Friday, April 26, 2024

भारत-पाकिस्तान की सुप्रीमकोर्ट के हालिया निर्णय लोकतंत्र के लिए सुखद बयार

पिछले कुछ एक दिन, भारतीय उपमहाद्वीप में मरणासन्न स्थिति में चली गई संवैधानिक संस्थाओं के लिए बड़े दिन साबित हुए हैं। पड़ोसी देश पाकिस्तान की सर्वोच्च अदालत ने पूर्व प्रधानमंत्री इमरान खान की गिरफ्तारी को गैरकानूनी करार दिया है और एनएबी सहित सेना के रेंजर्स द्वारा कोर्ट परिसर के भीतर से जबरन इमरान को हिरासत में लेने को लेकर कड़े तेवर अपनाए हैं। इस्लामाबाद हाई कोर्ट ने अपने फैसले में इमरान खान को 14 दिन की अंतरिम जमानत देने का फैसला सुनाया है। पाकिस्तान में लोग जश्न के मूड में हैं। उधर पीएम शाहबाज शरीफ और आर्मी के लिए यह बड़ी चोट की तरह है।

अभी तक कयास लगाये जा रहे थे कि इमरान खान के खिलाफ जितने मामले लंबित हैं, उनमें उन्हें अब जेल से रिहा होने में ही वर्षों लग जायेंगे। पिछले दो दिनों से पाकिस्तान में जिस स्तर की अराजकता, तोड़फोड़ और आगजनी हुई है, उन सबमें पीटीआई को दोषी साबित कर पार्टी को प्रतिबंधित कर दिया जायेगा। लेकिन सर्वोच्च न्यायालय और अब इस्लामाबाद उच्च न्यायालय ने मामले में सुनवाई कर संवैधानिक मूल्यों को बरकरार रखने को जिस प्रकार सर्वोच्च प्राथमिकता दी है, उसने एक बार फिर से पाकिस्तान को अन्धकार और सैन्य तानाशाही के दलदल में जाने से फिलहाल लगाम लगाने का काम किया है। 

वहीं भारत में भी महाराष्ट्र और दिल्ली राज्य के बारे में सर्वोच्च न्यायालय की खंडपीठ ने ऐतिहासिक फैसला सुनाया है। इसे भारतीय संविधान और संवैधानिक संस्थाओं में हाल के वर्षों में हो रहे लगातार क्षरण पर एक सुस्पष्ट प्रतिरोध और नई जान फूंकने वाला क्षण बताया जा रहा है। महाराष्ट्र और दिल्ली के बारे में सुप्रीमकोर्ट के निर्णय भारत की संवैधानिक व्यवस्था, लोकतंत्र और जनसंप्रभुता को मजबूत बनाने वाले हैंं। इन दोनों निर्णयों ने भारत की विपक्षी पार्टियों को ताकत प्रदान किया है। महाराष्ट्र में उद्धव ठाकरे और शिव सेना देश की सर्वोच्च अदालत में अपना केस हारकर भी बड़े नैतिक साहस के साथ खड़ी नजर आ रही है। महाराष्ट्र के राज्यपाल और स्पीकर की भूमिका पर सर्वोच्च न्यायायलय की टिप्पणी उद्धव ठाकरे लिए नैतिक जीत की तरह है। महाराष्ट्र की जनता पहले से उनके साथ सहानुभूति में खड़ी थी, लेकिन अब न्याय की अदालत से मिला नैतिक बल मौजूदा सीएम शिंदे और भाजपा के लिए एक बड़ी हार का वायस बन रही है।

वहीं पिछले 9 साल में तीन-तीन बार दिल्ली प्रदेश की सत्ता पर काबिज आम आदमी पार्टी (आप) के लिए कदम-कदम पर छोटा सा भी काम करने पर एलजी (उप-राज्यपाल) की ओर से लगाया जाने वाला अड़ंगा और अभी तक न्यायिक क्षेत्र से भी कोई स्पष्ट फैसला उनके पक्ष में न होने से केजरीवाल के लिए लगातार खुद को साबित करना कठिन होता जा रहा था। आज केजरीवाल सरकार के लिए सुप्रीमकोर्ट का फैसला पार्टी और राज्य सरकार के लिए बड़ी उम्मीद बनकर सामने आई है। उनके अधिकार क्षेत्र का दायरा काफी बढ़ गया है। आने वाले दिनों में दिल्ली में कई महत्वपूर्ण फैसले लिए जाने की उम्मीद है। यह छोटा सा फैसला अवरुद्ध लोकतंत्र के लिए एक नई ताजगी लाने का माध्यम बनेगी, ऐसी उम्मीद देश कर रहा है।   

द्वितीय विश्व युद्ध के खात्मे के बाद तीसरी दुनिया के तमाम देशों में औपनिवेशिक युग की समाप्ति से प्रारंभिक चरण में विभिन्न देशों में लोकतंत्र की स्थापना उस दौर में जनता के विभिन्न वर्गों की चेतना के आधार पर निर्मित हुई। इसमें स्वाधीनता संग्राम में शामिल लोकप्रिय नेताओं, पत्रकारों, वकीलों सहित सामाजिक, क्षेत्रीय, भाषाई और राष्ट्रीयता के आंदोलनों से उपजे सवालों को समाहित करने की कोशिश की गई। लेकिन समय के साथ संसद, कार्यपालिका, न्यायपालिका सहित प्रेस की भूमिका में भी लगातार नकारात्मक बदलाव दिखाई दिए। नवउदारवादी दौर में आर्थिक संकेन्द्रण के साथ यह घनीभूत होता चला गया। 

आर्थिक संसाधनों के चंद निजी कॉरपोरेट्स और बहुराष्ट्रीय निगमों के हाथों में केंद्रित करने का वायस बनने जा रही है, बल्कि संकट के घनीभूत होने पर यह अर्थतंत्र ही नहीं बल्कि देश के लोकतांत्रिक मूल्यों, संवैधानिक संस्थाओं, प्रेस की आजादी, अभिव्यक्ति की आजादी सहित खुद संविधान और न्यायपालिका तक को अपनी जकड़ में लेने की ओर बढ़ सकती है। 

2000 के दशक से ही दुनिया में इसके लक्षण दिखने लगे थे। इसकी प्रमुख अभिव्यक्ति विश्व को तुर्की में राष्ट्रपति एर्दोगन, अमेरिका में डोनाल्ड ट्रम्प, ब्राजील में जेयर बोल्सनारो, हंगरी में विक्टर ओर्बन, फिलीपिंस में रोड्रिगो दुतेर्ते  के साथ-साथ भारत में 2014 में नरेंद्र मोदी को देखा जाता है। उक्त सभी देश पश्चिमी लोकतंत्र की तर्ज पर बाकायदा सार्वभौमिक मताधिकार के जरिये देश की सत्ता चलाते हैं। 

भारत में हम पाते हैं कि 2014 में संसद की सीढ़ियों पर नतमस्तक होते नरेंद्र मोदी और आज की हकीकत एक दूसरे से एकदम उलट है। सत्ता के केन्द्रीयकरण की शुरुआत पहले केंद्रीय मन्त्रिमंडल से शुरू हुई, और जल्द ही सत्तारूढ़ दल के सभी सांसदों की भूमिका किसी रबर स्टांप से अधिक नहीं रह गई। पहले दौर में नौकरशाही के विभिन्न स्तरों पर चरणबद्ध ढंग से पीएमओ की तूती जो बोलनी शुरू हुई, वह अब राज्य के किसी भी कोने में होने वाले उपचुनावों तक में साफ़ सुनी जा सकती है। हाल ही में कर्नाटक राज्य में हुआ विधानसभा चुनाव इसका जीता-जागता सबूत है। 

2014 से ठीक पहले लोकतंत्रिक मूल्यों की दुहाई देने का जूनून सर चढ़कर बोल रहा था। याद कीजिये राष्ट्रीय मीडिया सुबह से लेकर देर रात तक पहले निर्भया और बाद में अन्ना हजारे के नेतृत्व में देश की अंतरात्मा को झकझोरना जैसे उसका शगल बन गया था। वही मीडिया अचानक से कैसे कब पालतू कुत्ता बन गया, सत्ता के विरोध की आवाजों को दबाने के लिए कुत्सित अभियान चलाने लगा, और बाद के दिनों में तो जनता के बढ़ते विक्षोभ को दिग्भ्रमित करने के लिए खुद से रोज-रोज उलजुलूल विषयों पर कथित राष्ट्रीय बहस चलाने लगा।

लोकपाल, सीवीसी जैसी संस्थाएं अभी जिंदा भी हैं, या खत्म हो गईं किसी को कोई खबर नहीं है। सीएजी अब सरकार के आय-व्यय का कोई ब्यौरा बनाती भी है कि नहीं शायद ही किसी ने इसकी सुध ली हो। 2011 के बाद हर दस वर्ष पर जनगणना का काम 2021 में नहीं हुआ तो 2022 में क्यों नहीं हुआ, कोई पूछने वाला नहीं है। देश में सांख्यिकी का काम दुनिया में सराहा जाता रहा है, लेकिन अब देश में हर काम अनुमान के सहारे चल रहा है। देश में बेरोजगारी की दर या अन्य चीजों के लिए सीएमआईई या विश्व बैंक सहित बाहरी मानकों का सहारा लिया जाता है। ऐसा इसलिए क्योंकि लोकतंत्र और संस्थाओं के भीतर लोकतांत्रिक स्वरूप को बरकारर रखने के लिए पारदर्शिता सबसे पहली शर्त है, और जब सही आंकड़े ही नहीं होंगे तो कोई जवाबदेही भी नहीं रहने वाली।

कार्यपालिका पहले भी निर्वाचित विधायिका के तहत ही काम करती थी, और उसके लोकतांत्रिक आचरण पर ही उसकी स्वायत्तता काफी हद तक निर्भर थी। जब-जब देश में लोकतांत्रिक मूल्यों के प्रति आग्रह रखने वाली केंद्रीय सरकार नेतृत्व में आई है, कार्यपालिका ने भी उसी के बरक्स खुद को सामने रखा है। मोदी राज में अधिकांश ने इशारे को पकड़ा और उसी लिहाज से अपने लिए जगह बना ली है। इसलिए वो चाहे प्रशासनिक अधिकारी हों, सेना या सीबीआई, ईडी जैसे अन्य विभाग सभी स्वयं को निजाम के हिसाब से ढाल चुके हैं। 

सवाल सिर्फ न्यायपालिका और प्रेस मीडिया का रह जाता है, और व्यापक जनता को उसी से उम्मीदें रहती हैं। आज प्रेस और टेलीविजन मीडिया बिना पूंजी और सरकारी विज्ञापन पर एक दिन चल नहीं सकते। जो एक आध स्वायत्त होने का ढोंग करते भी थे, उन्हें क्रोनी पूंजी ने हस्तगत कर लिया है। 

न्यायपालिका भी इसका अपवाद नहीं रहा है। लेकिन समय-समय पर कुछ अपवाद भी देखने को मिलता रहा है। पूर्व में सर्वोच्च न्यायालय के चार न्यायाधीशों के सार्वजनिक रूप से न्यायिक फैसलों पर बढ़ते दबाव के खुलासे ने पूरे देश में नए सिरे से बहस पैदा कर दी थी। लेकिन कुछ माह बाद ही बाबरी मस्जिद मामले में कोर्ट के फैसले ने देश में मौजूद न्यायप्रिय नागरिकों और आबादी के बड़े हिस्से के दिलों में एक बड़ा शून्य पैदा हुआ है। यह फैसला क्यों और किन वजहों से हुआ, इस बारे में न जानते हुए भी यह कहने में कोई संकोच नहीं कि हाल के दिनों में विविध उपायों के जरिये इस संवैधानिक संस्था को भी लगातार समेटने की कोशिश होती रही है। 

हाल के दिनों में केंद्रीय कानून मंत्री किरण रिजिजू ही नहीं स्वंय उपराष्ट्रपति तक ने न्यायाधीशों की नियुक्ति के मामले को संदेहास्पद बताने और इसके जरिये न्यायिक फैसलों को आम नागिरकों की निगाह में विवादास्पद बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है। लेकिन वर्तमान मुख्य न्यायाधीश चन्द्रचूड की नियुक्ति के बाद से केंद्र और भाजपा की ओर से निरंतर हमले के बावजूद कुछ फैसले ऐसे आये हैं, जो देश को कहीं न कहीं एक ऐसा कोना मुहैया करा रही है, जिसकी खिड़की एक उम्मीद जगाती है। 

न केवल भारत, बल्कि पड़ोसी देश पाकिस्तान में न्यायपालिका जिस तरह से कुछ एक दिनों के भीतर अपने-अपने देशों के संवैधानिक मूल्यों और लोकतंत्र के पक्ष में खड़ी हुई है, वह उम्मीद जगाने वाला है।

( रविंद्र पटवाल जनचौक की संपादकीय टीम के सदस्य हैं।)

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