जलवायु परिवर्तन: बढ़ती गर्मी को थामने की जरूरत

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जलवायु परिवर्तन के बारे में ताजा अध्ययनों और रिपोर्टों ने एक बार फिर चेतावनी दी है कि स्थिति बिगड़ती जा रही है और कारगर कार्रवाई के अवसर तेजी से घट रहे हैं। पिछले सप्ताह विश्व मौसम संगठन ने कहा कि वैश्विक तापमान जल्दी ही 1.5 डिग्री सेल्सियस की सीमा के पार जाने वाला है, कम से कम अस्थाई रूप से। उसने यह भी कहा है कि आगामी पांच साल में कम से कम एक साल अब तक का सबसे गर्म साल होने वाला है।

कुछ अध्ययन बताते हैं कि यह साल 2023 सबसे गर्म साल होने की राह पर है। इस साल गर्मी वर्ष 2016 से अधिक होने की संभावना है। नए शोध दावा करते हैं कि भारत और कुछ पड़ोसी देशों में पिछले महीने लू की लहरें निश्चित रूप से जलवायु परिवर्तन के कारण चली। लू की लहरों के चलने की संभावना जलवायु परिवर्तन के कारण तीस गुना बढ़ गई है।

अध्ययनों में कहा गया है कि जलवायु परिवर्तन के लिहाज से निरोधात्मक उपायों को तत्काल बढ़ाने की जरूरत है। जबकि पिछले कुछ वर्षों में अपेक्षित कार्रवाई नहीं हुई है। इस बारे में ताजा विमर्श जी-7 देशों के सम्मेलन में हुआ। पहले दुनिया के बड़े और अमीर देशों के इस समूह के पर्यावरण मंत्रियों का सम्मेलन हुआ। फिर नेताओं की बैठक हुई। बैठक में जलवायु परिवर्तन की चर्चा हुई और इस लिहाज से होने वाली कार्रवाईयों के नाकाफी होने पर चिंता जताई गई। सम्मेलन के बाद बयान जारी कर वैश्विक तापमान में बढ़ोतरी को 1.5 डिग्री सेल्सियस से कम रखने का लिए कतिपय कार्रवाईयों का सुझाव दिया गया। सम्मेलन में वैश्विक स्तर पर उत्सर्जन को 2025 तक महत्तम बनाने की चर्चा हुई अर्थात ऐसे उपाय करना जिससे 2025 के बाद उत्सर्जन में बढ़ोतरी नहीं हो। उस वर्ष तक उत्सर्जन अधिकतम हो जाए।

जी-7 देशों अर्थात अमेरीका, इंग्लैंड, जर्मनी, इटली, जापान, फ्रांस और कनाडा में उत्सर्जन अभी महत्तम स्तर पर हैं। उसमें 2025 के बाद बढ़ोतरी की संभावना नहीं है। उन्होंने अन्य बड़ी अर्थव्यवस्था वाले देशों को 2025 के बाद उत्सर्जन में बढ़ोतरी नहीं होने के उपाय करने को कहा है। बड़ी अर्थव्यवस्था वाले देशों में आमतौर पर भारत, चीन, ब्राजील, दक्षिण अफ्रीका और रुस को रखा जाता है। सभी बड़ी मात्रा में उत्सर्जन करते हैं। चीन सबसे आगे है। पेरिस समझौता के अंतर्गत 2025 को महत्तम उत्सर्जन वाला वर्ष नहीं कहा गया है। यह बाद की व्यवस्था है। हालांकि इसके बारे में कोई वैश्विक समझौता नहीं हुआ है।

उल्लेखनीय है कि भारत ने पहले ही घोषणा कर दी है कि उसका उत्सर्जन आगामी दशकों में बढ़ने वाला है। चीन ने भी कहा है कि उसका महत्तम स्तर इस दशक के आखिर तक प्राप्त होगा। अधिकतर विकासशील देशों का उत्सर्जन अभी बढ़ रहा है। अमीर व विकसित देशों में यह स्थिर है या कमी आ रही है। हालांकि यह कमी अपेक्षित मात्रा में नहीं हो रही। संयुक्त राष्ट्र की एक संस्था का अनुमान है 2030 में वैश्विक उत्सर्जन 2010 के स्तर से करीब 11 प्रतिशत अधिक रहेगा।

कुल मिलाकर वर्ष 2025 के महत्तम उत्सर्जन होने और उसके बाद उत्सर्जन में बढ़ोतरी नहीं होने का मामला अविश्वसनीय लगता है। अभी तक अधिकतम उत्सर्जन वर्ष 2019 में हुआ था, उसके बाद उत्सर्जन में भारी कमी हुई। ऐसा कोरोना-जनिक लॉकडाउन की वजह से हुआ था। उत्सर्जन 2021 में फिर बढ़ गया। लेकिन बाद के वर्षों में उत्सर्जन 2019 के स्तर से तनिक कम ही रहा।

अब उत्सर्जन के नेट-जीरों लक्ष्यों की चर्चा करें तो जी-7 ने 2050 तक नेट-जीरो लक्ष्य हासिल करने के वचन को दुहराया और सभी बड़ी अर्थव्यवस्थाओं को ऐसा करने के लिए कहा। इसके लिए विस्तृत कार्ययोजना तैयार करने की जरूरत बताई। वैश्विक तापमान में पूर्व-औद्योगिक स्थिति से 1.5 डिग्री सेल्सियस की बढ़ोतरी को उतने पर ही रोक देने के लिए 2050 तक नेट-जीरो प्राप्त करना जरूरी है।

चीन ने पहले ही घोषणा कर दी है कि वह 2060 में नेट-जीरो लक्ष्य प्राप्त करेगा। वह अभी विश्व का सबसे बड़ा उत्सर्जक है। भारत ने नेट-जीरो के लिए 2070 का लक्ष्य निर्धारित किया है। कुछ अन्य देशों जैसे रुस व सउदी अरब ने 2060 को लक्ष्य बनाया है। अभी तक केवल जर्मनी ही ऐसा देश है जिसने नेट-जीरो लक्ष्यों को 2045 तक हासिल कर लेने की घोषणा की है।

हालांकि प्रमुख विकासशील देशों का नेट-जीरो लक्ष्य 2050 के बाद होने के बावजूद तकनीकों का तेजी से विकास होने और स्वच्छ ईंधन को अपनाने में तेजी आने से आगामी दशकों में स्थिति बदलने की संभावना जताई जा सकती है। हालांकि जीवाश्म इंधनों के इस्तेमाल पर पूरी तरह रोक लगाने की कोई समय सीमा तय नहीं की गई है। केवल उसका इस्तेमाल घटाते जाने की बात है। जी-7 ने दावा किया है कि जीवाश्म इंधन ऊर्जा प्रकल्पों में निवेश करना बंद कर दिया गया है।

(अमरनाथ झा वरिष्ठ पत्रकार और पानी-पर्यावरण के विशेषज्ञ हैं।)

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