‘नबान्न’ और ‘जबानबंदी’ भारतीय जन नाट्य संघ के आरंभिक दिनों के नाटक हैं, जिनसे इप्टा को पूरे देश में एक पहचान मिली। संस्था का संदेश और शोहरत देशवासियों तक पहुंची। इप्टा के संस्थापक सदस्य बिजोन भट्टाचार्य ने इन क्रांतिकारी नाटकों को लिखा था। आगे चलकर नाटकों का हिंदी में भी अनुवाद हुआ। ‘नबान्न’-नई फसल और ‘जबानबंदी’-अंतिम अभिलाषा के तौर पर हिंदी क्षेत्र में यह नाटक खेले गए, जिन्हें जनता ने ख़ूब पसंद किया। ‘जबानबंदी’ का बाद में गुजराती भाषा में भी अनुवाद हुआ। बिजोन भट्टाचार्य रंगकर्मी, नाटककार और एक अच्छे कलाकार थे। उन्होंने तक़रीबन साढ़े तीन दशक तक रंगमंच और सिनेमा की सेवा की और अपनी एक अलग छाप छोड़ी।
अविभाजित भारत के फरीदपुर जिले में जो कि अब बांग्लादेश में है, 17 जुलाई 1906 को जन्मे बिजोन भट्टाचार्य के सार्वजनिक जीवन का आग़ाज़ पत्रकारिता से हुआ। वह वामपंथी विचारधारा में रचे-पगे एक प्रतिबद्ध पत्रकार थे। इससे पहले वह कोलकाता में ‘यूथ कल्चरल इंस्टीट्यूट’ जिसमें जलिमोहन कौल, निखिल चक्रवर्ती, सुब्रत बनर्जी, सत्येन्द्रनाथ मजूमदार, ज्योतिरिन्द्र मोइत्रा और शंभु मित्रा जैसे नामवर बुद्धिजीवी शामिल थे, से भी जुड़े रहे। पत्रकारिता से एक दिन बिजोन भट्टाचार्य रंगमंच के मैदान में जाएंगे, उन्होंने यह कभी सोचा न था। लेकिन उनकी ज़िंदगी में एक ऐसा मोड़ आया, जब वह पूरी तरह रंगमंच के हो गए और उन्होंने नाट्य लेखन, अभिनय और निर्देशन को ही अपनी जिं़दगी का मक़सद बना लिया।
साल 1943 में बंगाल में भयानक अकाल पड़ा। एक अनुमान के मुताबिक बंगाल के इस अकाल में क़रीब 30 लाख लोग मौत के मुंह में समा गए। अकाल ब्रिटिश हुकूमत की अमानवीय नीतियों का नतीजा था। द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान ब्रिटिश सेना को रसद पहुंचाने, बर्मा पर जापान के क़ब्जे़ के बाद चावल का आयात रुकने, औपनिवेशिक शोषण व कालाबाजारी के चलते यह मानवनिर्मित अकाल पैदा हुआ। जबकि देश में अनाज की कोई कमी नहीं थी। चावल की जमाखोरी और कालाबाज़ारी से यह हालात पैदा हुए। आलम यह था कि बंगाल के सुदूर गांव-कस्बों से लेकर कलकत्ता शहर तक लोग भुखमरी के शिकार होकर, असमय काल-कवलित होने लगे। कलकत्ता शहर में चारों ओर अकाल पीड़ित ही दिखाई दे रहे थे। इतना सब कुछ होने के बाद भी अंग्रेज़ हुकूमत को इसकी कोई परवाह नहीं थी। वह लोगों की मौत से बेपरवाह बनी हुई थी। लोगों की मदद के लिए उसने अपनी ओर से कोई कोशिश नहीं की। ऐसे हालात में पहले ‘बंगाल कल्चरल स्क्वॉड’ और बाद में इप्टा अकाल पीड़ितों की मदद के लिए आगे आया। उन्होंने अपने नाटकों के प्रदर्शन से पूरे देश से चंदा इकट्ठा किया। और अकाल पीड़ितों की मदद की। इप्टा जिन नाटकों को लेकर जनता के बीच पहुंची, वे नाटक ‘नबान्न’ और ‘जबानबंदी’ थे। बिजोन भट्टाचार्य ने इन नाटकों की रचना कैसे की ? इसका क़िस्सा भी बड़ा हृदय विदारक है।
बिजोन भट्टाचार्य उस समय पत्रकारिता कर रहे थे। वे हर रोज़ अपने अख़बार के दफ़्तर जिस रास्ते से जाया करते थे, वहां अकाल पीड़ित भारी तादाद में इकट्ठे रहते थे। भूख से परेशान हज़ारों लोग ‘फेन दाओ…फेन दाओ’ कहते हुए खाना मांगते। इनकी हालत इतनी दयनीय थी कि कमज़ोर दिल का शख़्स इन्हें देखने की हिम्मत भी नहीं कर पाता था। बिजोन, सर झुकाए जल्दी से उस रास्ते को तय कर जाते। लेकिन वह ज़्यादा दिन यह सारा मंजर नहीं देख पाए। उनके ज़मीर ने आवाज़ दी कि वह ऐसे माहौल में क्या कर रहे हैं ? अकाल पीड़ितों की मदद के लिए वह क्यों आगे नहीं आते ? इन सब आंखों देखे हालात को उन्होंने अपने नाटक ‘नबान्न’ और ‘जबानबंदी’ में बड़े ही संवेदनशीलता से दर्ज किया। बिजोन भट्टाचार्य ने इन नाटकों में किसान जीवन के यथार्थ और अकाल पीड़ितों की समस्याओं को इस तरह से पिरोया कि नाटक के हर किरदार जीवंत हो गए। नाटकों की जब रचना हो गई, तो ‘बंगाल कल्चरल स्क्वॉड’ ने इनके मंचन की ज़िम्मेदारी ली। बिजोन भट्टाचार्य और शंभु मित्रा दोनों ने संयुक्त रूप से ‘नबान्न’ का निर्देशन किया, तो शंभु मित्रा, तृप्ति भादुड़ी, रेबा रॉय चौधरी, मणिकुंतला सेन, रेखा जैन और ऋत्विक घटक ने इस नाटक में मुख्य भूमिकाएं निभाईं। तृप्ति भादुड़ी जो बिजोन भट्टाचार्य की चचेरी बहन थीं, उन्होंने तृप्ति को नाटक में भूमिका करने के लिए राज़ी किया। शायर वामिक जौनपुरी का मशहूर-ए-ज़माना गीत ‘भूखा है बंगाल रे साथी, भूखा है बंगाल’ भी ‘नबान्न’ में इस्तेमाल किया गया। नाटक का जब मंचन हुआ, तो जनता पर इसका गहरा असर पड़ा। नाटक को देखकर, उसका दिल दहल गया और वे बड़ी तादाद में अकाल पीड़ितों की मदद के लिए आगे आई।
तत्कालीन औपनिवेशिक हुकूमत नहीं चाहती थी कि अकाल की ख़बर पूरे देश तक पहुंचे। उसने अपनी ओर से पूरी कोशिश की कि यह जानकारी देशवासी नहीं जान पाएं। लेकिन इप्टा ने ‘नबान्न’ के मंचन और प्रदर्शन पहले तो बंगाल में किए, उसके बाद इस नाटक को पूरे देश में ले गए। मक़सद, अकाल पीड़ितों को ज़्यादा से ज़्यादा रकम इकट्ठा करना था। ताकि उनकी मदद की जा सके। बहरहाल, ‘नबान्न’ का प्रदर्शन पूरे देश में एक सांस्कृतिक परिघटना के तौर पर सामने आया। कलाएं किस तरह से समाज को बेहतर बनाने की दिशा में काम कर सकती हैं, यह इप्टा ने बताया। बिजोन भट्टाचार्य ने नाटक की रचना कुछ इस तरह से की थी कि इसके प्रदर्शन के लिए ज़्यादा सामग्री और साज-सज्जा की ज़रूरत नहीं पड़ती थी। सिर्फ़ अच्छे अदाकारों को साथ लेकर नाटक का मंचन किया जा सकता था। दरअसल, ‘नबान्न’ का कंटेंट इतना प्रभावशाली था कि नाटक शुरू होते ही दर्शक इससे जुड़ जाते थे। नाटक ख़त्म होने पर ख़ुद ही अपनी ओर से अकाल पीड़ितों के लिए अधिक से अधिक चंदा देते। नाटक ‘नबान्न’ और ‘जबानबंदी’ की कामयाबी के बाद, बिजोन भट्टाचार्य ने रंगमंच को ही अपना कार्यक्षेत्र बना लिया। एक के बाद एक उन्होंने कई बेहतरीन नाटक लिखे, उनका निर्देशन किया और उनमें अदाकारी भी की।
आज़ादी के बाद बिजोन भट्टाचार्य इप्टा से अलग हो गए। उन्होंने साल 1951 में अपना नाट्य ग्रुप ‘कलकत्ता थिएटर’ बना लिया। ‘एक बंदूक’, ‘कलंका’, ‘मृत चंद्रमा’, ‘अज बसंता’, ‘देबी गर्जन’, ‘गर्भवती जननी’, ‘गोत्रांतर’, ‘कृष्णपक्ष’, ‘चलो सागरे’ आदि उनके कुछ अहम नाटक हैं। चूंकि बिजोन भट्टाचार्य का आग़ाज़ भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी और इप्टा से हुआ था, लिहाज़ा वामपंथी विचारधारा से उन्होंने कभी किनारा नहीं किया। बिजोन भट्टाचार्य के नाटकों में एक विचारधारा हमेशा सतह के नीचे बहती है। उनके नाटकों के नायक ग़रीब किसान, मज़दूर और आदिवासी हुआ करते थे। महिलाओं की भी इन नाटकों में अहम भूमिका होती थी। महान फ़िल्म निर्देशक ऋत्विक घटक भी बिजोन भट्टाचार्य के नाट्य लेखन के प्रशंसक थे। यहां तक कि उनके लेखन पर बिजोन का प्रभाव स्पष्ट रूप से दिखाई देता है। ऋत्विक घटक ने अपने एक इंटरव्यू में ख़ुद ही यह बात स्वीकारी है। ‘‘बिजोन भट्टाचार्य पहले शख़्स थे, जिन्होंने हमें दिखाया कि रंगमंच में लोगों के प्रति प्रतिबद्धता कैसे दर्ज की जाए, प्रदर्शन में सामूहिकता कैसे हासिल की जाए, और मंच पर वास्तविकता के एक टुकड़े की सहज समग्रता कैसे बनाई जाए….यह एक बहुत बड़ी उथल-पुथल थी, जो पूरे बंगाल में एक छोर से दूसरे छोर तक बिजली के झटके की तरह दौड़ गई।’’ ऋत्विक घटक जैसा जीनियस यदि बिजोन भट्टाचार्य के काम की तारीफ़ करे, तो इसके एक अलग मायने हैं। घटक न सिर्फ़ बिजोन के नाट्य लेखन, निर्देशन के दीवाने थे, बल्कि वह उन्हें अदाकार के तौर पर भी पसंद करते थे।
ऋत्विक घटक ने आगे चलकर जब फ़िल्में बनाईं, तो उन्होंने बिजोन भट्टाचार्य को भी इन फ़िल्मों में अदाकारी के लिए चुना। ऋत्विक घटक निर्देशित चर्चित बांग्ला फ़िल्मों ‘मेघे ढाका तारा’, ‘सुवर्णरेखा’, ‘कोमल गांधार’ और ‘जुक्ति तक्को आर गप्पो’ में बिजोन भट्टाचार्य के महत्त्वपूर्ण रोल हैं। ‘नबान्न’ उस वक़्त इतना चर्चित हुआ कि इस नाटक और कृश्न चंदर की कहानी ‘अन्नदाता’ को केन्द्रित कर इप्टा ने एक फ़िल्म ‘धरती के लाल’ बनाई। ख़्वाजा अहमद अब्बास के निर्देशन में बनी इस फ़िल्म में शंभु मित्रा और तृप्ति भादुड़ी के साथ बिजोन भट्टाचार्य ने भी अदाकारी की। ‘धरती के लाल’ के अलावा उन्होंने एक और हिंदी फ़िल्म ‘नीचा नगर’ में भी अभिनय किया। बिजोन भट्टाचार्य ने बतौर अभिनेता कई बांग्ला फ़िल्मों मसलन ‘तथापि’, ‘शैरी चुआटोर’, ‘तृष्णा’, ‘कश्तीपाथर’, ‘परिणीता’, ‘प्रथम बसंत’, ‘दूर्वा’ आदि में काम किया। मृणाल सेन की फ़िल्म ‘पदातिक’ में भी वह नज़र आए। बिजोन भट्टाचार्य ने भले ही कई फ़िल्मों में अदाकारी की, लेकिन उनकी अहम पहचान नाटककार की ही थी। वह नाटय लेखन-निर्देशन में ही ज़्यादा सहज दिखाई देते थे। अगर नाटक मंचन और प्रदर्शन के हालात बेहतर रहते, तो वह कभी फ़िल्मों में नहीं जाते। बिजोन भट्टाचार्य के दोस्त ऋत्विक घटक ने उनके बारे में एक दफ़ा कहा था कि ‘‘बिजोन ने कई काबिले तारीफ़ ड्रामे लिखे हैं, लेकिन उन्हें अच्छे निर्माताओं की ज़रूरत है।’’ ज़ाहिर है कि बिना संसाधनों के नाटक मुमकिन नहीं। नाटक एक टीम वर्क है और बिना टीम एवं संसाधनों के नाटक का प्रदर्शन नामुमकिन है। यही वजह है कि बिजोन भट्टाचार्य ने बाद में फ़िल्मों की ओर रुख कर लिया।
बिजोन भट्टाचार्य ने एक बेहतरीन ज़िंदगी जिया। भारतीय जन नाट्य संघ को अपने नाटकों से एक नई दिशा प्रदान की। इप्टा के लिए उन्होंने जो किया, उसके लिए उनके दिल में हमेशा एक फ़ख्र का एहसास रहा। अपने एक इंटरव्यू में बिजन भट्टाचार्य ने कहा था, ‘‘हम लोगों का काम था ज़मीन तैयार करना। ज़मीन को जोतना, उसमें पानी देकर, उसे भावी पीढ़ियों के लिए तैयार कर देना। हमारा काम बस इतना ही था। हम ख़ुश थे कि हमें जो काम सौंपा गया था, वह हमने ठीक से निभाया और ज़मीन तैयार कर दी।’’ उनकी इस बात से शायद ही कोई नाइत्तिफ़ाकी जताए। गुलाम भारत में इप्टा और उससे जुड़े कलाकारों ने जो काम किया, वह वाक़ई मील का पत्थर है। इप्टा के शुरुआती साथियों ने जो ज़मीन तैयार की, आज उसी ज़मीन पर आज़ादी, लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता की फ़सल लहरा रही है।
(ज़ाहिद ख़ान रंगकर्मी और स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)
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