लोकसभा चुनाव में हिन्दुत्व का मुकाबला करेगी जातीय गणना?

Estimated read time 1 min read

भारतीय जनता पार्टी अगामी लोकसभा चुनावों के दृष्टिगत साम्प्रदायिक आधार पर मतदाताओं का ध्रुवीकरण करने के लिये प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से अभियान चला ही रही थी कि अब विपक्ष की सबसे बड़ी पार्टी कांग्रेस के खुल कर जातीय गणना के पक्ष में खड़े हो जाने से साफ हो गया कि 2024 का लोकसभा चुनाव कमंडल बनाम मंडल के मुख्य मुद्दे को लेकर लड़ा जाना है। 

देश में मतदाताओं का साम्प्रदायीकरण इस हद तक हो गया है कि भाजपा के हिन्दू वोट बैंक को तोड़ने के लिये विपक्ष को पिछड़ी और अन्य पिछड़ी जातियों का दांव चलना पड़ रहा है। वैसे भी चाहे आर्थिक क्षेत्र की नाकामी हो या बेरोजगारी और महंगाई की समस्या हो विपक्ष के हर हथियार को भाजपा हिन्दुत्व और राष्ट्रवाद के नाम पर बेअसर करती जा रही है। यहां तक कि हिन्डनबर्ग द्वारा अडानी के कारनामें के इतने बड़े खुलासे और पुलवामा कांड में मोदी सरकार की घोर लापरवाही के उजागर हो जाने जैसे भयंकर मुद्दों की भी भाजपा को परवाह नहीं रह गयी है। अगर पूर्व राज्यपाल सत्यपाल मलिक के दावे में थोड़ी भी सच्चाई है तो हमारे सुरक्षा बलों के साथ इससे बड़ा धोखा और कुछ नहीं हो सकता है।

अब तक सपा, बसपा, राजद और जनता दल जैसे कुछ क्षेत्रीय दल ही देश में जाति आधारित जनगणना की मांग कर रहे थे। लेकिन अब विपक्ष के सबसे बड़े दल कांग्रेस के अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने बाकायदा प्रधानमंत्री मोदी को पत्र लिख कर 2011 की जातीय गणना के नतीजों को सार्वजनिक करने की मांग कर अपने को जातीय गणना समर्थकों में शामिल कर दिया। जबकि अब तक यह पार्टी भाजपा और वाम दलों की तरह जातीय गणना के पक्ष में नहीं थी। 

यही नहीं कांग्रेस के अघोषित शीर्ष नेता राहुल गांधी ने भी अपने निर्वाचन क्षेत्र वायनाड में जातीय गणना का मुद्दा उठा कर साबित कर दिया कि अगर भाजपा हिन्दुओं के नाम पर 2024 में वोट मांगेगी तो विपक्ष उस वोट बैंक में सेंध लगाने के लिये जातियों का फ्रंट अवश्य खोलेगा। भारत में लगभग 2633 जातियां अन्य पिछड़े वर्ग में मानी जाती है। इनके अलावा 1241 अनुसूचित जातियां और 705 जनजातियां हैं। अगर अल्पसंख्यकों को भी इसी वर्ग में जोड़ दिया गया तो शेष आबादी 20 प्रतिशत से कम रह जायेगी।

चुनाव के मैदान में धर्म के अस्त्र के खिलाफ जातियों के ब्रह्मास्त्र के असर का पता तो अब 2024 में ही चलेगा, मगर संभावना है कि देश की जटिल सामाजिक और सांस्कृतिक विविधता को देखते हुए पहचान-आधारित राजनीति भारतीय राजनीति में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती रहेगी। 

दरअसल तत्कालीन भाजपा अध्यक्ष लालकृष्ण आडवाणी ने अयोध्या में राम मंदिर निर्माण के लिए समर्थन जुटाने के उद्देश्य से 25 सितंबर, 1990 को गुजरात के सोमनाथ से उत्तर प्रदेश के अयोध्या तक की यात्रा शुरू की थी तो भारत की राजनीति में एक उबाल सा आ गया था। 

यद्यपि बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव ने उस यात्रा को 23 अक्टूबर 1990 को बिहार के समस्तीपुर में रोक दिया था। रथ यात्रा की योजना राम जन्मभूमि आंदोलन के लिए शक्ति और समर्थन के प्रदर्शन के रूप में बनाई गई थी, और इसे बड़े पैमाने पर सार्वजनिक रैलियों और जुलूसों द्वारा प्रचारित किया गया था। हालांकि, यात्रा के भारी विरोध और हिंसा के बावजूद, रथ यात्रा ने विशेष रूप से हिंदू समुदाय के बीच भाजपा के समर्थन के आधार को मजबूत करने में मदद की। 

1991 के लोकसभा चुनाव में पार्टी भाजपा ने 120 सीटों पर जीत हासिल की और संसद में कांग्रेस के बाद दूसरी सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी जबकि उससे पहले लोकसभा में उसके केवल 2 सदस्य थे। उस आन्दोलन के बाद भारतीय राजनीति में नया बदलाव आया और भाजपा हिन्दू वोट बैंक के आधार पर सफलता की सीढ़ियां चढ़ती गयी। 

यद्यपि विश्वनाथ प्रताप सिंह ने अगस्त 1990 में जब केंद्र की सरकारी नौकरियों में 27 प्रतिशत ओबीसी कोटा लागू करने का ऐतिहासिक ऐलान कर मंडल आयोग की सिफारिशों की ओर कदम बढ़ाया था तो उनके सामने तात्कालिक चुनौती राजनीति का हिन्दुत्वकरण न होकर ताकतवर जाट नेता देवीलाल के विद्रोह की चुनौती थी। लेकिन बाद में सामाजिक न्याय समर्थक राजनीतिक शक्तियों के हाथ भाजपा के हिन्दुत्व के ऐजेंडे के खिलाफ मंडल आयोग की रिपोर्ट लग गयी। इसलिये नब्बे के दशक की राजनीति में मंडल बनाम कमंडल का दाव चला।

दरअसल मंडल आयोग का गठन तत्कालीन मोरारजी देसााई सरकार ने 1979 में भारत में सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्गों की पहचान करने और उनकी स्थिति में सुधार के उपायों की सिफारिश करने के लिए बिहार के एक पूर्व मुख्यमंत्री बी.पी.मंडल की अध्यक्षता में किया था। मंडल आयोग ने 1980 में अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की, जिसमें इसने कुल 3,743 जातियों और समुदायों को सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्गों के रूप में पहचाना, जिन्हें तब अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) के रूप में वर्गीकृत किया गया था। आयोग ने सिफारिश की कि सरकारी नौकरियों और शैक्षिक सीटों का एक निश्चित प्रतिशत ओबीसी के लिए आरक्षित किया जाए, ताकि उनका प्रतिनिधित्व बेहतर हो सके और ऐतिहासिक नुकसान और भेदभाव को दूर किया जा सके।

मंडल आयोग की सिफारिशों का कार्यान्वयन भारतीय राजनीति में एक विवादास्पद मुद्दा बन गया, कुछ समूहों ने योग्यता के लिए खतरे के रूप में इस कदम का विरोध किया और सामाजिक असमानता को दूर करने के लिए एक आवश्यक उपाय के रूप में इसका समर्थन किया। मंडल आयोग की सिफारिशों का देशभर में उच्च वर्गों द्वारा भारी विरोध किया गया। मंडल विरोधी आन्दोलन से ही उत्तराखण्ड आन्दोलन भी उभरा जिसके परिणाम स्वरूप उत्तराखण्ड राज्य तो बना साथ ही झारखण्ड और छत्तीसगढ़ राज्य भी बने। यही नहीं बाद में तेलंगाना राज्य के गठन का मार्ग भी प्रशस्त हुआ।

दरअसल जातीय गणना करने वाला मंडल आयोग अकेला नहीं था। भारत सबसे पहले ब्रिटिशकाल में 1872 में आयोजित जाति-आधारित जनगणना में, लगभग 1,800 जातियों की पहचान की गई और उन्हें चार व्यापक श्रेणियों में वर्गीकृत किया गया, अर्थात् ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र। 

उसके बाद सन् 1931 में आयोजित दूसरी जाति-आधारित जनगणना में, 2,000 से अधिक जातियों की पहचान की गई और उन्हें व्यवसाय, भाषा और क्षेत्र जैसे विभिन्न मानदंडों के आधार पर कई उप-जातियों और समूहों में वर्गीकृत किया गया। 2011 में आयोजित नवीनतम जाति-आधारित जनगणना, अन्य जनसांख्यिकीय जानकारी के साथ जनसंख्या की जाति दर्ज की गई, लेकिन डेटा अभी तक सार्वजनिक नहीं किया गया है। 

भारत में, अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) का वर्गीकरण राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग (एनसीबीसी) द्वारा निर्धारित किया जाता है, जिसे राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग अधिनियम, 1993 के तहत स्थापित किया गया था। एनसीबीसी ने सितंबर 2021 तक कुल 5,013 जातियों और समुदायों को ओबीसी के रूप में वर्गीकृत किया है। यह वर्गीकरण सामाजिक, आर्थिक और शैक्षिक पिछड़ेपन जैसे विभिन्न मानदंडों पर आधारित है, और एनसीबीसी द्वारा समय-समय पर समीक्षा और संशोधन के अधीन है। 

भारत में, अनुसूचित जाति (एससी) का वर्गीकरण संविधान (अनुसूचित जाति) आदेश, 1950 द्वारा निर्धारित किया जाता है, जो उन जातियों और समुदायों को सूचीबद्ध करता है। सितंबर 2021 तक, 1,241 जातियां और समुदाय हैं जिन्हें भारत में अनुसूचित जातियों के रूप में वर्गीकृत किया गया है। इन समुदायों को सामाजिक और शैक्षिक रूप से वंचित माना गया है। इसी तरह सितंबर 2021 तक, 705 जनजातियां या आदिवासी समुदाय हैं जिन्हें भारत में अनुसूचित जनजातियों के रूप में वर्गीकृत किया गया है। इन समुदायों को सामाजिक और शैक्षिक रूप से वंचित माना जाता है और वे शिक्षा, रोजगार और राजनीतिक प्रतिनिधित्व में आरक्षण जैसे विभिन्न संवैधानिक सुरक्षा उपायों और लाभों के हकदार हैं।

(जयसिंह रावत वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

+ There are no comments

Add yours

You May Also Like

More From Author