भाजपा प्रदेश कार्यसमिति की बैठक: लोकसभा चुनाव में यूपी के परिणाम पर योगी आदित्यनाथ की घेरेबंदी 

Estimated read time 1 min read

लोकसभा चुनावों की समीक्षा के लिए 1 माह 10 दिन बाद, आख़िरकार कल 14 जुलाई के दिन लखनऊ में प्रदेश कार्यसमिति की बैठक हुई। इस बैठक को लेकर राजनीतिक गलियारों में तरह-तरह की चर्चाओं का बाजार गर्म है। देश का सबसे बड़ा सूबा होने के नाते उत्तर प्रदेश का महत्व किसी भी अन्य राज्य से काफी अधिक है। अभी तक यही माना जाता रहा है कि दिल्ली की सत्ता की राह उत्तर प्रदेश से होकर ही गुजरती है।

भाजपा ने भी 2024 के लिए उत्तर प्रदेश से कम से कम 70 सीटों की उम्मीद लगा रखी थी, लेकिन हाथ आई मात्र 33 सीटें। सहयोगी दल भी मात्र 3 सीटों को ही जोड़ सके, क्योंकि अकेले भाजपा 75 सीटों पर अपनी दावेदारी पेश कर रही थी। उधर दूसरी तरफ, इंडिया गठबंधन में सपा और कांग्रेस ने 2019 लोकसभा के अपने पिछले प्रदर्शन 6 सीट को बढ़ाकर 43 तक पहुंचा दिया है। यह झटका इतना गहरा है कि 18वीं लोकसभा में तीसरी बार एनडीए सरकार बनाने में सफल रहने के बावजूद भाजपा बहुमत से 32 सीट पीछे रह गई। 

इस बैठक में भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा (हालांकि उनका कार्यकाल पूरा हो चुका है), सहित प्रदेश के सभी पदाधिकारी, सांसद और विधायकों के साथ तकरीबन 3,000 कार्यकर्ता शामिल थे। उत्तर प्रदेश के प्रदेश अध्यक्ष भूपेन्द्र चौधरी, उप-मुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य के भाषणों में यह सुर निकलकर आया कि सरकार और प्रशासन को पार्टी कार्यकर्ताओं को जो सम्मान देना चाहिए था, या उनके मुद्दों को संबोधित करना चाहिए था, वह नहीं हो रहा है।

जबकि मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के अनुसार, इस बार भी भाजपा के वोट प्रतिशत में कोई फर्क नहीं आया है, लेकिन विपक्ष के एकजुट हो जाने और के अति-आत्मविश्वास के चलते विपक्षी दल को सेंधमारी का मौका मिल गया है। मुख्यमंत्री और उप-मुख्यमंत्री के बयानों में जो विरोधाभास नजर आता है, वह बताता है कि उत्तर प्रदेश में सब ठीक नहीं है। 

हालांकि बैठक के बाद राजनीतिक प्रस्ताव में जो प्रस्ताव पारित किये गये, उनमें कहा गया है कि देश में तीसरी बार कई राज्यों में पार्टी ने क्लीन स्वीप किया, लेकिन उत्तर प्रदेश में अपेक्षित सफलता नहीं मिल सकी। इसके पीछे के कारणों को बताते हुए प्रस्ताव में इसके लिए विपक्ष के गुमराह करने वाले एजेंडे को दोषी पाया गया। प्रस्ताव में कहा गया है कि विपक्ष ने मतदाताओं को संविधान में बदलाव, आरक्षण पर खतरे की बात और महिलाओं को प्रति माह 8,500 रूपये मुफ्त वितरण का झांसा देकर गुमराह करने का काम किया। पार्टी जनता के बीच में जाकर विपक्ष के गुमराह करने वाले एजेंडा का पर्दाफाश करने के लिए ग्राउंड पर जा रही है। 

ये बातें, हालांकि प्रेस और आम लोगों को दिखाने के लिए थी, लेकिन असल लड़ाई तो पार्टी के भीतर चल रहे घमासान से जुड़ा हुआ है, जिसके पटाक्षेप का वक्त अब लगता है आसपास ही है। गुजरात के बाद उत्तर प्रदेश को अपना सबसे प्रमुख गढ़ मानने वाली भाजपा के लिए यह अगले 5 वर्षों तक सबसे बड़ी चुनौती रहने वाली है कि उत्तर प्रदेश में वह अपनी बिगड़ी दशा को कैसे तत्काल दुरुस्त करे।

चुनाव से पहले तक यह माना जा रहा था कि भाजपा को राजस्थान, हरियाणा, कर्नाटक और महराष्ट्र से चुनौती मिल सकती है, लेकिन उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल ऐसे दो राज्य थे, जहां से उसे पहले से बेहतर प्रदर्शन की उम्मीद थी। लेकिन अब स्थिति यह हो गई है कि उत्तर भारत के आम लोग और स्विंग वोटर्स अपनी राय बदलने के लिए मजबूर हो रहे हैं। दिल्ली, उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश, मध्य प्रदेश जैसे राज्यों के आम लोगों को भी अहसास हो रहा है कि वे उत्तर प्रदेश जैसे विशाल राज्य की जमीनी हालात से परिचित नहीं थे, और उन्होंने भाजपा के प्रचार तंत्र और गोदी मीडिया के 400 पार वाले नारे पर भरोसा का यथास्थितिवादी रवैया अपनाया।

भाजपा न सिर्फ लोकसभा बल्कि आम राजनीतिक नैरेटिव में देश के इस बदले मूड को भलीभांति भांप रही है। इसीलिए, उत्तर प्रदेश को लेकर भाजपा क्या फैसला लेती है, इसको लेकर राजनीतिक गलियारों में भांति-भांति के विचार कौंध रहे हैं। जैसा कि अरविंद केजरीवाल ने सर्वोच्च न्यायायलय से हासिल अंतरिम जमानत से बाहर आने पर घोषणा की थी कि भाजपा का केन्द्रीय नेतृत्व 300 प्लस लोकसभा सीट पाने की स्थिति में उत्तर प्रदेश के मौजूदा मुख्यमंत्री आदित्यनाथ को भी मुख्यमंत्री की कुर्सी से वैसे ही हटाने जा रहा है, जैसा वह राजस्थान, छत्तीसगढ़ और मध्यप्रदेश विधानसभा चुनावों में जीत के बाद कर चुका है। लेकिन चुनाव परिणाम के बाद यह स्थिति ही नहीं आ सकी। 

लेकिन ऐसा लगता है कि योगी आदित्यनाथ के खिलाफ मुहिम कम नहीं हुई है। कल की बैठक से पहले भाजपा और सहयोगी दलों की तरफ से भी कुछ ऐसे बयान आये हैं, जो बताते हैं कि कहीं न कहीं यह काम केन्द्रीय नेतृत्व के इशारे पर खेला जा रहा है। उदाहरण के लिए भाजपा के ही दो बार के विधायक रमेश दुबे ने हाल ही में एक इन्टरव्यू के दौरान कहा है कि यदि स्थिति यदि जस की तस रहती है तो 2027 में भाजपा की वापसी संभव नहीं है। उन्होंने केन्द्रीय नेतृत्व से राज्य की बागडोर अपने हाथ में लेने की गुजारिश की थी। हालांकि अब वे अपने इस बयान से पलट चुके हैं, लेकिन साफ़ दिखता है कि योगी आदित्यनाथ के खिलाफ अब एक बार फिर से बगावती सुर उठने लगे हैं। 

इसी प्रकार अपना दल की नेता और केंद्र में मंत्री अनुप्रिया पटेल भी लोकसभा चुनाव के बाद से एक-एक कर अपनी नाराजगी को सार्वजनिक कर रही हैं। पिछले दिनों अनुप्रिया पटेल की और से उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री आदित्यनाथ के नाम एक पत्र जारी किया गया था, जिसमें उन्होंने आरोप लगाया था कि यूपी में योगी सरकार पिछड़ों और अनुसूचित जातियों को नौकरी देने में भेदभाव कर रही है। उनके नाम के आगे अयोग्य लिखकर उनसे उनके हक छीने जा रहे हैं। 

उत्तर प्रदेश के पूर्व मंत्री और 5 बार के विधायक रहे वरिष्ठ नेता राजेन्द्र सिंह उर्फ़ मोती सिंह का बयान भी सोशल मीडिया में काफी वायरल हो रहा है, जिसमें वे कहते सुने जा सकते हैं कि, “मेरे 42 वर्ष के राजनीतिक जीवन में तहसील और थाना का ऐसा भ्रष्टाचार न हम सोच सकते थे, न देख सकते थे, यह अकल्पनीय है। पुलिस आज लुटेरे की तरह लूट रही है। बिना अपराध के अपराधी बनाया जा रहा है।”

 ये सारी चीजें बता रही हैं कि योगी आदित्यनाथ की घेरेबंदी की जा रही है, लेकिन इसके लिए केन्द्रीय नेतृत्व स्वयं आगे आने के बजाय अब पार्टी के भीतर से इसे हवा देने की कोशिश में है। भाजपा का हिंदुत्व समर्थक खेमा इस सबसे बेहद खफा है, क्योंकि वह योगी आदित्यनाथ को कहीं से भी पीएम नरेंद्र मोदी से कमतर नहीं आंकता। ऐसे तमाम लोग हैं जो मानते हैं कि भाजपा का नेतृत्व वोट बैंक की खातिर कई अवसरों पर हिंदुत्व के अपने एजेंडे से समझौता करने से पीछे नहीं हटता, जबकि योगी आदित्यनाथ में वे ऐसा कोई दोष नहीं पाते हैं। 

जहां तक हिंदुत्व की ब्रांडिंग का प्रश्न है, योगी आदित्यनाथ के समर्थक उत्तर प्रदेश या अपने गृह प्रदेश उत्तराखंड तक ही सीमित नहीं है, बल्कि राजस्थान, मध्य प्रदेश, गुजरात सहित दक्षिण में कर्नाटक तक में हिंदुत्ववादी शक्तियों के बीच में उनकी लोकप्रियता बरकरार है। शायद यही वह एक वजह है, जिसके चलते अभी तक उन्हें हटाया नहीं जा सका है।

इसका एक प्रमाण अजीत भारती नामक धुर दक्षिणपंथी सोशल मीडिया इन्फ़्लुयेंशर की X पर पोस्ट से समझा जा सकता है, जिसे हाल ही में जब कर्नाटक पुलिस पूछताछ के लिए उसके नोएडा के आवास पर पहुंची थी, तो उल्टा कर्नाटक पुलिस को ही उत्तर प्रदेश पुलिस ने हिरासत में ले लिया था।

अजीत भारती ने अपनी पोस्ट में लिखा है, “यूपी से खबर आ रही है कि योगी के विरोध में विधायकों को उकसाया जा रहा है। यह कार्य उत्तर प्रदेश के किसी पूर्व/वर्तमान उपमुख्यमंत्री द्वारा ‘ऊपर’ से आ रहे निर्देशों  के आधार पर हो रहा है। किसी तरह से चुनाव में हुई ‘हार’ का पूरा भार योगी आदित्यनाथ पर डालने के उपक्रम चल रहे हैं। ‘ऊपर’ के लोग राष्ट्रीय और क्षेत्रीय मीडिया का भी पूर्ण रूप से ‘सदुपयोग’ कर रहे हैं।

आज के संदर्भ में देखा जाए तो भले ही पार्टी में नरेंद्र मोदी के उत्तराधिकार पर संदेह हो, पर जनता ने वह पद 2019 से ही योगी को दे रखा है। आज भी, राष्ट्रीय परिदृश्य में योगी की छवि को कोई क्षति नहीं पहुंची है। उत्तर प्रदेश की राजनीति और पार्टी की आंतरिक राजनीति चाहे जो भी हो, भाजपा के अगले नेता के रूप में जो स्वीकार्यता योगी की है, वह अभी किसी अन्य नेता की नहीं है। हालांकि, हर बड़े नेता का लक्ष्य प्रधानमंत्री पद होता है, पर प्रारब्ध ही अंतिम चुनाव करता है। 

यदि चुनाव में 71 और 63 सीटों की जीत का श्रेय कोई लेता है, तो 33 का श्रेय भी वहीं जाना चाहिए। प्रश्न यह होना चाहिए कि टिकट किसने बांटे थे? दागी लोगों को पार्टी में लाकर, छह महीने में टिकट क्यों दिया गया? हर नेता के उत्थान की राह में षड्यंत्र अपने ही लोग करते हैं। जो भी विधायकों को उकसा रहे हैं, वे यह भूल जायें  कि योगी के चेहरे के बिना भाजपा 2027 में वापसी कर लेगी। योगी को यूपी से हटाने का असर आपको बिहार से लेकर कर्नाटक तक दिखेगा। अपने भविष्य की अंत्येष्टि के लिए लकड़ियां इकट्ठा करना बंद कीजिए (पूर्व/वर्तमान) उपमुख्यमंत्री जी!”

अजीत भारती वह शख्स है जिसे सरकारी सुरक्षा मुहैया कराई गई है। उसके इस पोस्ट से साफ़-साफ़ नजर आता है कि कैसे योगी आदित्यनाथ पर यूपी की हार का ठीकरा फोड़ने के लिए केंद्र की ओर से उपमुख्यमंत्री को आगे किया जा रहा है। कई लोग मानते हैं कि भाजपा के ओबीसी और अनुसूचित जाति के मतदाताओं को अगर फिर से पार्टी के फोल्ड में लाना है तो यूपी में नेतृत्व परिवर्तन अवश्यंभावी है। लेकिन इतने बड़े राज्य को संभालने के लिए केशव प्रसाद मौर्य कितने योग्य होंगे, इस बारे में शायद ही पार्टी में एकराय हो। केशव प्रसाद मौर्य स्वंय अपनी विधान सभा और लोकसभा सीट को बचाने में नाकामयाब रहे हैं। उनके बारे में यही धारणा आमतौर पर प्रचलित है कि वे केंद्र की कृपा पर अपनी राजनीति चला रहे हैं। 

केन्द्रीय नेतृत्व दुविधा में है कि योगी आदित्यनाथ को हटाने पर हिंदुत्ववादी शक्तियों, राजपूतों सहित विभिन्न राज्यों में क्या असर पड़ेगा, और साथ ही यदि अन्य राज्यों की तरह किसी कृपापात्र के हाथ में राज्य की सत्ता सौंप दी जाती है, तो पहले से बेहद शसक्त विपक्षी दल और राज्य की आम अवाम इस मूव को कैसे लेगी? आम लोगों में तो अब यहां तक चर्चा हो रही है कि यूपी में जो थोड़ी-बहुत सीटें आई भी हैं, वे योगी आदित्यनाथ की वजह से आई हैं। इसके लिए वे योगी के गृह जनपद गोरखपुर और आस पास की लोकसभा सीटों के साथ बनारस और आसपास की सीटों या अयोध्या के इलाके की तुलना करने की बात कहते हैं।

फिर सबसे बड़ा सवाल तो यह है कि यह सारा चुनाव ही नरेंद्र मोदी के नाम पर लड़ा गया था। ऐसा कहा जाता है कि यूपी में लोकसभा सीटों पर उम्मीदवार तय करने का काम भी मोदी-शाह के साथ जेपी नड्डा ने ही किया, और जब यूपी के मुख्यमंत्री ने कुछ उम्मीदवारों पर आपत्ति की तो उसे नजरअंदाज कर दिया गया। कायदे से लोकसभा में हार की जिम्मेदारी तो केंद्रीय नेतृत्व की होती है, और राज्यों में हार का ठीकरा राज्य स्तर के नेताओं पर फोड़ा जाता है। लेकिन भाजपा में अपवाद है, क्योंकि यहां पर जीत के लिए सिर्फ एक चेहरा जिम्मेदार है, लेकिन हार के लिये यह जिम्मेदारी किसी और के गले में टांग दी जाती है।

हाल ही में 7 राज्यों की 13 विधानसभा सीटों के चुनावी नतीजे भी इसी बात की तस्दीक कर रहे हैं कि देश के मतदाताओं के मन में अब नरेंद्र मोदी और भाजपा से कोई उम्मीद नहीं बची है। अगले कुछ सप्ताह के भीतर उत्तर प्रदेश में भी 10 विधानसभा सीटों के लिए उप-चुनाव होने हैं ऐसा माना जा रहा है कि योगी आदित्यनाथ के लिए इनमें से अधिकांश सीटों पर जीत दर्ज करने की शर्त रखकर केन्द्रीय नेतृत्व दांव खेल सकता है। इसके अलावा, 2024 के अंत तक महाराष्ट्र, हरियाणा और झारखंड जैसे राज्यों में विधानसभा के चुनाव होने हैं, जहां पहले ही इंडिया गठबंधन लोकसभा चुनाव में बड़ी बढ़त हासिल कर चुकी है, और झारखंड में भी हेमंत सोरेन के जेल से बाहर आने के बाद हौसले बुलंद हैं।

ऐसे में सवाल उठता है कि भाजपा नेतृत्व के लिए यूपी में सीएम पद पर बदलाव की मुहिम क्या संभव भी है? क्योंकि पहले से ही सशक्त विपक्ष और अल्पमत सरकार आज सबसे अधिक बढती महंगाई और बेरोजगारी की काट ढूंढ पाने में विफल रही है, जिसे विपक्ष और आम लोग अब कहीं ज्यादा मुखरता से उठा रहे हैं। ऐसे में योगी आदित्यनाथ जैसे धुर दक्षिणपंथ की राजनीति के अगुआ को दरकिनार कर भाजपा के हाथ में ‘न माया मिली न राम’ वाली स्थिति हो सकती है।  

(रविंद्र पटवाल जनचौक संपादकीय टीम के सदस्य हैं)

+ There are no comments

Add yours

You May Also Like

More From Author