Monday, September 25, 2023

अविजित पाठक का लेख: चांद पर पहुंचने के विज्ञान का जश्न मनाऊं, कि देश में फैलायी जा रही विवेकहीनता का रोना रोऊं?

23 अगस्त को यह एक असाधारण क्षण था जब – इसरो के वैज्ञानिकों/प्रौद्योगिकीविदों की प्रतिभा और कड़ी मेहनत के कारण – चंद्रयान -3 अंततः चंद्रमा पर उतरा। जी हां, एक तरह से भारत चंद्रमा की सैर करने पहुंच गया! फिर भी, ओलंपिक की 100 मीटर फर्राटा दौड़ की कमेंट्री की तरह जारी टेलीविजन एंकरों की कमेंट्री के बीच, जिस तरह से इस ऐतिहासिक क्षण पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कैमरों पर अचानक कब्जा कर लिया, और जिस तरह से चारों ओर जश्न मनाया जा रहा था, उसे देख कर मेरा सिर चकराने लगा, मैं हक्का-बक्का और दुविधाग्रस्त हो उठा। मेरे सामने तमाम सवाल उठने लगे और मुझे परेशान करने लगे। मुझे खुद पर संदेह होने लगा, कि क्या मैं “राष्ट्र-विरोधी” हूं? क्या मैं उतना “देशभक्त” नहीं हूं कि सड़क पर नाचने लगूं और मिठाइयां बांटना शुरू कर दूं? फिर भी, मौन और चिंतन के साथ, मुझे इस मुद्दे पर विचार करने का साहस मिला।

मैंने विज्ञान, प्रौद्योगिकी और समाज पर विचार करना शुरू किया। क्या हम इस समय दिमाग चकरा देने वाले विरोधाभासों के बीच नहीं रह रहे हैं? हां, भले ही तकनीकी तमाशे का सम्मोहन जादुई प्रतीत होता हो, लेकिन यह सच है कि हमारा समाज अभी तक एक “वैज्ञानिक स्वभाव” वाला समाज कहे जाने की योग्यता नहीं हासिल कर सका है।

हालांकि “विज्ञानवाद” के एक किस्म के न्यूनतावादी प्रत्यक्षवाद (Reductionist Positivism) में बदल जाने की संभावना भी निहित रहती है, जिसकी ओर आशीष नंदी जैसे चिंतनशील विद्वानों ने इशारा किया है, जिसके अपने असंतोष हैं, फिर भी सोचने, कार्य करने और दुनिया से जुड़ने के तरीके के रूप में विज्ञान की मुक्तिदायी क्षमता से इन्कार नहीं किया जा सकता। यह विज्ञान का महत्वपूर्ण/मानवतावादी पहलू ही है जो हमें जातिवादी प्रथाओं, पितृसत्तात्मक रूढ़ियों, धार्मिक अंधविश्वासों के पुलिंदों, पतित पुरोहितवाद के धर्मादेशों और यहां तक कि आज के मनोहारी आध्यात्मिक उद्योग के लुभावने व्यवसायों का विरोध करने के लिए बौद्धिक, राजनीतिक और नैतिक ताकत दे सकता है।

कड़वी सच्चाई यह है कि इस अज्ञान को दूर करने और तर्क का प्रकाश फैलाने का उत्साहपूर्ण काम कभी भी सबके ध्यानाकर्षण का केंद्र बनने वाला काम नहीं होता है। इसके लिए असीम धैर्य, बौद्धिक निष्ठा और सबसे बढ़कर, चुपचाप और बिना पहचान पाये भी, काम करते जाने का साहस चाहिए। इस काम में कोई ग्लैमर नहीं है। इसके बजाय, हममें से अधिकांश के लिए, तकनीकी तमाशे के ज्वार में बह जाना ज्यादा आसान है, भले ही हम अपने भीतर वैज्ञानिक स्वभाव पैदा करने या किसी तथ्य की जांच-परख की प्रविधि विकसित कर पाने से कोसों दूर हों।

इस प्रविधि को ही कार्ल पॉपर “अनुमान और खंडन” की प्रविधि कहते हैं। इस प्रविधि को हासिल करने का अर्थ है वह क्षमता हासिल करना, कि हम अब तक सत्य मानी गयी चीजों (भले ही वह सदियों पुरानी धार्मिक मान्यताओं और प्रथाओं द्वारा पवित्र ही क्यों न घोषित की गयी हो), उस पर भी सवाल खड़े कर सकें, उसके बारे में पूछताछ कर सकें और नयी खोजों और निष्कर्षों के माध्यम से अपने मानसिक क्षितिज का विस्तार कर सकें। हां, तकनीकी तमाशा दिखाने और विज्ञान को जीवन जीने के तरीके के रूप में आत्मसात करने के बीच में बहुत अंतर होता है।

अपनी आंखें खोलिए तो इस विरोधाभास को हर जगह देख सकते हैं। एक “अतिराष्ट्रवादी” व्यक्ति, जिससे नफरत करता है, “उस” समूह के बारे में हर तरह की रूढ़िवादी मान्यताओं और धारणाओं का कचरा अपने दिमाग में भरे हुए भी तकनीक-प्रेमी हो सकता है। वह नवीनतम गैजेट खरीद और उपयोग कर सकता है, और पलक झपकते ही सोशल मीडिया पर अपनी नफरत तथा पूर्वाग्रह भरी मान्यताओं और विभाजनकारी जहरीली बातों को फैला सकता है।

इसी तरह, जैसा कि वैवाहिक विज्ञापनों को ध्यान से देखने पर पता चलता है, “शीर्ष-रैंकिंग” इंजीनियरिंग कॉलेजों से आकर्षक एमटेक डिग्री होने के बावजूद, हमारे युवा, दहेज स्वीकार कर सकते हैं, और जाति-केंद्रित विवाह कर सकते हैं। प्रौद्योगिकी से प्यार करना या विज्ञान का अध्ययन सिर्फ एक कैरियर विकल्प के रूप में करना एक बात है। विज्ञान की आलोचनात्मक और लोकतांत्रिक भावना को आत्मसात करना बिल्कुल दूसरी बात है।

आइए हम चंद्रयान-3 की सफलता को एक तकनीकी तमाशे के रूप में राजनीतिक रूप से हथियाने से संबंधित एक और प्रश्न पूछने का साहस जुटाएं। यह भारत की जीत है; यह भारत का क्षण है; इसने दुनिया को दिखा दिया है कि अंतरिक्ष अनुसंधान में भारत की प्रगति अमेरिका, चीन और रूस जैसे शक्तिशाली देशों को भी उनकी औकात दिखा सकती है-जैसी भाषा आपने सुनी ही है। सच्चाई यह है कि चाहे वह पाकिस्तान के खिलाफ क्रिकेट मैच में जीत हो, भारत की जी-20 अध्यक्षता की स्थिति हो या “हम चांद पे जा पहुंचे” जैसा गाना, राजनीतिक वर्ग, विशेष रूप से सत्तारूढ़ दल, इसे शक्तिशाली राष्ट्रवाद के प्रतीक के रूप में दिखावे के एक अवसर में बदल देगा।

संदेश स्पष्ट है-गर्व महसूस करो, मिठाइयां बांटो, सड़कों पर नाचो, राष्ट्र के नेता को एक उद्धारकर्ता के रूप में पूजो, और आराम से भूल जाओ कि मॉब लिंचिंग, गौरक्षकों की गुंडागर्दी, नफरती भाषण, दहेज हत्याएं, शिक्षकों के बिना चल रहे ग्रामीण स्कूल, भूख, कुपोषण, और गंदगी और भीड़ से भरे सरकारी अस्पतालों में पसरी हुई मौत की गंध अब ऐसी परिघटनाएं हो गयी हैं, जिन्हें हमारे देश में अब सामान्य मान लिया गया है।

इस सबको छोड़िए और अच्छा महसूस करिए कि “भारत आगे बढ़ रहा है।” जब हम खुद को शक्तिशाली राष्ट्रवाद की बयानबाजी के बहकावे में बह जाने देते हैं, तो हम तर्कसंगत और सूक्ष्म चिंतन की अपनी क्षमता को निलंबित कर देते हैं। इसलिए, यह आश्चर्य की बात नहीं है कि इनमें से कई अतिराष्ट्रवादी जो इस तकनीकी तमाशे को अपनी जीत के रूप में स्वीकार कर रहे हैं, वे वही हैं जो हमारे सांस्कृतिक और सामाजिक परिदृश्य को भ्रष्ट और प्रदूषित करने वाले अंधविश्वासों, पूर्वाग्रहों, नफरतों और अप्रिय मान्यताओं को देखकर चुप्पी साध लेते हैं।

यदि विज्ञान का मतलब खुलेपन से है, सार्थक बहसों और चर्चाओं में शामिल होने, दूसरों की बात सुनने और नए तथ्यों और निष्कर्षों के आधार पर अपनी स्थिति को बदलने और संशोधित करने के साहस से है, तो क्या यह उस देश में पनप सकता है जिसके “राष्ट्रवादी” शिक्षाविद अच्छी तरह से शोध किए गए ऐतिहासिक निष्कर्षों और सिद्धांतों, यहां तक कि डार्विन के विकासवाद से संबंधित एक “हिस्से” को स्कूली पाठों से हटाने में रत्ती भर भी संकोच नहीं करते हों?

यदि हमें ‘भारतीय विज्ञान कांग्रेस’ में गणेश की प्लास्टिक सर्जरी की कहानियों को स्वीकार करने के लिए प्रेरित किया जाए तो क्या यह विज्ञान फल-फूल सकता है? यदि मध्यवर्गीय माता-पिता चाहते हैं कि उनके बच्चे कोचिंग फैक्ट्रियों द्वारा उपलब्ध कराए गए नोट्स और गाइडबुक से भौतिकी/रसायन विज्ञान/जीव विज्ञान/गणित की पढ़ाई करें और आकर्षक “प्लेसमेंट पैकेज” पाकर “सफल” बन जाएं और हर तरह की सामाजिक रूढ़ियों को स्वीकार करने वाले मूक जीहजूरिये बन जाएं तो क्या यह विज्ञान फल-फूल सकता है?

नहीं, ऐसी हालत के रहते हुए, 23 अगस्त को न मैं सड़क पर नाच सकता था, न मैं मिठाइयां बांट सकता था और न ही भारत माता की जय बोल सकता था।

( ‘द इंडियन एक्सप्रेस’ से साभार;अनुवाद : शैलेश)

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Satish Chandra Rai
Satish Chandra Rai
Guest
26 days ago

लेखक ने वर्तमान परिप्रेक्ष्य का सटीक विश्लेषण किया है। उनके विचारों से शत-प्रतिशत सहमत हूं।हम लोग कहां जा रहे हैं या कहें कि कहां ढकेले जा रहे हैं कुछ समझ से परे है।

Sandeep
Sandeep
Guest
22 days ago

सारी कोशिश करने के बाद भी खुद को सिर्फ एक वामपंथी,छद्म प्रगतिशील और सीधे कहे तो मोदी विरोधी से ज्यादा साबित नहीं कर पाए हो।और सीधी बात ये है कि अब ये सेलेक्टिव यथार्थवाद समझ चुके हैं सब।

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