अभी कुछ दिनों पहले जयपुर जाना हुआ। वहां मेरे मित्र प्रोफेसर राम अवतार गुप्ता के घर भी गया था। वे मेरे लेखन से लगभग चार दशकों से परिचित हैं, लेकिन उनसे वार्तालाप और मुलाकात का सिलसिला महज दो साल पुराना है।
सेवानिवृत्ति के बाद उन्होंने निजी तौर पर यह बीड़ा उठाया है कि स्कूली बच्चों के बीच विचारों के आदान-प्रदान का काम किया जाये और उन्हें आधुनिक लोकतांत्रिक और संविधान सम्मत विचारों से परिचित कराया जाये।
वे स्वयं तो यह काम कर ही रहे हैं। जयपुर के अपने कुछ साथियों को भी इस अभियान से जोड़ रखा है और कभी-कभी जयपुर से बाहर से भी कुछ साथियों को बुला लेते हैं। मसलन कुछ अर्सा पहले उन्होंने गौहर रज़ा को बुलाया था और उनका व्याख्यान कराया था।
उनकी पद्धति यह है कि पहले किसी विषय विशेष पर आमंत्रित विद्वान अपना व्याख्यान दें और उसके बाद बच्चे अपनी जिज्ञासा, अपने प्रश्न पूछें। ऐसे ही एक कार्यक्रम में मैंने ऑन लाइन एक स्कूल के छात्रों से लगभग दो घंटे वार्तालाप किया था।
बच्चों को पहले ‘जागृति’ फिल्म दिखायी गयी थी। बाद में फिल्म के बारे में मैंने संक्षेप में अपनी बात कही थी और बाद में बच्चों ने अपने सवाल पूछे थे। यह बच्चों से सवाल का काफी अच्छा तरीका था और कई बच्चों ने ऐसे सवाल भी पूछे जिनके पूछे जाने की मुझे उम्मीद नहीं थी।
उन सवालों की विशेषता यह थी कि वे उनके अपने सवाल थे जिसमें सवाल की मौलिकता और अनगढ़पन दोनों झलक रहे थे। प्रो राम अवतार गुप्ता का यह मानना है कि स्कूली बच्चों के बीच काम करना बहुत जरूरी है। खासतौर पर कक्षा 5 से लेकर 9 तक के बच्चों के बीच।
इसके बाद बच्चे अपने कैरियर के प्रति सजग हो जाते हैं और उनसे संवाद करना मुश्किल हाेता है। उन बच्चों के माता-पिता और अभिभावकों से भी बातचीत इसलिए मुश्किल होताी है क्योंकि वे अपनी धारणाओं के प्रति पूर्वाग्रही होते हैं। लेकिन बच्चों के बीच काम करना महत्त्वपूर्ण है।
हालांकि सरकारी और पब्लिक स्कूल इस तरह के कार्यक्रम करने के लिए आसानी से तैयार नहीं होते। अल्पसंख्यक समुदाय के स्कूल फिर भी तैयार हो जाते हैं।
अभी जिस दिन मुझे जयपुर में रहना था, वह रविवार का दिन था। उस दिन किसी स्कूल में आयोजन नहीं हो सकता था। इसलिए उन्होंने तय किया कि वे अपने घर पर ही बच्चों से बातचीत का आयोजन करेंगे। इसके लिए उन्होंने एक दिन पहले ओटीटी पर उपलब्ध ‘गुठली लड्डू’ फिल्म दिखायी थी जो प्राइम वीडियो पर उपलब्ध है।
यह दलित बच्चों की शिक्षा के बारे में है। एक दलित बच्चा जिसे सब गुठली कहते हैं, वह स्कूल में पढ़ना चाहता है लेकिन गांव में सरकारी स्कूल बंद हो चुका है और प्राइवेट स्कूल किसी चौबेजी का है जो अपनी स्कूल में दलित बच्चे को प्रवेश नहीं देते। उस स्कूल का प्रिंसिपल भी ब्राह्मण है जिसे प्रिंसिपल बनाया ही इसलिए गया है कि वह ब्राह्मण है।
गांव के सवर्णों में दलितों के प्रति गहरी नफ़रत और घृणा व्याप्त है और उसका कारण केवल जाति है। इसे आज भी लुके-छिपे रूप में और कई बार खुलकर शहरों में देखा जा सकता है। छुआछूत, पाखाना साफ करवाना, गटर साफ करवाना और सवर्णों की किसी चीज को छूने पर उनकी पिटाई करना उस गांव का आम चलन है।
दलितों के साथ छुआछूत बरतना कानून के अनुसार अपराध है और उनके साथ अमानवीय व्यवहार भी। भारतीय संविधान में जाति, धर्म, लिंग आदि के आधार पर किसी तरह का भेदभाव नहीं बरता जा सकता। लेकिन सच्चाई यही है कि इस जातगित भेदभाव को हर रोज और हर कहीं देखा जा सकता है।
फिल्म इस क्रूर और अमानवीय सच्चाई को ही काफी प्रभावशाली ढंग से दिखाती है। दलित के स्पर्श से बचने की कोशिश करना, उसके द्वारा सवर्ण की किसी चीज को छूने पर पीट देना, जिस पाखाने और गटर के पास से गुजरने से बचने की कोशिश की जाती है, उसे साफ करने के लिए गटर में उतरना दलित के रोजमर्रा के जीवन का भयावह सत्य है और सरकारी आंकड़े ही बताते हैं कि रोजाना कितने ही सफाई कर्मचारी गटर साफ करते हुए उसमें डूबकर मर जाते हैं।
फिल्म में भी गटर साफ करते हुए गुठली का पड़ोसी और दोस्त लड्डू की गटर में गिरने से मौत भी हो जाती है। स्कूल में भर्ती होने के लिए गुठली लगातार अकेले संघर्ष करता है। गुठली का अकेले का संघर्ष धीरे-धीरे पूरे समुदाय का संघर्ष बन जाता है।
यहां फिल्म की विस्तार से चर्चा करने की आवश्यकता नहीं है, लेकिन दलित समुदाय के साथ जो भेदभाव, अत्याचार, शोषण और उत्पीड़न होता आया है उसे काफी यथार्थ ढंग से और संवेदनशील ढंग से दिखाया गया है। शिक्षा, संगठन और संघर्ष का जो मूलमंत्र बाबा साहब अंबेडकर ने दिया था, वह इस फिल्म के मूल में भी है।
जिन 8-9 बच्चों ने फिल्म देखी थी, वे 5-6 साल से 12-13 साल की उम्र के थे। सभी शहरी और शिक्षित मध्यवर्ग के थे और सवर्ण परिवारों से थे। चार लड़कियां थीं और पांच लड़के थे। इस वार्तालाप के कई सकारात्मक पक्ष थे, तो कई ऐसी बातें भी सामने आयीं जिससे यह पता चल रहा था कि किस तरह का जहर बच्चों के दिमागों में भरा जा रहा है।
पहला सकारात्मक पक्ष तो यह था कि जिन बच्चों ने पहले दिन फिल्म देखी थी, वे सभी दूसरे दिन की बातचीत में शामिल होने के लिए स्वेच्छा से आये। बच्चों से मैंने पूछा क्या उन्हें फिल्म अच्छी लगी तो सभी बच्चों ने कहा कि हां, उन्हें अच्छी लगी। दूसरा सवाल पूछा, क्या फिल्म देखते हुए उन्हें यह तो नहीं लगा कि कहां फंस गये।
तो उन्होंने कहा कि नहीं, हमें फिल्म बड़ी रोचक लगी। एक सवाल यह पूछा कि फिल्म के अंत में जो रेस होती है, क्या आप चाहते थे कि गुठली उसमें जीते, तो उन्होंने कहा कि हां हम चाहते थे कि गुठली जीते। गुप्ताजी ने बताया कि बच्चों ने लगभग पौने दो घंटे की फिल्म बड़े ध्यान से और मन लगाकर देखी।
मैंने बच्चों से पूछा कि इस फिल्म से क्या शिक्षा मिलती है, तो उन्होंने अपने ढंग से कहा कि जाति के आधार पर भेदभाव नहीं किया जाना चाहिए और पढ़ने का अधिकार सबकाे है। उनसे पूछा कि क्या उनकी स्कूलों में इस तरह का भेदभाव होता है, तो उन्होंने कहा कि नहीं।
स्पष्ट है कि फिल्म में जो दिखाया गया था, वह उनके अनुभव का हिस्सा नहीं था। इसलिए वे उसे फिल्म की तरह ही देख रहे थे। लेकिन जब उनसे पूछा कि क्या उन्होंने इस तरह की कोई फिल्म पहले देखी है तो उन्होंने कहा कि नहीं।
बच्चों से बातचीत केवल फिल्म तक सीमित नहीं थी और भी कई बातें प्रसंगवश आती गयी। मसलन, एक बच्चे ने कहा कि उन्हें बताया गया कि मुस्लिम बच्चों से दोस्ती नहीं करनी चाहिए क्योंकि वे नॉनवेज खाते हैं। वे हिंदू लड़कियों का रेप करते हैं और पैरों से आटा गूंथते हैं।
साफ है कि उनके घर और/या रूकून में ही ऐसी बातें सुन रहे हैं और सीख रहे हैं। उनकी बातचीत से साफ था कि न उनके घर के आसपास और न ही स्कूलों में मुसलमान बच्चों से उनका कोई संपर्क हैं। क्योंकि वे ऐसी मध्यवर्गीय कॉलोनियों में रहते हैं। जहां अपवाद रूप में भी मुसलमान नहीं रहते।
जो शहरों में पिछले चार-पांच दशकों में मध्यवर्गीय बस्तियां बसी हैं वे उन पुरानी शहरी बस्तियों से अलग हैं जिनमें मुसलमान भी आसपास रहते थे।
और बहुत संभव है कि उन स्कूलों में जहां ये बच्चे पढ़ते हैं वहां मुस्लिम बच्चे भी शायद नहीं पढ़ते या बहुत कम पढ़ते हैं। इससे बहुत भिन्न स्थिति दलित समुदाय की भी नहीं है। इन मध्यवर्गीय कालोनियों में केवल सवर्ण परिवार रहते हैं और इन स्कूलों में दलितों के गरीब बच्चे तो पढ़ते ही नहीं अगर पढ़ते भी हैं तो मध्यवर्गीय बच्चे जिनकी पहचान काफी हद तक छुपी रहती है।
जब वे दलितों और मुसलमानों के संपर्क में आते ही नहीं या उनकी मित्रमंडली में वे होंगे ही नहीं तो इन समुदायों के बारे में उन्हें कुछ भी कह दिया जाये, वे उसे सच ही मान लेंगे। एक बच्चे ने यह भी कहा कि महात्मा गांधी के कारण ही पूरे देश को अंग्रेजों के सामने झुकना पड़ा।
स्पष्ट है कि आज़ादी के आंदोलन के बारे में भी उन्हें झूठी और भ्रामक सूचनाओं से लादा जा रहा है। बच्चों की बातचीत से स्पष्ट था कि इस प्रचार के पीछे आरएसएस-भाजपा की प्रचार मशीनरी काम कर रही है और सांप्रदायिक प्रचार के केंद्र में मुसलमानों के प्रति हिंदुओं में घृणा फैलाना है।
जिसके लिए उनके बारे में कई तरह की झूठी और नफरत भरी बातें फैलायी जा रही हैं। जब द केरल स्टोरी फिल्म रिलीज हुई थी, तब कई स्कूलों में अध्यापकों द्वारा कक्षाओं में यह कहा गया कि बच्चों विशेष रूप से लड़कियों को यह फिल्म जरूर देखनी चाहिए ताकि वे अपने आसपास फैले इस खतरे से अपने को बचा सकें।
बच्चों के दिमाग में यह बैठाना कि मुसलमान मांसाहारी होता है और हिंदू शाकाहारी, यह तथ्यहीन और पूरी तरह झूठ है। लेकिन ऐसी बात फैलाना तभी संभव है जब वे बच्चे ऐसे हिंदू घरों से हों जो सिर्फ शाकाहारी हों। यही नहीं उनके संपर्क में आने वाले परिवार भी शाकाहारी ही हों।
जब मैंने उनको बताया कि भारत की आबादी में 70 प्रतिशत से अधिक लोग मांसाहारी हैं और मुस्लिम आबादी केवल 15 प्रतिशत हैं तो जाहिर है कि हिंदुओं की काफी बड़ी आबादी भी मांसाहारी है।
जब इस विषय पर बातचीत आगे बढ़ी तो एक बच्चे ने अपना अनुभव बताया कि (जो उम्र में बड़ा था, संभवत: 12-13 साल का) मेरे कुछ हिंदू दोस्त मांसाहारी हैं और उसने कहा कि मेरा एक मुस्लिम दोस्त तो वेजीटेरियन है।
इस पर जब उन्हें यह कहा गया कि इसका मतलब यह है कि आप वेजीटेरियन है या नॉनवेजीटेरियन है यह आपकी रुचि पर निर्भर है। मैंने अपना उदाहरण देते हुए कहा कि मैं ऐसे जैन परिवार में पैदा हुआ हूं, जहां मांसाहार तो दूर की बात है, प्याज और लहसुन खाना भी पाप समझा जाता है, लेकिन मैं तो लगभग पचास साल से मांसाहारी हूं।
मेरी बात पर एक छोटी बच्ची जो जैन परिवार से थी, उसने कहा कि मेरी एक सहेली जाे जैन है, उसने बताया कि उसके घर में तो आलू भी नहीं बनते। लेकिन जैन तो हम भी हैं, लेकिन हमारे घर में तो आलू बनते हैं और हम खाते भी हैं। मैंने उसे बताया कि बहुत से जैनी यह मानते हैं कि जैन धर्म के अनुसार ज़मीकंद नहीं खाना चाहिए।
जमीकंद यानी जो ज़मीन के अंदर पैदा होते हैं। जैसे आलू, गाजर, मूली आदि। लेकिन जो ज़मीन के अंदर पैदा नहीं होती, उनकी जड़ें भी ज़मीन के अंदर होती है।
बच्चों के साथ बातचीत का सकारात्मक पहलू यह भी था कि बच्चों के जो सवाल थे, उनमें से कई सवालों के उत्तर स्वयं उन्होंने देने की कोशिश की। लेकिन इस संवाद की सबसे बड़ी सीमा यह थी कि यह एक ही वर्ग और मोटे तौर पर एक ही समुदाय के बच्चों के बीच का संवाद था।
इससे पहले जागृति फिल्म पर बातचीत जो अज़ीम प्रेमजी फाउंडेशन द्वारा संचालित स्कूल के बच्चों के साथ आयोजित हुई थी, उसमें सवर्ण थे तो दलित भी थे, हिंदू थे तो मुसलमान भी थे और लड़के और लड़कियां भी थीं। लेकिन बच्चों की संख्या बहुत ज्यादा थी, इसलिए बातचीत में वैसा खुलापन नहीं था जो प्रो गुप्ता के घर पर बातचीत में था।
अज़ीम प्रेमजी फाउंडेशन के स्कूल के बच्चों ने सवाल तो पूछे जिसके उत्तर मैंने देने की कोशिश की, लेकिन बच्चाें का परस्पर कोई संवाद नहीं हुआ। दूसरी सीमा यह थी कि बातचीत पूरी तरह से फिल्म पर ही केंद्रित रही जबकि घर पर हुई बातचीत में फिल्म पर बातचीत अन्य कई महत्त्वपूर्ण पक्षों को भी अपने में समेटती रही।
तीसरी सीमा यह थी कि स्कूल की बातचीत में ऐसा प्रतीत हुआ कि प्रश्नों को तैयार करने में अध्यापकों की भी कुछ हद तक भूमिका रही है, लेकिन घर पर हुई बातचीत में बच्चों ने जो भी कहा वह अपने मन से कहा। हां, उस कहे पर उनके घर-परिवार और स्कूल के अनुभवों का गहरा प्रभाव था।
बच्चों द्वारा कही गयी बातों से स्पष्ट है कि सवर्ण परिवारों पर आजकल के माहौल का बहुत नकारात्मक असर पड़ रहा है और बच्चे उस नकारात्मकता की गिरफ्त में फंसते जा रहे हैं। संवाद की ऐसी अपवादस्वरूप की गई कोशिश बहुत छोटी और अपर्याप्त है जबकि जरूरत इन कोशिशों को सभी समुदायों को समेटते हुए व्यापक और आंदोलनात्मक विस्तार देने की है।
(जवरीमल्ल पारख फिल्म समीक्षक हैं।)
+ There are no comments
Add yours