“लालू-तेजस्वी, मुलायम-अखिलेश, कांशीराम-मायावती” के दौर में हिंदी बेल्ट पर दक्षिणपंथी ताकतों का फैलाव और चुनौतियाँ।

लेख- सत्यपाल सिंह

दक्षिणपंथी तूफान के बीच हिंदी बेल्ट में पिछले एक दशक में समाजवादी राजनीति का सिकुड़ना समाजवादी नेतृत्व के अदूरदर्शिता और उत्तराधिकारियों की नाकामी है। 

हिंदी बेल्ट के दो महत्वपूर्ण राज्य हैं उत्तर प्रदेश और बिहार। दोनों राज्यों में एक वक्त पर समाजवादी ताकतों का एकछत्र राज्य रहा है । लेकिन क्या वजह है कि इन दोनों राज्यों में इनका आधार सिकुड़ा है? दोनों राज्यों में सामाजिक न्याय की वैचारिक ताकतों में उभार की प्रक्रिया में एक साम्य है किंतु उभार के बाद दोनों राज्यों में इन ताकतों के व्यवहार में साफ-साफ भिन्नता रही। दक्षिणपंथी आंधी की कुलबुलाहट का अंदाजा जिसने बेहतर लगाया, आरएसएस के सामाजिक संस्कृतिकरण की गहनता को जिसने बखूबी समझा, इस काल में वही इमारतें बच सकीं, बाकी धराशायी हो गईं। 

यदि दोनों राज्यों के वर्तमान हालात की बात करें, बिहार इस आंधी से सामाजिक स्तर पर ज्यादा कामयाब रहा जबकि उत्तर प्रदेश की सामाजिक संरचना पूर्णतयः इसकी चपेट में आ गई। अब इसे क्या माना जाए? बीजेपी की सफलता या अन्य ताकतों (यथा सपा ,बसपा) की असफलता। पिछले एक दशक में कांशीराम और मुलायम की बनाई हुई सामाजिक और राजनीतिक जमीन पूरी तरह से खिसक गई। उत्तर प्रदेश में यह हालात आ गए कि सपा तो संगठन के रूप में थोड़ा बहुत जिंदा दिखती भी है, लेकिन बसपा कमोबेश संगठन के तौर पर समाप्त हो चुकी है। वहीं दूसरी तरफ बिहार में अकेले राजद दक्षिणपंथी ताकतों के सामने दीवार की तरह खड़ी है। और यदि इसमें नीतीश कुमार (वैसे उन्हें भाजपा से अलग समझना गलत होगा) को भी जोड़ा जाए, तो भाजपा अपने चरम पर भी समाजवादी किले को भेदने में नाकाम रही है। उसका जो सबसे बड़ा कारण रहा, वह जमीन से लालू और उनके परिवार का जुड़े रहना और वैचारिक स्तर पर समझौते न करना है।

यदि एक ही वक्त की बात करें तो बिहार में लालू और उत्तर प्रदेश में मुलायम ने सत्ता में आने के बाद अलग-अलग तरीके से राजनैतिक व्यवहार किया। लालू ने ठेठ गंवई अंदाज में अपनी राजनीति की शुरुआत की और अंत तक तक अपनी उस छवि से पीछा छुड़ाने की कोशिश नहीं की जबकि मुलायम सिंह के राजनैतिक व्यवहार में कुछ कुछ अभिजात्यपन की झलक दिखने लगी थी।

दूसरा प्रमुख कारण इन दोनों ही महारथियों की धरातलीय राजनीति में दिखता है। सत्ता में रहने के बावजूद लालू ने जिस विचार के साथ राजनीति शुरु की थी, उसे बिखरने नहीं दिया। सामाजिक रूप से कमजोर वर्ग में लालू की मकबूलियत कभी कम नहीं हुई, और उन्होंने सीना ठोक कर, खुले मंचों पर अपनी राजनैतिक प्रतिबद्धता की हुंकार भरी। वहीं मुलायम सिंह ने सत्ता में आने के बाद धरातल और सामाजिक संरचना पर बुनियादी कार्य नहीं किया। वह धीरे धीरे ही सही, मनुवाद के मुखर विरोधी के बजाय, उसके समर्थक ज्यादा नजर आने लगे। हालांकि इससे मुलायम सिंह का योगदान कम नहीं हो जाता, उन्हें वंचित वर्ग की राजनैतिक एकजुटता के लिए आज भी श्रेय दिया जाना चाहिए। लेकिन गलती यह हुई, कि समाजवाद ने जिस ताकत का निवेश उन पर किया था, उसको मनुवाद की झोली में जाते हुए अपने सामने देखते रहे। वहीं प्रदेश की दूसरी बड़ी ताकत कांशीराम ने अपने राजनैतिक विचारों को काफी सटीक तरीके से वंचित वर्ग तक पहुँचाने में सफलता हासिल की लेकिन दुर्भाग्य यही था कि उनके पास ज्यादा वक्त नहीं बचा और शक्ति का हस्तांतरण जिन मायावती जी को हुआ, वह एक राजनैतिक फसल काटने के बाद मनुवादी ताकतों के सामने आत्मसमर्पण कर चुकी थीं। 

तीसरा जो सबसे महत्वपूर्ण बिंदु है वह है इन राजनैतिक महारथियों के बाद का परिदृश्य। बिहार इस बात का साक्षात उदाहरण है कि बीजेपी अजेय नहीं है। लेकिन दोनों ही प्रदेशों में, लालू, मुलायम और कांशीराम के बाद की परिस्थितियाँ बहुत अलग हैं। बिहार में तेजस्वी यादव ने यह दिखा दिया कि गाँव और सड़कों तक आप की सक्रियता आज भी संगठन में जान डालने के लिए पर्याप्त है। बिहार में इस नवयुवक ने, मीडिया, संस्थाओं, बीजेपी और नीतीश के ताकतवर समुच्चय को अकेले थाम रखा है, तो इसका सबसे बड़ा कारण है आगे आकर नेतृत्व की क्षमता और कार्यकर्ताओं में यह भरोसा जगाना कि वह इन ताकतों से के सामने अकेले नहीं हैं। उनका नेता जमीन पर लाठी डंडे खाने की हिम्मत रखता है और जेल जाने से डरता नहीं है। जबकि उत्तर प्रदेश में ठीक उल्टा हुआ। अखिलेश ने एक राजनैतिक फसल जो काटी, उसमें मैं आज भी मानता हूँ कि मुलायम और शिवपाल का जमीनी आधार था। उनका कार्यकर्ता अपने नेता से सीधे जुड़ा था। लेकिन धीरे-धीरे जैसे ही मुलायम सिंह परिदृश्य से बाहर हुए, यह आधार खिसक गया और बीजेपी के आक्रामक प्रचार का शिकार होकर उसका वोटर बन गया। इन सबके बीच तीसरी ताकत यानी की मायावती का अभिजात्यीकरण इस हद तक पहुँच गया कि उनका संगठन जमीन पर लुप्तप्राय होकर समाप्त हो गया। हकीकत यही है कि बसपा आज उत्तर प्रदेश में वोटकटवा पार्टी से ज्यादा कुछ नहीं रह गई है। इसका सबसे बड़ा कारण मायावती की निष्क्रियता और संगठन में वैचारिक मनुवादियों का वर्चस्व रहा जो समय आते ही अपने मूल विचार में वापस लौट गए। 

अखिलेश यादव का राजनैतिक विजन निस्संदेह अच्छा होगा, लेकिन अगर आप एक राजनैतिक पार्टी का नेतृत्व कर रहे हैं, और खासकर जब आप जानते हैं ना मीडिया आपके साथ आएगा, ना सिस्टम आपके साथ होगा, तो ऐसी परिस्थिति में आपके राजनैतिक विजन के साथ-साथ आपके साहस और जीवट की भी परीक्षा होती है। ट्विटर और फेसबुक से आपके कार्यकर्ता पर पड़ रही लाठी का हिसाब नहीं होता, उसके लिए आपको उनके कंधे से कंधा मिलाना होगा। जमीन बचानी है तो “सोफिस्टिकेड” राजनीति से काम नहीं चलने वाला। 

यदि संपूर्णता में बात करें राजनैतिक अभिजात्यों ने लालू को जितना निशाना बनाया, मुलायम और मायावती के बारे में वह नरम रहे हैं। इसका सबसे बड़ा कारण यही था कि लालू बड़ा खतरा थे। मुलायम और मायावती अपने राजनैतिक जीवन में पाला बदलते रहे, लेकिन लालू ने कोर्ट, जेल ,मीडिया, सीबीआई के सामने कभी घुटने नहीं टेके जबकि माया और मुलायम ने अवसर देखते हुए इनकी गोद में जाने में भी कोताही नहीं बरती। इससे तात्कालिक फायदा जो भी रहा हो, लेकिन इनकी सियासी जमीन कालांतर में खिसक गई। जबकि लालू अभी भी बिहार में एक बड़ी ताकत हैं। उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह राजनीति में होते हुए भी नेपथ्य में हैं, जबकि बिहार में लालू जेल में रहते हुए भी राजनीति के केंद्र में हैं। यह आपकी राजनैतिक और वैचारिक समृद्धता और समर्पण से हासिल होता है, सत्ता से नहीं। 

लेख- सत्यपाल सिंह

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