के नाम की बदनामी को लेकर अफ़सोस मनाते दिखाई देते रहे हैं। जैसे मशहूर फिल्मी गीत के मुखड़े  ‘राम का नाम बदनाम ना करो’ की टेर लगाते रहना उनके लिए ‘कुछ इश्क़-कुछ मज़बूरी’ हो। हैरानी इस बात पर है कि ‘इन लोगों ने राम के नाम के ऐसे इस्तेमाल की कल्पना तक नहीं की थी’। 1984 के आसपास जब बाबरी मस्जिद के ख़िलाफ़ आक्रामक अभियान तेज़ किया गया था तो उस ‘रामजन्मभूमि आंदोलन’ के नारे क्या थे? जुलूसों से लेकर गली-मोहल्लों में चलने वाली ऑडियो कैसेट्स तक में आरएसएस के ‘साधु-साध्वियों’ के भाषणों में क्या था? बाबरी मस्जिद विध्वंस से लेकर आज तक इस हुंकार के साथ क्या-क्या नहीं हो गुज़रा है?

1990 के आसपास बुद्धिजीवियों ने ‘उनके’ राम के बरअक्स ‘हमारे’ राम या ‘लोक के राम’ को खड़ा करने के अभियान भी चलाए। मर्यादा पुरुषोत्तम, धीरोदात्त व दुःख-सुख में मानवीय छवि वाले राम को आरएसएस द्वारा खड़ी की जा रही उग्र-संहारक छवि की काट के तौर पर बौद्धिक हलकों में और यथासंभव जनता के बीच ले जाने की कोशिशें हुईं। ऐसी कोशिशों से क्या हासिल होना था? वर्णाश्रम और हिन्दू धर्म में निहित हिंसक ग़ैर बराबरी से पोषित प्रगतिशील बुद्धिजीवियों के एक तबके के लिए तो यह प्रिय अभ्यास था कि प्रतिरोध के नाम पर तुलसी के राम का पाठ शुरू कर दिया जाए।

उस दौर की ऐसी अनेक कविताएं ज़रा ध्यान से देखते ही या तो बेहद खोखली लगने लगती हैं या फिर उसी हेजेमनी की पक्षधर जिसका प्रतिरोध किया जा रहा है। कई कवियों के यहां तो जिस साम्प्रदायिकता का प्रतिरोध किया जा रहा था, वही साम्प्रदायिकता उभर आती है। उन्हीं दिनों प्रसन्ना का एक नाटक भी बुद्धिजीवियों के बीच काफ़ी चर्चित हुआ था जिसमें राम की मानवीय छवि को रामजन्मभूमि मंदिर मॉडल के साथ प्रचारित की जा रही राम की रणबांकुरी छवि की काट के रूप में प्रचारित किया गया था। यह नाटक अंततः राम के भजन कीर्तन के साथ ही समाप्त होता था। अगर यही करना था तो फिर देश भर में सदियों से रामलीलाओं का मंचन चल ही रहा था जिसमें राम का विकल विलाप भी था ही।

सवाल यह है कि तुलसी अपने राम से क्या काम ले रहे थे और तुलसी और उनके राम को किस उद्देश्य से जनता के बीच बार-बार स्थापित किया गया? हिन्दी की प्रगतिशील धारा पर वर्चस्व रखने वाले सवर्ण समूह के तुलसी प्रेम की वजह क्या है? लोक में व्याप्त-लोक में व्याप्त की रट लगाने वाले क्या नहीं जानते कि हेजेमनी की ख़ास बात यही है कि उत्पीड़क अपने छल-बल से उत्पीड़ितों को अपने उत्पीड़न का ही गुणगान करना सिखा देते हैं? वाल्मीकि या तुलसी के राम की कथा की मर्यादा किस हेजेमनी को मज़बूत करती है? जिस ‘धीरोदात्त नायक’ के नेतृत्व में जिन जंगली जातियों का संहार किया जाता है, वे कौन हैं? जब वंचित तबकों को उनके वाजिब हक़ों को देने के लिए संविधान में ज़रूरी प्रावधानों के लिए आवाज़ें उठ रही थीं, तब लीलाओं से आगे जाकर कथाओं और फिर टेलीविजन सीरियल के जरिये राम के नाम का इस्तेमाल किस लिए किया गया? इस तरह कि जिन तबकों को उनके अधिकारों से वंचित किया जाना था, उन्हें ही कारसेवक बना लिया गया।

‘आदिपुरुष’ के संवादों की आलोचना करते हुए रामानंद सागर के रामायण धारावाहिक के साथ बीआर चोपड़ा के महाभारत धारावाहिक की महिमा का गुणगान भी किया जा रहा है। ख़ासकर, राही मासूम रज़ा द्वारा लिखे गए संवादों का। यह कहते हुए कि एक मुसलमान लेखक भारतीय संस्कृति की कितनी बेहतर समझ रखता था। वैसे ही जैसे, राम पर लिखी गई इक़बाल की नज़्म को दोहराया जाता रहता है। यह बात अलग है कि जब कोई मुसलमान कवि-लेखक किसी सौंपे गए काम के बजाय अपने दिल की बात बयां करता है तो उसे प्रगतिशील दायरे तक में बर्दाश्त नहीं किया जाता है।

रामायण की तरह ही उस दौर में महाभारत का प्रसारण भी किस ताक़त के काम आया था, इसे नज़र-अंदाज़ कर प्रगतिशील बुद्धिजीवी महाभारत की कथा में निहित जटिलताओं के चित्रण का हवाला देने लगते हैं। यह भूलते हुए कि इन जटिलताओं के चित्रण के बावजूद इस महाकाव्य\कथा की स्वीकार्यता का कारण यह है कि अंतत: वहां गीता का उपदेश सर्वोपरि है। सोचने की बात यह है कि दलित विचारक रामायण हो या गीता, इनके इतने स्पष्ट, तीखे व मुखर आलोचक क्यों हैं। जाहिर है, उनके लिए इन ‘ग्रन्थों’ से मुठभेड़ ‘अपनी आबादियों’ को ग़ुलाम बनाने वाले षड़यंत्रों से टकराने का का प्रश्न है। अपने लोगों की मुक्ति का, उनकी गरिमा की बहाली का।

प्रगतिशील और लिबरल बुद्धिजीवियों द्वारा दिए जा रहे राम और रामायण की उदात्तता के हवालों के बीच पत्रकार-विचारक सिद्धार्थ  की एक पुरानी टिप्पणी को दोहराना ठीक रहेगा- ‘भारत में चिंतन की दो स्पष्ट धाराएं रही हैं। एक द्विज और दूसरी बहुजन। दूसरे शब्दों में कहें, तो किसी भी चीज को देखने की भारत में दो बिलकुल विपरीत विश्वदृष्टियां रही हैं– एक बहुजन विश्वदृष्टि और दूसरी ब्राह्मणवादी विश्वदृष्टि। रामकथा और राम पर आधारित महाकाव्यों के संदर्भ में भी दोनों दृष्टियां निरंतर टकराती रही हैं।

आर्य-द्विज ब्राह्मणवादी परंपरा के आदर्श नायक दशरथ पुत्र राम हैं और उन पर सबसे बड़े महाकाव्य वाल्मीकि की रामायण और उत्तर भारत में तुलसी की रामचरितमानस है। जहां एक ओर द्विज अध्येता, लेखक और पाठक राम को आदर्श नायक और रामायण एवं रामचरितमानस को महान महाकाव्य मानते रहे हैं वहीं दूसरी ओर बहुजन नायकों की दृष्टि में दशरथ पुत्र राम और उन पर आधारित महाकाव्य, बहुजनों पर द्विजों के वर्चस्व के उपकरण हैं।

यह अकारण नहीं है कि करीब-करीब सभी बहुजन नायकों ने राम और उनकी रामकथा पर लिखा है और बताया है कि कैसे राम न तो ईश्वर हैं, न आदर्श नायक और ना ही कोई धार्मिक व्यक्तित्व। बहुजन नायकों का यह भी कहना है कि वाल्मीकि रामायण और रामचरितमानस आर्य-ब्राह्मण श्रेष्ठता और बहुजनों पर द्विजों के वर्चस्व की स्थापना के लिए लिखे गए ग्रंथ हैं। ये किसी भी तरह से धार्मिक ग्रंथ नहीं हैं, जैसे बुद्ध के त्रिपिटक, बाइबिल और कुरान हैं।

रामकथा के बारे में ई.वी.रामसामी पेरियार, डॉ. आंबेडकर, पेरियार ललई सिंह यादव, स्वामी अछूतानंद, चंद्रिका प्रसाद ‘जिज्ञासु’, अमर शहीद जगदेव प्रसाद, संतराम बी.ए., मोतीराम शास्त्री, रजनीकांत शास्त्री, भदन्त आनंद कौशल्यायन, कंवल भारती और तुलसीराम आदि चिंतकों-लेखकों ने विस्तार से लिखा है। इन सभी ने एक स्वर से रामायण और राम को शूद्रों (पिछड़ों), अतिशूद्रों (दलितों), महिलाओं और आदिवासियों पर वर्चस्व कायम करने की विचारधारा वाला काल्पनिक चरित्र और ग्रंथ कहा है तथा यह भी बताया है कि कैसे अनार्यों को ही राक्षस-राक्षसी कहकर राम ने उनका कत्लेआम किया।

पेरियार ने ‘सच्ची रामायण’, डॉ. आंबेडकर ने ‘राम और कृष्ण की पहेली’ (‘हिंदू धर्म की पहेलियां’ किताब में), स्वामी अछूतानंद ने ‘रामराज्य न्याय’, चंद्रिका प्रसाद ‘जिज्ञासु’ ने ‘ईश्वर और उनके गुड्डे’, पेरियार ललई सिंह यादव ने ‘शंबूक बध’, मोतीराम शास्त्री ने ‘रावण तथागत’, रजनीकांत शास्त्री ने ‘हिंदू जाति का उत्थान और पतन’, भदन्त आनंद कौशल्यायन ने ‘राम की कहानी राम की जुबानी’, कंवल भारती ने ‘त्रेता युग का महा हत्यारा’, और तुलसीराम ने ‘क्या अयोध्या बौद्ध नगरी थी?’ में रामकथा व राम के पिछड़े, दलित, आदिवासी तथा महिला विरोधी चरित्र को उजागर किया है।

इसके विपरीत प्रगतिशील सवर्ण लेखक अमूमन ऐसे मसलों पर साफ़ रुख नहीं अपना सके। कई लेखकों-आलोचकों के यहां ब्राह्मणवाद और बौद्धों के बीच संघर्ष के हवालों के साथ रामायण की ऐतिहासिकता और राम के आदर्शीकरण को ज़बरदस्त चुनौती मिलती है तो वे ही किसी दूसरी जगह तुलसी और उनके मानस का गुणगान करते मिल जाते हैं। अपवादों को छोड़ दें तो तुलसी की रामचरित मानस की राजनीति को प्रखर ढंग से समझाने वाले भी किसी अन्य प्रसंग में तुलसी और मानस की प्रशंसा करते मिलते हैं। यही कारण है कि वर्णाश्रम के खुले समर्थक और तुलसी और उनकी मानस के उग्र समर्थक प्रगतिशील बौद्धिक धारा में मज़े से प्रतिरोध के रचनाकार की पहचान का सुख पाते रहे।

‘प्रतिरोध की ऐसी परंपरा’ में यह स्वाभाविक था कि बिहार सरकार में राष्ट्रीय जनता दल के कोटे से शिक्षा मंत्री चंद्रशेखर ने एक विश्वविद्यालय के दीक्षांत समारोह में रामचरित मानस की आलोचना की तो प्रगतिशील धारा के बुद्धिजीवियों की तरफ़ से भी उनका मुखर विरोध किया गया। चंद्रशेखर ने उद्धरण देते हुए कहा था कि रामचरितमानस जैसे धार्मिक पाठों ने उसी तरह घृणा फैलाने का काम किया जिस तरह मनुस्मृति और गोलवलकर के बंच ऑफ़ थॉट्स ने विभिन्न दौर में सामाजिक विभेद को बढ़ाने का काम किया। जनवादी लेखक संघ ने आधिकारिक रूप से बयान जारी कर मंत्री चंद्रशेखर के बयान का बचाव करते हुए उनके विरुद्ध चलाए जा रहे अभियान की निंदा की थी। इसके बावजूद प्रगतिशील धारा के ही बहुत से लेखकों ने ऐन इसी मौक़े पर रामचरित मानस के पक्ष में खुलकर ताल ठोकी।

जेएनयू के रिटायर्ड प्रोफेसर और कभी सीपीआई और प्रगतिशील लेखक संघ के सदस्य रह चुके आलोचक पुरुषोत्तम अग्रवाल ने बीबीसी की हिन्दी की वेबसाइट पर छपवाए गए एक लेख में टिपिकल फ़ासिस्टों के अंदाज़ में कहा – ”जब रामचरितमानस को घेरेंगे, तो लोग पूछेंगे कि कु़रान के बारे में क्यों चुप हैं?” इस विवाद में क़ुरान को ले आने की ट्रिक इस्तेमाल करने वाला यह प्रगतिशील आलोचक किसी ज़माने में साम्प्रदायिकता के विरोध में कार्यशालाएं आयोजित किया करता था। बीबीसी पर छपवाए गए इस लेख में रामचरित मानस के पक्ष में रामचंद्र शुक्ल, नामवर सिंह और अमृत लाल नागर जैसे दिवंगत लेखकों के बयानों का इस्तेमाल किया गया था, तो जीवित लेखकों में पुरुषोत्तम अग्रवाल, अरुण कमल और आशीष त्रिपाठी जैसे लेखकों का जिन्हें प्रगतिशील दायरे में सम्मान की नज़र से देखा जाता है।

जाहिर है कि सवर्ण प्रगतिशीलों की मुख्य धारा के नायकों के एक बड़े हिस्से की आस्था आज भी तुलसी में उसी तरह बसी हुई है जैसे उनके निराला जैसे पूर्वजों की बसी हुई थी। ‘आधुनिक’ कवि व्योमेश शुक्ल जिनके पहले कविता संग्रह ‘फिर भी कुछ लोग’ का हिन्दी की वाम धारा के दिग्गज कवियों ने उत्साह के साथ स्वागत किया था, ने निराला की कविता ‘राम की शक्ति पूजा’ का मंचन शुरू किया तो कलाकारों की तीखी-तीव्र मुद्राओं से ‘राम जन्मभूमि आंदोलन’ के दौरान राम-ज्योति यात्राओं में ‘रामजी की सेना चली’ वाले रेटरिक असर की याद आने लगती है। यह वह दौर था, जिसे बौद्धिक वर्ग राम की ‘उदात्त’ छवि को आक्रामक छवि में बदले जाने के रूप में देखता है जिस तरह पिछले कुछ सालों में हनुमान की कलेंडरों वाली पुरानी भक्त छवि को नयी क्रुद्ध छवि में तब्दील किया गया है।

वाम लेखक संगठनों से जुड़े ऐसे कई कवियों के उदाहरण दिए जा सकते हैं जो भाजपा की राजनीति के विरोध में भी लिख लेते हैं और तुलसी, राम, परशुराम आदि की प्रशंसा करते हुए ब्राह्मणवाद व वर्णाश्रम को भी जस्टिफाई करते रहते हैं। वाम हलकों के छोटे हिस्से से इसकी आलोचना होती है तो भी मुख्यधारा इस प्रवृत्ति को सरंक्षण प्रदान करती है।

दलितों की नज़र से देखें तो राम या हनुमान की छवियों में ज़रूरतों के हिसाब से की जा रही ये तब्दीलियां हैरानी की बात नहीं हैं। वर्णाश्रम और ब्राह्मणवाद से पीड़ित तबकों से आए पेरियार जैसे तमाम विचारकों और सामाजिक आंदोलनों के नेताओं को कभी नहीं लगा कि इन छवियों में उनके समाज के लिए कोई उदारता-उदात्तता है। हैरानी नहीं कि इस संस्कृति से उत्पीड़ित तबके से आए कवि मोहन मुक्त अपनी कविता में शंबूक के साथ उल्लेख करते हुए राम को नाज़ी करार देते हैं।

लेखन की तरह मुख्य-धारा की राजनीति में भी राम और रामायण से सीधी जद्दोजहद वंचित तबकों के नेताओं ने ही की। लेखन की तरह राजनीति में इस प्रतिरोध के सबसे सफल नाम पेरियार ही रहे। तमिलनाडु तब भी ब्राह्मणवाद का गढ़ था और पेरियार का कहना था कि 90 फीसदी तमिलों पर ब्राह्मणवाद के कारण रामायण व उनके दूसरे ग्रंथों का असर है। ऐसी स्थिति में संघर्ष करते हुए उन्होंने राजगोपालाचारी जैसे नेता को मुख्यमंत्री की कुर्सी से उतरने के लिए मज़बूर किया। पेरियार का असर डॉ. भीमराव आंबेडकर समेत वंचित तबकों के लिए संघर्ष कर रहे विभिन्न नेताओें पर पड़ा। पेरियार की लिखी ‘सच्ची रामायण’ को उत्तर भारत में लाने वाले ललई सिंह यादव ने क़ानूनी लड़ाई लड़ी। एक दौर में बिहार में बाबू जगदेव प्रसाद जिनकी सरेआम हत्या कर दी गई थी, जैसे नेता ऐसे मसलों पर बेहद मुखर थे और उनके असर से खलबली मची हुई थी। अर्जक संघ ने भी ऐसै मसलों पर तीखा रवैया अख़्तियार किए रखा।

लेकिन, उत्तर भारत में, ख़ासकर उत्तर प्रदेश में कांशीराम के नेतृत्व में बहुजन समाज पार्टी के उदय और उभार के साथ ही पेरियार और उनके विचार सार्वजनिक पटल पर उभर कर आए। कांशीराम-मायावती ने जगह-जगह पेरियार मेलों का आयोजन किया और सपा के साथ सरकार में बनाने पर पेरियार की ‘सच्ची रामायण’ से प्रतिबंध हटा दिया। राम के नाम की उग्र राजनीति कर रही भारतीय जनता पार्टी ने इसका तीखा विरोध भी किया। ब्राह्मणवाद को चुनौती देने वाले पेरियार और गुमनामी में धकेल दिए गए ऐसे दूसरे बहुजन विचारकों की प्रतिमाओं को बहुजन समाज पार्टी की सरकार के दौरान सार्वजनिक पार्कों में भव्य रूप से स्थापित किया गया और इसके लिए मायावती को सवर्ण मीडिया की आलोचना का सामना करना पड़ा। यह बात अलग है कि बसपा अपने इन तेवरों को आरएसएस और उसकी राजनीतिक विंग भाजपा की ताक़त के सामने सरेंडर कर चुकी है।

सपा के साथ बसपा के गठबंधन ने उत्तर प्रदेश में भाजपा की राम-राजनीति को हिला कर रख दिया था तो उन दिनों गूंजने वाले ‘मिले मुलायम-कांशीराम/धूल में मिल गए जय श्रीराम’ जैसे नारों को लेकर भी बसपा माफ़ी-दराफ़ी की हालत में है। गुजरात नरसंहार के बाद वहां के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ चुनाव प्रचार में पहुंच कर बसपा की घोषित ‘बहुजन’ की अवधारणा को चोट पहुंचा चुकीं मायावती की पार्टी बसपा ने ‘जूते मारो चार` की जगह `हाथी नहीं गणेश है/ ब्राह्मण-विष्णु महेश है` जैसे नारे अपना लिए थे। इतनी बुरी तरह समर्पण के बावजूद यह तथ्य है कि ब्राह्मणवाद के प्रतीकों को लेकर सार्वजनिक राजनीति में ऐसा सीधा विरोध पेरियार के बाद कांशीराम ने ही करके दिखाया था। ख़ामोश रहने की मज़बूरियों के बावजूुद दलितों में इसकी जड़ें देर तक बनी रहनी हैं। तमिलनाडु में भी पेरियार के ही अनुयायियों के सत्ता में होने के बावजूद उनके पुराने तेवर आरएसएस के नेतृत्व में ब्राह्मणवाद के और मज़बूत होने से वैसे नहीं रह गए हैं।

उत्तर प्रदेश में बसपा के सहयोग से पहली बार सत्ता में आई समाजवादी पार्टी की बात करें तो उसके नेता मुलायम सिंह यादव के एक समय बाबरी मस्जिद पर स्टैंड ने उसे अल्पसंख्यकों की भरोसेमंद पार्टी बना दिया था। काफ़ी हद तक पिछड़ों और अल्पसंख्यकों की गोलबंदी से प्रभावी हुई इस पार्टी के सर्वेसर्वा मुलायम सिंह यादव की दिलचस्पी सांस्कृतिक प्रतिरोध में कभी थी ही नहीं। अति-पिछड़ों में तरह-तरह से काम कर रहे आरएसएस ने अंतत: सपा के आधार वोट बैंक यादवों तक में काफ़ी सेंध लगाई है। सपा और उसके मुखिया अखिलेश यादव के सामने नई चुनौती खुद को श्रीकृष्ण से जोड़ने वाले यादवों को आरएसएस-भाजपा की मथुरा में श्रीकृष्ण-जन्मस्थान मंदिर की मुहिम से आकर्षित होने से रोकने की है लेकिन उनके पास कोई रणनीति नहीं है।

धार्मिक प्रतीकों का सहारा लेने के बावजूद साम्प्रदायिकता और ब्राह्मणवाद के विरोध में मुखर रहे लालू यादव की तरह अधिकतर समाजवादी दलों के पास इच्छा-शक्ति व नीयत का अभाव तो रहा ही है, उससे बड़ी समस्या उनके नेताओं के लोहिया व जेपी जैसे प्रेरणास्रोत रहे हैं।  समाजवाद के नाम से भी बिदकने वाले सवर्ण बौद्धिक अगर डॉ. राममनोहर लोहिया की प्रखर, मौलिक व भारतीय संस्कृति के चितेरे चिंतक के रूप में सराहना करते नहीं थकते हैं तो उसकी वजह आरएसएस की राजनीतिक विंग जनसंघ के साथ लोहिया का अवसरवादी गठजोड़ ही नहीं है बल्कि वह वैचारिक घालमेल है जो भारतीय संस्कृति के नाम पर ब्राह्मणवादी प्रतीकों व मिथकों के महिमागान के रूप में उनके यहां है। अकेले लोहिया ने विशाल उत्तर भारत की हिन्दी पट्टी में वाम राजनीतिक दलों को तो भारी नुकसान पहुंचाया ही, सेकुलर राजनीति की संभावनाओं को भी दूर तक प्रदूषित कर दिया। यह दिलचस्प है कि कांग्रेस से अलग हो गए आंबेडकर की लोहिया के साथ गठबंधन की तैयारियां चल रही थीं। ऐसा होता तो आंबेडकर की क्रेडिबिलिटी ही प्रभावित होती जैसे भाजपा के साथ गठबंधन से बसपा की हुई है।

हिन्दी पट्टी में सेकुलर वैचारिक और राजनीतिक स्पेस को लोहिया की तरह आर्य समाज ने भी गहरी चोट पहुंचाई। चौ. चरण सिंह जैसे नेता बीच में जनसंघ से हमराह हो लेने के बावजूद मुस्लिम गठजोड़ की सेकुलर राजनीति तो करते थे लेकिन वे अपने सांस्कृतिक स्रोत आर्य समाज में तलाशते थे। आर्य समाज मोटे तौर पर मूर्ति पूजा व कुछ ख़ास कर्मकांडों के विरोध की मुद्रा के कारण ब्राह्मणवाद विरोधी लगता ज़रूर था लेकिन यह विरोध पेरियार जैसा रेडिकल विरोध नहीं था। आर्य समाज की जड़ें भी ब्राह्मणवाद में ही थीं और वह लाभ भी उसे ही पहुंचाता था। राम जैसे जिन प्रतीकों का पेरियार तीखा विरोध करते रहे, आर्य समाज उन्हें अपनी देवमाला में स्थान देता है। आज आरएसएस और आर्य समाज के बीच का दिखावे का अंतर ख़त्म हो चुका है और चौ. चरण सिंह के वंशज या आर्य समाज से जुड़े दूसरे भाजपा विरोधी नेता अपनी ज़मीन भाजपा की तरफ़ खिसकने से परेशान हैं। यह भी दिलचस्प है कि ब्राह्मणवादी कर्मकांड की विरोधी यह ज़मीन इन दिनों देवी जागरण से लेकर कलश यात्राओं और ऐसे दूसरे आयोजनों के लिए उर्वर साबित हो रही है।

बहुत सी अति-पिछड़ी जातियों में भाजपा की लोकप्रियता की एक वजह प्रगतिशील और सबॉल्टर्न राजनीति के सांस्कृतिक प्रतिरोध का कमज़ोर होना भी रहा है। बहुमुखी ढंग से काम करने वाला आरएसएस वर्ण व्यवस्था के एजेंडे को भी मज़बूत करता रहा है और साथ ही बहुत सी अति-पिछड़ी जातियों को क्षत्रिय होने का झूठा गौरव भी परोसता रहा है। राम का संबंध कुशवाहा जैसी किसी पिछड़ी जाति से होने जैसे प्रचार भी चलते ही रहे हैं।

देश की आज़ादी की लड़ाई के दौरान और आज़ादी के बाद भी बरसों तक ताक़तवर रही कांग्रेस का सवाल है तो उसका सबसे बड़ा नेता गांधी रामराज के प्रतीक के साथ ही राजनीति करता रहा। रामराज की उनसे ज़्यादा सशक्त दावेदार ताक़त ने ही उनकी हत्या कर दी। अपने प्रोग्रेसिव रुझान से देश पर गहरा असर डालने वाले नेहरू भी एक हद तक ब्राह्मणवादी प्रतीकों से प्रभावित थे और एक हद से आगे जाने की उनकी स्थिति भी नहीं थी। कांग्रेस के भीतर ही आरएसएस और हिन्दू महासभा की ऐसी ताक़त थी कि वह गांधी के हत्यारों को भी बचा लेती थी और अयोध्या में बाबरी मस्जिद में ‘रामलला’ का प्रकटीकरण भी करा देती थी। बाद में कांग्रेस की राजीव गांधी सरकार में ही इस जगह का ताला खुला और फिर नरसिंह राव सरकार पर बाबरी मस्जिद विध्वंस में परोक्ष सहयोग का आरोप लगा। राहुल के जूझते रहने के बावजूद कांग्रेस अपने इस उहापोह से आज तक नहीं उबर पाई है।

आज जबकि आरएसएस के सांस्कृतिक व राजनीतिक प्रभुत्व को कोई सीधी चुनौती नज़र नहीं आती है तो सवाल यह है कि क्या यह चुनौती कल भी संभव नहीं थी या फिर उसी के प्रतीकों और आदर्शों में उलझे रहकर ईमानदार सांस्कृतिक प्रतिरोध खड़ा न करना ‘सेकुलर शक्तियों’ की भूल थी।

(धीरेश सैनी पत्रकार हैं।)

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