पाञ्चजन्य एक पत्रिका है जो आरएसएस का मुखपत्र है जहां दक्षिणपंथी विचारक अपने विचारों को रखते हैं। हाल ही में पाञ्चजन्य में हितेश शंकर द्वारा लिखे लेख “औरंगजेब: इतिहास का काला अध्याय और वामपंथी छल” को पढ़ने का मौका मिला।
जहां लेखक ने ’छावा’ फिल्म को दिखाते हुए इतिहासकारों के द्वारा लिखे गए विश्लेषणों का हवाला देते हुए यह दर्शाने का प्रयास किया कि किस प्रकार से औरंगजेब क्रूर और हत्यारा था और मराठा जो हिन्दू धर्म से जुड़े हुए थे कितने सहिष्णु और दयालु प्रवृत्ति के लोग थे। दूसरा इस लेख का मुख्य केंद्र वामपंथी इतिहास लेखन को आड़े हाथों लेना था जहां लेखक ने उनके द्वारा बनाए गए औरंगजेब की छवि को कम करने के लिए कुछ तर्क दिए गए हैं।
हाल के समय में औरंगजेब भारतीय सामाजिक राजनीतिक परिपेक्ष पर एक “हॉट केक” की तरह विराजमान है जिसे किसी भी प्रकार से दक्षिणपंथियों को लोगों के सामने बनाए रखना है। इसके होते रहने के दो मायने हैं पहला तो औरंगजेब की ’क्रूरता’ और ’क्रूरतम’ रूप को दिखा कर लोगों के दिमाग में मुसलमानों के क्रूर होने की गाथा को एक ऐतिहासिक तुक देना है वहीं दूसरी तरफ वामपंथी इतिहासकारों को घेरे में रखना है।
यहां से देश के अंदर का फासीवादी शासन दोनों ही काम अच्छे से कर पा रहा है। इसीलिए अब बाबर उतना बड़ा “हॉट केक” रहा नहीं जितना यह बाबरी मस्जिद के समय में रहा है। ये भी बड़ी दिलचस्प बात है कि हिंदुत्व की राजनीति ने अपने सामरिक और राजनीतिक हित के लिए चेहरे को बड़ी आसानी से बदल दिया।
’मीडिया परसेप्शन’ पहले से ही लोगों के सचेतन के अंदर औरंगजेब को खूंखार हिंदू विरोधी बना चुका है। अब जैसे ही कोई प्रगतिशील तबका तथ्यों के आधार पर भी बात करेगा उसे महज यह कहते हुए खारिज करना आसान है कि यह तो वामपंथियों का षडयंत्र है और वामपंथी हिंदू विरोधी है।
‘औरंगजेब: द मैन एंड द मिथ’ पुस्तक के प्रकाशन ने अकादमिक, साहित्यिक और सामाजिक हलकों में व्यापक बहस छेड़ दी है। एक ओर, नई दिल्ली में औरंगज़ेब रोड का नाम बदलकर डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम रोड कर दिया गया है, तो दूसरी ओर, एक सड़क का नाम दारा शिकोह के नाम पर रखा गया है, जिसे औरंगजेब ने 1657 में शाहजहां के शासन के बाद उत्तराधिकार की लड़ाई में पराजित किया था।
वहीं पंजाब: ए हिस्ट्री फ्रॉम औरंगजेब टू माउंटबेटन (2013) में, राजमोहन गांधी ने औरंगजेब की राजनीतिक उपलब्धियों के साथ-साथ उनके सहानुभूतिपूर्ण और मानवीय पक्ष को भी उजागर किया। उन्होंने औरंगजेब को गहराई से धार्मिक और एक दृढ़ योद्धा के रूप में वर्णित किया।
उनके लंबे शासनकाल के दौरान, मुग़ल साम्राज्य ने उल्लेखनीय रूप से विस्तार किया, जिसमें उत्तर में कश्मीर से परे लिटिल तिब्बत, पूर्व में ढाका से आगे चटगांव और दक्षिण में मुस्लिम राज्यों गोलकुंडा और बीजापुर को शामिल किया गया। गांधी ने औरंगजेब की सादगी की भी प्रशंसा की, यह उल्लेख करते हुए कि वह छोटे कद के थे, उनकी नाक लंबी थी, दाढ़ी गोल थी और उनकी त्वचा जैतूनी रंग की थी। वे आमतौर पर साधारण सफेद मलमल के वस्त्र पहनते थे और प्रशासनिक कार्यों के प्रति अत्यंत समर्पित थे।
पाञ्चजन्य के उस लेख में हितेश दारा शिकोह की बात करने का मौका नहीं चूकते जहां औरंगजेब ने उत्तराधिकार के युद्ध में दारा को मारकर सत्ता काबिज को थी। परन्तु अगर मामला सिर्फ सत्ता काबिज करने का है तो फिर अशोक ने भी अपने 99 भाइयों को मारकर सत्ता हासिल की थी और उत्तराधिकार का युद्ध तो पूरे प्राचीन और मध्यकालीन भारतीय इतिहास का अहम भाग था और है।
परन्तु दारा को शाबाशी देने का एक बड़ा कारण यह है कि दारा ने अपने जीवनकाल में 25 उपनिषदों का फारसी में अनुवाद किया था और उसने यह भी कहा था कि उसके इस अनुसंधान के बाद वह इस नतीजे पर आया है कि इस्लाम और हिंदुइज्म के सीख में कोई खास फर्क नहीं है। परन्तु यह दूसरी वाली बात पूरी तरीके से छुपा ली जाती हैं। परन्तु उससे भी बड़ा सवाल यह है कि औरंगजेब को उत्तराधिकार के युद्ध में किसकी मदद मिली थी?
औरंगजेब जिसे आज के समय में “राजपूत विरोधी” बताते हुए एक बड़ा खेमा थक नहीं रहा है उन्हीं राजपूतों ने दारा की मदद न करके औरंगजेब की मदद की थी और उससे पहले यह भी जानना जरूरी है कि औरंगजेब 20 सालों से ज्यादा दक्कन क्षेत्र में मनसबदार बनकर रहा था तो ऐसा भी नहीं था कि राजपूत राजा उससे अपरिचित थे।
परन्तु फिर भी राजपूतों ने औरंगजेब का साथ दिया जिसकी एक बड़ी वजह दारा का शासकीय क्षेत्र में तंगहाल होना था, वहीं उसे युद्धनीति और राजनीति का कोई खास ज्ञान नहीं था। वहीं दूसरी तरफ यह भी समझने का प्रयास करना चाहिए कि 33 प्रतिशत से ज्यादा मनसबदार औरंगजेब के राज्य में राजपूत थे। तो बड़ा सवाल यह उठता है कि वह हिन्दू विरोधी कैसे हो गया।
यह भी एक बड़ी बात है कि अगर कोई शासक इस्लाम समर्थक था इसका तात्पर्य सीधे हिंदू विरोधी से लगाया जा रहा है। औरंगजेब पर जब भी बात आती है तब जजिया कर के बारे में जरूर चर्चा होती है। इतिहासकारों के अनुसार जजिया कर औरंगजेब ने ही लेना पहली बार शुरू किया मुगलों के शासन में। परन्तु यह बात कभी नहीं बताई जाती है कि जजिया कर शासन के 21वें वर्ष में औरंगजेब द्वारा लगाया गया था न कि शासक बनने के साथ में ही।
मध्यकालीन इतिहासकार हरबंस मुखिया लिखते हैं कि “हमेशा से ही एक प्रोफेशनल इतिहासकार और एक पॉपुलर (प्रसिद्ध) इतिहास में अंतर होगा। क्योंकि जो पेशेवर इतिहासकार है वह इतिहास को तत्कालीन ऐतिहासिक आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक, समसामयिक आदि पहलुओं के तार जोड़ते हुए देखने का प्रयास करेंगे, ज्यादा वस्तुनिष्ठ होंगे।
वहीं दूसरी तरफ जो पॉपुलर इतिहास है वह किसी व्यक्ति को इतिहास का केंद्र मान लेता है और उसी के इर्दगिर्द घूमता रहता है। इसलिए आज के समय में लोगों को इतिहास को सच में ज्यादा पढ़ने की आवश्यकता है। क्योंकि इतिहास को इतिहास के रूप में समझने के लिए वस्तु के विकास और बनने बिगड़ने की गाथा और दर्शन समझना बेहद जरूरी है।
(निशांत आनंद दिल्ली विश्वविद्यालय के छात्र हैं।)
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