अमेरिका के नवनिर्वाचित राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप जब पहली बार राष्ट्रपति बने थे तब भी वे अपने अनेक विवादास्पद बयानों के लिए चर्चित रहे थे।
इस बार अभी उन्होंने राष्ट्रपति पद का शपथग्रहण नहीं किया है, परन्तु फिर भी वे अनेक ऐसे विवादास्पद बयान दे रहे हैं, जिससे बहुध्रुवीय विश्व में भविष्य में अमेरिका द्वारा लागू की जाने वाली रणनीतियों की कुछ झलक तो अवश्य ही मिलती है।
शनिवार को उन्होंने चेतावनी दी है कि अगर कोई देश अमेरिकी डॉलर को कमज़ोर करने की कोशिश करेगा, तो उसे 100 प्रतिशत टैरिफ का सामना करना पड़ेगा। उनके निशाने पर ब्रिक्स समूह के नौ देश हैं, जिनमें भारत, रूस और चीन प्रमुख हैं।
इस समूह में ब्राजील, दक्षिण अफ्रीका, मिस्र, इथियोपिया, संयुक्त अरब अमीरात और ईरान शामिल हैं। ब्रिक्स में शामिल होने के लिए मलेशिया और तुर्की जैसे देश भी सदस्यता के लिए आवेदन कर चुके हैं।
ट्रंप का कहना है कि अगर ब्रिक्स के देश दूसरी करेंसी का समर्थन करेंगे, तो उन्हें इसकी कीमत चुकानी पड़ेगी।
ट्रंप ने शनिवार को सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म एक्स के अपने हैंडल पर लिखा, “डॉलर से दूर होने की ब्रिक्स देशों की कोशिश में हम मूकदर्शक बने रहें, यह दौर अब ख़त्म हो गया है”।
“हमें इन देशों से प्रतिबद्धता की ज़रूरत है, कि वे न तो कोई नई ब्रिक्स मुद्रा बनाएंगे, न ही ताक़तवर अमेरिकी डॉलर की जगह लेने के लिए किसी दूसरी मुद्रा का समर्थन करेंगे, वरना उन्हें 100 प्रतिशत टैरिफ़ का सामना करना पड़ेगा”।
“अगर ब्रिक्स देश ऐसा करते हैं तो उन्हें शानदार अमेरिकी अर्थव्यवस्था में अपने उत्पाद बेचने को विदा कहना होगा। वे कोई दूसरी जगह तलाश सकते हैं। इसकी कोई संभावना नहीं है, कि अंतरराष्ट्रीय व्यापार में ब्रिक्स अमेरिकी डॉलर की जगह ले पाएगा और ऐसा करने वाले किसी भी देश को अमेरिका को गुड बाय कह देना चाहिए।”
ट्रंप के मैसेज का सीधा मतलब ये है कि अमेरिका चाहता है दुनिया भर में डॉलर का जो दबदबा है वो बना रहे। अमेरिकी मुद्रा डॉलर की पहचान एक वैश्विक मुद्रा की बन गई है। अंतरराष्ट्रीय व्यापार में डॉलर और यूरो काफी लोकप्रिय और स्वीकार्य हैं।
दुनिया भर के केंद्रीय बैंकों में जो विदेशी मुद्रा भंडार होता है, उसमें करीब 65 प्रतिशत अमेरिकी डॉलर होते हैं। डॉलर की मजबूती अमेरिकी अर्थव्यवस्था की ताकत का प्रतीक है।
अमेरिका के चीन और रूस के साथ रिश्ते तनाव भरे रहे हैं। जानकारों के मुताबिक यूक्रेन पर रूस के हमले के बाद चीन और रूस एक दूसरे के और करीब आए हैं।
दोनों देश अमेरिका के दबदबे वाली विश्व व्यवस्था को खारिज़ कर बहुध्रुवीय दुनिया बनाने की बात कर रहे हैं। यही वजह है कि दोनों देश काफी लंबे समय से दुनिया में अमेरिका मुद्रा डॉलर की बादशाहत को चुनौती देने की कोशिशें कर रहे हैं।
- एक साल पहले चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने कहा था कि वे एशिया, अफ्रीका के अलावा दक्षिण अमेरिकी देशों के साथ व्यापार अमेरिकी डॉलर की बजाय चीनी मुद्रा युआन में करना चाहते हैं।
- रूस के साथ तो चीन पहले से ही अपनी करेंसी युआन में व्यापार कर रहा है। इसी तरह की बात रूस भी कर रहा है, क्योंकि अमेरिका और पश्चिमी देशों ने उस पर कड़े आर्थिक प्रतिबंध लगाए हैं।
- अमेरिका, यूरोपीय संघ, ब्रिटेन और उसके कई सहयोगी देश रूस के कई बैंकों को अंतरराष्ट्रीय भुगतान के अहम सिस्टम स्विफ्ट से बाहर कर चुके हैं।
स्विफ्ट बैंकिंग इंटरनेशनल पर अमेरिका, यूरोप और पश्चिम के देशों का दबदबा है। जब किसी भी देश पर प्रतिबंध लगते हैं, तो उसे इस सिस्टम से अलग कर दिया जाता है।
जिस तरह से रूस पर प्रतिबंध लगे हैं, उसे देखते हुए ब्रिक्स के देश यह सोच रहे हैं कि कहीं भविष्य में उनकी बैंकिंग ब्लॉक ना कर दी जाए। यही वजह है कि ये देश फ़ाइनेंशियल नेटवर्क बनाने की कोशिश रहे हैं।
क्या वाकई डॉलर के विकल्प की तलाश हो रही है?
ब्रिक्स देश ऐसा प्लान बना रहे थे, लेकिन इतनी जल्दी ये होने वाला नहीं है, हालांकि कुछ पहल शुरू हो चुकी है। चीन युआन में ब्राज़ील के साथ डील कर रहा है।
चीन ने सऊदी अरब के साथ करेंसी को लेकर समझौता किया है और भारत ने रूस के साथ ऐसा ही समझौता किया है, ऐसे ट्रेंड शुरू हुए हैं, लेकिन डॉलर के मुकाबले किसी करेंसी को खड़ा कर पाना बहुत दूर की बात है।
ब्रिक्स दुनिया की करीब 41 प्रतिशत आबादी का प्रतिनिधित्व करता है। वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम के मुताबिक दुनिया के जीडीपी में ब्रिक्स की हिस्सेदारी करीब 37 प्रतिशत है।
ब्रिक्स में शामिल संयुक्त अरब, अमीरात और ईरान ऐसे देश हैं, जिनका कच्चे तेल के बाजार पर दबदबा है। हाल के सालों में ब्रिक्स देशों ने आगे बढ़कर राष्ट्रीय सुरक्षा से लेकर आर्थिक विकास के कामों में एक दूसरे का साथ दिया है।
साल 2015 में ब्रिक्स के देशों ने मिलकर न्यू डेवलपमेंट बैंक की स्थापना की थी, जिसका मुख्यालय चीन स्थित शंघाई में है। इस बैंक ने हाल के सालों में चीन से लेकर दक्षिण अफ्रीका तक कई बड़ी परियोजनाओं को फंड दिया है और ये पैसा डॉलर की बजाय स्थानीय मुद्राओं में दिया गया है।
जानकारों का मानना है कि आने वाले समय में इस तरह की कोशिशें डॉलर को चुनौती दे सकती हैं और इसी से निपटने के लिए ट्रंप तैयार नज़र आते हैं।
वास्तव में हमें यह विश्लेषण करना पड़ेगा कि बदलती हुई दुनिया में क्या डॉलर का प्रतिस्थापन हो सकता है? अंतरराष्ट्रीय तनाव की हर घटना के वक्त वैश्विक पेमेंट सिस्टम व रिज़र्व करेंसी में डी-डॉलराइजेशन संबंधित अटकलें शुरू हो जाती हैं।
डॉलर या पॉउंड की जगह विश्व व्यापार एवं रिज़र्व की प्रभावी करेंसी बनने के वक्त से ही डी-डॉलराइजेशन की ऐसी अटकलें लगाई जा रही हैं।
1970 के दशक में जापानी येन और 1990 के दशक में यूरो द्वारा डॉलर को प्रतिस्थापित कर देने की चर्चाएं खूब चलीं। यूक्रेन में रूस-नाटो युद्ध के बाद डी-डॉलराइजेशन और चीनी रेनमिनबी (युआन) द्वारा इसकी जगह लेने की संभावना फ़िर से चर्चा में है।
डॉलर की वर्तमान स्थिति में कोई महत्त्वपूर्ण गिरावट नहीं आई
क्या इस स्थिति में परिवर्तन और डॉलर का प्रतिस्थापन संभव ही नहीं है? परिवर्तन बिलकुल संभव है, किन्तु उसके लिए चीन को वित्तीय पूंजी और जीओ पॉलिटिक्स में अमेरिका को प्रतिस्थापित करना होगा। उसे विश्व के बहुत से देशों के लिए पूंजी आयात का स्रोत बनना होगा।
उसे युआन को पूर्णतः परिवर्तनीय बनाना होगा। बेल्ट एंड रोड योजना और विभिन्न देशों के बढ़ते चीनी ऋण इसी नीति का एक अंग है, किन्तु यह चीनी अर्थव्यवस्था को ठीक उसी आर्थिक संकट या बाज़ार उतार-चढ़ाव का शिकार भी बना देगा, जिसे पूंजी और मुद्रा नियंत्रण के ज़रिए चीन ने कुछ हद तक रोककर रखा था।
दूसरे इतिहास बताता है कि पूंंजी निर्यात और ऋण के पीछे वसूली के लिए व पहले से स्थापित ऋणदाताओं के साथ होड़ हेतु सैन्य शक्ति की होड़ में भी शामिल होना ज़रूरी होता है। यह होड़ अवश्यंभावी है।
चीन व रूस की आर्थिक चुनौती के समक्ष अमेरिका-नाटो द्वारा पेश की जा रही सैन्य चुनौती और वैश्विक युद्ध की स्थिति इसी का नतीज़ा है। ब्रिटिश पाउंड ने विश्व में अपनी प्रधानता औपनिवेशिक विजयों से क़ायम की थी। दो विश्वयुद्धों के नतीज़ों में डॉलर ने पाउंड की जगह ले ली थी।
अब युआन द्वारा डॉलर की जगह लेने की अनुमति भी अमेरिकी और पश्चिमी वित्तीय पूंजी, सैन्य जोर आजमाइश के बगैर कभी नहीं देगी। वास्तव में डोनाल्ड ट्रम्प की धमकी के पीछे यही निहितार्थ भी है।
(स्वदेश नीलम स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)
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