भगत सिंह और उनके साथियों की शहादत से कौन डरता है?

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भगत सिंह और उनके साथियों की शहादत से कौन डरता है? इस वर्ष मार्च तक आते-आते भारत में राजनीतिक सामाजिक अंतर विरोध तीव्रतम रूप में टकरा रहे हैं। शासक वर्ग में लोकतांत्रिक प्लेटफॉर्म पर सहमति की अब तक की‌ चली आ रही परंपराएं ध्वस्त हो चुकी हैं। ऐसे समय में ही 23 मार्च को भगत सिंह, राजगुरु, सुखदेव का शहादत दिवस आ गया। इस ‌वर्ष मुख्यधारा की राजनीति और मीडिया के विचार-विमर्श में इन शहीदों को लेकर पसरे खतरनाक सन्नाटे पर देश को अवश्य ही चिंतित होना चाहिए। क्या बात है कि जब देश के युवा, छात्र, नौजवान और संघर्षरत किसान, मजदूर भगत सिंह और अंबेडकर से प्रेरणा लेने का ऐलान कर रहे हो तो भारतीय सत्ताधारी वर्ग क्रांतिकारियों को नकारने की खतरनाक कोशिश में मुब्तिला हो। 

आज देश उस चौराहे पर खड़ा है जहां से वह स्वतंत्रता संघर्ष की समस्त खूबियां, विशिष्टताओं, उपलब्धियां को नकारते हुए कॉर्पोरेट हिंदुत्व गठजोड़ की तानाशाही की दिशा में कदम बढ़ा चुका है। इस समय अगर राष्ट्र ने विकसित हो रही सर्वाग्रासी विध्वंसक प्रवृत्तियों को चिन्हित कर उनको भारतीय राज्य और समाज से बाहर निकालने के लिए कठिनतम संघर्ष का रास्ता नहीं चुना तो हजारों शहीदों की शहादत द्वारा रोशन हमारी स्वतंत्रता और लोकतंत्र को लंबे समय के लिए ग्रहण लग सकता है।

‌‌भगत सिंह और उनके साथी 20वीं सदी के तीसरे दशक में (जब भारतीय स्वतंत्रता संघर्ष एक सुनिश्चित दिशा ले रहा था) चल रहे संघर्षों के बीच क्रांति की रणनीति और वैचारिक चेतना को विकसित करने में लगे थे। यह वह समय था जब गदर आंदोलन के हजारों‌ क्रांतिकारी या तो मारे जा चुके थे या जेल में सड़ रहे थे। जलियांवाला बाग का बर्बर नरसंहार हो चुका था। गांधी जी भारतीय स्वतंत्रता संघर्ष के क्षितिज के संपूर्ण  स्पेस को तेजी से घेरते हुए राष्ट्रीय नायक‌ हो चुके थे। चौरी चौरा की घटना के बाद असहयोग वापस लिया जा चुका था। जिस कारण समाज में मायूसी फैली हुई थी।

पंजाब का सिख समाज आर्य समाज के द्वारा प्रचारित एकांगी रेडिकल विचारों तथा ब्राह्मणवादी पुजारियों के कब्जे से  गुरुद्वारों की मुक्ति के लिए बहादुराना संघर्ष में उतरा हुआ था। जिस संघर्ष के ताप से अकाली राजनीति आकार ग्रहण कर रही थी और गुरुद्वारों की मुक्ति के साथ गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी नामक एक लोकतांत्रिक संस्था जन्म ले रही थी।

साथ ही औपनिवेशिक सत्ता अनेक तरह के मिशन कमीशन और योजनाओं द्वारा भारतीयों को झांसा देकर निर्मित हो रही विराट भारतीय जन गण की एकता को तोड़ने और सत्ता में प्रतीकात्मक भागीदारी देने की कोशिश में थी। यही नहीं भारतीय स्वतंत्रता संघर्ष का चरित्र अतीतकालीन मिथकीय नायकों, आदर्शों, परंपराओं और हिंदुत्ववादी प्रतीकों के बीच से धीरे-धीरे बाहर निकाल कर आधुनिक लोकतांत्रिक मूल्यों को आत्मसात करने लगा था। तिलक और गोखले युग से बाहर आकर स्वतंत्रता संघर्ष जन भागीदारी के बढ़ने से जन आंदोलन बन गया था।

यही समय था जब भारत के स्वतंत्रता संघर्ष में अनेक विचारधाराओं के लिए जगह बनने लगी थी। रूसी क्रांति संपन्न होने के साथ विश्व स्तर पर एक नए तरह की जन राजनीति और जन क्रांति की संभावनाएं प्रबल हो चुकी थी। जिसकी खासियत थी कि उपनिवेशवाद विरोधी आंदोलन का सामाजिक आधार और नेतृत्व का वर्ग चरित्र बदलने लगा था। रूसी क्रांति ने दुनिया के मेहनतकश उत्पीड़ित जन गण और गुलाम कौमों में नई आशा का संचार कर समाज के वर्गीय रूपांतरण की‌‌ नई दिशा प्रस्तुत कर दी थी। जिसे उपनिवेशों और गुलाम देश की मुक्तिकामी जनता का भारी समर्थन मिल रहा था और भारत के राष्ट्रीय आंदोलन का चरित्र भी प्रगतिशील जनवादी स्वरूप लेने लगा था।

बीसवीं शदी के तीसरे दशक की शुरुआत में ही यूरोपीय देश इटली में मुसोलिनी के फासीवादी पार्टी का उभार हुआ।‌जिसके थोड़े समय बाद जर्मनी में हिटलर के नेतृत्व में नाजीवाद का दौर शुरू हुआ। जो कुछ देशों में नस्लीय श्रेष्ठता के विध्वंसक विचारों और संगठनों के जन्म का कारण बना। यूरोप के असाध्य मंदी में फंसे होने के कारण फ्रांस की बुर्जआ क्रांति की चमक फीकी हो चली थी।

हालांकि इस क्रांति से निकले मूल्यों ‘स्वतंत्रता समानता बंधुत्व’ विश्व के उत्पीड़ित जन गण के लिए सुखद हवा के झोंकों की तरह थे। इस क्रांति के मूल्यों को वर्ग प्रतिबद्धता के साथ आगे बढ़ते हुए रूसी क्रांति ने विश्व की आधुनिक सभ्यता में नए और सर्वथा भिन्न वर्गों की ऐतिहासिक भूमिका को चिन्हित कर दिया था। इसलिए विश्वव्यापी मुक्ति संघर्ष में कई तरह के विचारधाराओं में टकराव होने लगे थे। जिसे आगे चलकर हमने द्वितीय विश्व युद्ध के विध्वंसक दौर और समाजवादी क्रांतियों की श्रृंखला के रूप में देखा। इस क्रांति के असर से भारत में भी साम्यवादी विचार और पार्टी का अभ्युदय हुआ और भारत के क्रांतिकारी आंदोलन मे भी मार्क्सवाद लेनिनवाद  का पाठ शुरू हो गया। भगत सिंह इसके सर्वश्रेष्ठ प्रवक्ता और प्रतिनिधि बने।

गोखले और तिलक के न रहने के बाद हिंदू महासभाई और हिंदूत्ववादी ताकते हताशा के शिकार थी। इसलिए मुंजे और हेडगेवार ने इटली की यात्रा करके भारत में फासीवादी राजनीति के नए संस्करण के बतौर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का गठन किया।

खैर जो भी हो भारत का स्वतंत्रता संघर्ष विभिन्न विचारधाराओं और मुक्ति के विभिन्न मार्गो- दिशाओं के प्रभाव से अछूता नहीं रह सका। एक तरफ गांधी जी और हिंदू महासभा की वैचारिक दिशा थी तो दूसरी तरफ भारत के सामाजिक परिवेश से उपजी फुले-अंबेडकर-पेरियार और भगत सिंह और उनके साथियों की समाजवाद की तरफ बढ़ती वैचारिक प्रतिबद्धता और समझौता विहीन संघर्ष की धारा थी। जिससे दोनों के बीच में टकराव होना स्वाभाविक था।

भगत सिंह और भगवती चरण वोहरा ने मिलकर हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन की वैचारिक दिशा को समाज वादी क्रांतिकारी विचारधारा द्वारा (मार्क्सवाद‌ लेनिनवाद) ठोस करने का काम किया। भगत सिंह गम्भीर अध्ययन और चिंतनशील युवा थे। वे‌ उस समय दुनिया में प्रचलित सभी मुक्ति के विचारों दर्शनों और सिद्धांतों का गहन‌ अध्यन चिंतन मनन करते हुए समाज वादी दर्शन तक पहुंचें और मेहनतकश जनता की मुक्ति के लिए समाजवादी क्रांति को  अनिवार्य ‌मानने लगे थे।

गांधीजी अतीत के मिथकीय नायकों और विचारों (रामराज्य-आज के संघीय और भाजपाई रामराज से सर्वथा भिन्न) द्वारा स्वतंत्रता आंदोलन को परिभाषित करने की कोशिश कर रहे थे। खुद गांधी जी ने ही गोपाल कृष्ण गोखले को अपना गुरु मानते थे।

वस्तुत उस समय हमारा स्वतंत्रता संघर्ष अतीत के मोहपाश से मुक्त हो सर्वथा नए आधुनिक मूल्यों रास्तों से आगे बढ़ाने के लिए आंतरिक जद्दोजहद से गुजर रहा था। वही समय है जब खासतौर से भगत सिंह पंजाब की धधकती धरती के ताप में धीरे-धीरे तपते हुए फौलादी क्रांतिकारी योद्धा में रूपांतरित हो रहे थे। 1925 के बाद लगातार अपनी वैचारिक राजनीतिक समझ को विकसित करते हुए भावी भारत को लेकर अपनी स्पष्ट राय बना रहे थे। उनका कहना था कि लार्ड इरविन की जगह सर तेज बहादुर सप्रू को गद्दी पर बैठा देने से भारत के नागरिकों के जीवन में कोई बदलाव नहीं आएगा। वह गोरे शासको की जगह भूरे शासको को लाने के पक्षधर नहीं थे।

साथ ही उन्होंने जाति धर्म भाषा संस्कृति के जटिल अंतर संबंधों की व्याख्या करते हुए भावी भारत को एक समाजवादी गणतांत्रिक भारत के रूप में देखना चाहते थे। इसलिए इतनी छोटी उम्र में ही, अछूत की समस्या, भाषा का सवाल और मैं नास्तिक क्यों हूं? जैसे लेखों (उद्घोषणाओं) द्वारा उन्होंने स्वतंत्रता संघर्ष के विमर्श को ही बदल दिया था और बड़े से बड़े राजनेता भी उनके इस विचारों के सामने बौने दिखने लगे थे। अंध राष्ट्रवादी आज भी उनके विचारों से उन्हें काटकर रोमांटिक क्रांतिकारी के रूप में पेश करते हैं। उन्होंने दिये की रोशनी में हाथ जलने जैसे बेवकूफी भरे दृष्टांतों के द्वारा तत्कालीन क्रांतिकारियों की व्याख्या करने की दयनीय कोशिश की। लेकिन भगत सिंह और उनके साथी इतने नटखट और जिद्दी थे कि ये तथाकथित देशभक्त अंततः उनसे मुक्ति पा लेना ही लेने में ही अपनी खैर समझने लगे।

यही कारण है जब भारत को अमृत काल में धकेल दिया गया था तो उस समय भी सत्ता के शिखर में बैठे हुए लोगों ने कभी इन क्रांतिकारियों के योगदान के बारे में चर्चा तक नहीं की। उनके आंतरिक वैचारिक दरिद्रता ने उन्हें जुबानबंद रखने के लिए मजबूर कर दिया। अब देश अमृत कल को लाघ कर अंधकार काल की तरफ बढ़ रहा है तो सत्ताधारी वर्ग के नकली देशभक्त इन महान शहीदों के शहादत दिवस पर उनका नाम लेने में भी कांप जाते हैं।

जिस दौर में दंगाइयों और‌ नफरती गैंग के “लौहपुरुषों” को जिनके विभाजन कारी अभियानों के कारण हजारों लोगों को जिंदगी से हाथ धोना पड़ा था और अरबों खरबों की देश की संपत्ति नष्ट हो गई। आज उन्हें भारतरत्न से नवाजा जा चुका है। स्वाभाविक है ऐसे शासकों को भगत सिंह और उनके शहीद साथियों  का नाम लेना निश्चय ही बहुत खतरनाक होता। (यहां मैं आज की हिंदुत्ववादी सत्ताधारियों को ईमानदार मानता हूं कि वह अपने धुर वैचारिक प्रतिद्वंदी भगत सिंह और उनके साथियों के साथ वैचारिक दुश्मनी को नहीं छुपा रहे हैं।)

यही कारण है इस वर्ष 23 मार्च को हमने सत्ता के किसी भी पर कोटे पर बैठे हुए किसी भी तरह के सत्ताधारियों में भगत सिंह राजगुरु सुखदेव की शहादत पर उनको श्रद्धांजलि देने की तो बात छोड़िए नाम लेने का भी साहस नहीं हो पाया। यह एक सुखद अनुभव है। जहां गांधी, अंबेडकर, नेताजी सुभाष चंद्र बोस, विवेकानंद जैसे महापुरुषों को पचा लेने की कोशिश हो रही है। जिसमें एक हद तक संघ और भाजपा को सफलता भी मिली थी। वहीं भगत सिंह और उनके साथियों की विरासत से पिंड छुड़ा लेने में ही उन्होंने अपनी भलाई समझी।

लेकिन आश्चर्य इस बात पर है कि 2024 में गांव-गांव कस्बों कस्बों में किसानों मजदूरों छात्रों नौजवानों और लोकतांत्रिक जनगण‌ ने इतिहास के इस नाजुक मोड पर 23 मार्च को भगत सिंह और उनके साथियों के शहादत को दिवस को आयोजित कर भारत के सत्ताधारियों को संदेश दे दिया है कि भगत सिंह जनता की यादों में आज भी उसी तरह से जिंदा है जैसे वह स्वतंत्रता संघर्ष के दौरान थे। जिसको देखकर वे निश्चय ही आज के सत्ताधारी सदमे में होंगे।

इस समय हमारे लोकतंत्र पर हो रहे फासीवादी के हमले के दौर में भगत सिंह का- विरासत के साथ विकास- के तथाकथित पाखंड से बाहर निकल कर भारत के किसानों मजदूरों छात्रों नौजवानों द्वारा लड़े जा रहे लोकतंत्रात्मक संघर्ष के मैदान में आ खड़ा होना। हमें सुखद प्रेरणा दे‌ रहा है। इसी का परिणाम है कि पूंजी की काली ताकतों के प्रचार तंत्र और सत्ता के क्रूर संस्थानों के द्वारा किए जा रहे षडयंत्रों को दरकिनार करते हुए जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में भगत सिंह और अंबेडकर के वारिशों ने विभाजनकारी एबीवीपी के गुंडों को भारी शिकस्त दी है। जिन्होंने पिछले कुछ वर्षों में विश्वविद्यालयों और विश्वविद्यालय के छात्रों पर अनेक तरह से हमले किए। खून की होली खेली और इस महान विश्वविद्यालय की विरासत को हर तरह से कलंकित करने का प्रयास किया। लेकिन वह जेएनयू की लोकतांत्रिक आत्मा को पराजित नहीं कर सके।

जिस कारण से इस विश्वविद्यालय के युवाओं ने अपने नायकों की शहादत के ठीक दूसरे दिन हिंदुत्व की सबसे विध्वंसक ताकतों को पराजित कर ‘जेएनयू लाल है लाल रहेगा’ का संदेश देकर भारत के लोकतांत्रिक राजनीति  पर छा गए। मैं समझता हूं कि इससे बड़ी श्रद्धांजलि भारत के युवा अपने प्रिय नेताओं- भगत सिंह और उनके साथियों -को और क्या दे सकते थे। जब उन्होंने जवाहरलाल यूनिवर्सिटी में भगत सिंह और उनके साथियों को अपने परचम‌ पर लहराते हुए नारा दिया “भगत सिंह तुम जिंदा हो खेतों में खलिहानों में, जनता के अरमानों में।” आइए इस सुर्ख़ सूर्योदय का स्वागत करें और अपने क्रांतिकारी नायकों को उनके शहादत दिवस पर क्रांतिकारी श्रद्धांजलि दें।

(जयप्रकाश नारायण किसान नेता और टिप्पणीकार हैं)

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