आजकल देश में डॉक्टर्स को मेडिको लीगल मामलों की गहरी चिंता सताने लगी है। कानूनी तकनीकी दांव-पेंच के सहारे उन्हें आपराधिक मामलों में फंसाने की कोशिश की जा रही है। इस प्रवृत्ति को तत्काल रोकना होगा। यदि डॉक्टर भयभीत होंगे, तो वे इलाज के जोखिम से बचने लगेंगे। इससे समाज को बड़ा नुकसान होगा।
लगभग बीस वर्ष पहले जैकब मैथ्यू बनाम स्टेट ऑफ पंजाब केस में सर्वोच्च अदालत ने मेडिकल नेग्लीजेंस पर ऐतिहासिक फैसला सुनाया था। तब ऐसा लगा था कि अब चिकित्सकों के मन में कोई अनावश्यक भय नहीं रहेगा। वह अपने कार्य का निष्पादन निर्भीक होकर कर पाएंगे। लेकिन आज भी अधिकांश चिकित्सक भयभीत रहते हैं कि मरीज के साथ कोई अनहोनी हुई तो कानूनी समस्याओं का सामना करना पड़ेगा। स्पष्ट है कि सर्वोच्च अदालत का ऐतिहासिक निर्णय एक आम चिकित्सक के मन में विश्वास पैदा नहीं कर सका है। आज भी किसी गंभीर रोगी का इलाज करने से आम चिकित्सक कतराता है।
वर्ष 2005 में डॉ जैकब मैथ्यू एक युवा चिकित्सक थे। उन पर एक वृद्ध एवं कैंसर के मरीज को समय पर ऑक्सीजन न मिलने के कारण हुई मृत्यु का मामला चला था। आईपीसी की धारा 304 के अंतर्गत गैर इरादतन हत्या का मुकदमा दर्ज हुआ था। हाईकोर्ट से राहत न मिलने पर मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा। सुप्रीम कोर्ट में तीन न्यायाधीशों की बेंच ने इस विषय की विस्तृत विवेचना करते हुए एक ऐतिहासिक निर्णय दिया।
दरअसल उन दिनों चिकित्सकों के विरुद्ध इलाज में कथित लापरवाही से संबंधित अपराधिक शिकायतें दर्ज कराने के मामले तेजी से बढ़ रहे थे। सर्वोच्च अदालत ने महसूस किया कि इलाज के दौरान किसी रोगी के साथ कोई अनहोनी होने पर रोगी के परिजन संबंधित चिकित्सकों पर इलाज में लापरवाही का आरोप लगाते थे।पुलिस अधिकारी अनुचित तरीके से चिकित्सक पर आईपीसी की 304, 336, 337 जैसी गंभीर धाराओं में आपराधिक मामला दर्ज कर लेते थे। इनमें से अधिकांश मामले कोर्ट में टिक नहीं पाते थे। चिकित्सकों को आरोपों से मुक्त कर दिया जाता था। किंतु उन्हें एक लंबी एवं डरावनी कानूनी प्रक्रिया से गुजरना होता था। उन्हें मानसिक, आर्थिक एवं सामाजिक प्रताड़ना के साथ ही व्यवसायिक दृष्टि से भी अपूरणीय क्षति होती थी। वर्षों की मेहनत के बाद अर्जित की गई प्रसिद्धि एक गलत आरोप के चलते धराशाही हो जाती थी।
ऐसा भी देखा जाने लगा कि कानूनी पचड़ों के भय से चिकित्सकों ने गंभीर मरीजों के इलाज से मुंह मोड़ लिया। बहुत से गंभीर रोगी समय पर इलाज से वंचित रहने लगे। इस समस्या की गंभीरता को अदालत ने समझा। प्रोफेशनल नेग्लीजेंस एवं ऑक्युपेशनल नेग्लीजेंस के अंतर को विस्तार से समझाया।
अदालत ने माना था कि प्रोफेशनल एवं विशेष रूप से मेडिकल नेग्लीजेंस को एक अलग प्रकार से समझने की आवश्यकता है। मेडिकल नेग्लीजेंस की तुलना किसी अन्य व्यवसाय में हुई नेग्लीजेंस से करना उचित नहीं। एक प्रोफेशनल व्यक्ति जैसे डॉक्टर, एडवोकेट इत्यादि के कार्य का स्वरूप अन्य व्यवसाईयों से बिल्कुल भिन्न होता है। कोई भी प्रोफेशनल अपने व्यवसाय में सौ प्रतिशत सकारात्मक परिणाम की गारंटी नहीं दे सकता। न तो कोई वकील सभी केस जीत सकता है। न ही कोई चिकित्सक अपने हर रोगी को ठीक करने का दावा कर सकता है। इसलिए यदि इलाज का परिणाम सकारात्मक न हो तो इसका अर्थ यह नहीं होगा कि इलाज में लापरवाही हुई। सर्वोच्च अदालत ने स्पष्ट कहा कि देखरेख में सामान्य कमी, इलाज संबंधी निर्णय में कोई त्रुटि होना अथवा मेडिकल एक्सीडेंट का होना मेडिकल नेग्लीजेंस का प्रमाण नहीं है।
कोर्ट ने निर्णय में लिखा कि जब भी कोई अनहोनी होती है तो एक सामान्य मानवीय सोच होती है कि उस अनहोनी के लिए किसी को दोषी ठहरा कर उसे सजा दी जाए। यह सोच ठीक नहीं है। मेडिकल साइंस एक बेहद जटिल विज्ञान है। मानव शरीर एक बेहद जटिल मशीन के समान है तथा इलाज के दौरान कोई अनहोनी होने के कारणों के विश्लेषण के लिए एक वैज्ञानिक सोच एवं समझ की आवश्यकता भी होती है। यदि हर अनहोनी के बाद किसी चिकित्सक को दोषी ठहरा कर उसे सजा दी जाएगी तो यह समाज के लिए भयावह स्थिति होगी। फिर कोई भी चिकित्सक किसी गंभीर मरीज का इलाज नहीं करना चाहेगा।
कोर्ट ने कहा कि मेडिकल नेग्लीजेंस यदि है भी तो ऐसे केसेज का निपटारा यथासंभव सिविल अदालत अथवा कंज्यूमर कोर्ट के माध्यम से हो। पीड़ित को उचित मुआवजा मिले। चिकित्सकों पर आपराधिक मामला तभी दर्ज किया जाए, जब उनके द्वारा किया कृत्य जान बूझ कर किया गया हो अथवा इलाज में घोर लापरवाही हुई हो। यदि घोर लापरवाही नहीं है तो चिकित्सक पर आपराधिक धाराओं में कोई भी कार्यवाही नहीं की जाए। यदि इलाज के दौरान एक चिकित्सक का रोगी के प्रति व्यवहार घोर उपेक्षापूर्ण रहता है, तब ही उस पर आपराधिक केस दर्ज किया जा सकता है। कोर्ट ने यह भी कहा कि मेडिकल नेग्लीजेंस के केसेज की सुनवाई करते समय पूरे विश्व में मान्य बोलम सिद्धांत की पालना भी होनी चाहिए।
इसमें चिकित्सक से यह अपेक्षा नहीं की जाती कि इलाज के दौरान उसका कौशल उच्चतम कोटि होना चाहिए। बोलम सिद्धांत में यह माना जाता है कि इलाज के दौरान यदि चिकित्सक द्वारा दिखाया गया कौशल उस विधा के आम चिकित्सक जैसा यानि औसत दर्जे का भी है, तो वह पर्याप्त है। यदि चिकित्सक के पास पर्याप्त योग्यता थी तथा उसने इलाज के दौरान उस योग्यता का सही प्रयोग किया तो उस चिकित्सक पर मेडिकल नेग्लीजेंस का आरोप नहीं लगाया जा सकता।
जैकब मैथ्यू बनाम स्टेट ऑफ पंजाब के इस ऐतिहासिक निर्णय के बावजूद अक्सर इस आदेश के अनुपालन में कमियां दिखाई देती हैं। मेडिकल नेग्लीजेंस के आरोपों की जब जांच होती है तो अक्सर परिस्थितियों का विश्लेषण औसत मापदंडों की बजाय किसी काल्पनिक आदर्श स्थित एवं सर्वश्रेष्ठ मापदंडों की कसौटी पर किया जाता है। यह उचित नहीं। वे मेडिकल एक्सपर्ट्स जो संभवतः स्वयं अपनी प्रैक्टिस में जिन मेडिकल प्रोटोकॉल्स का पालन नहीं करते, उन प्रोटोकॉल्स के अक्षरशः अनुपालन की अपेक्षा संबंधित चिकित्सक से करते हैं।
जैसे, आदर्श प्रोटोकॉल के अनुसार किसी सामान्य सर्जरी से पहले बहुत सी जांच करनी है। लेकिन भारत में कॉस्ट ऑफ ट्रीटमेंट को कम रखने के प्रयास में अधिकांश अस्पतालों में बहुत सी जांच नहीं की जाती हैं। जब कोई अनहोनी होती है तो आरोप लगाया जाता है कि प्रोटोकॉल के अनुसार सभी जांच नहीं करवाई गई। यह उचित नहीं। यदि इसे नहीं रोका गया तो वह दिन दूर नहीं जब भारत की स्वास्थ्य सेवाएं भी पश्चिमी देशों की तरह बेहद महंगी होंगी। तब अस्पतालों में सर्जरी के लिए महीनों की वेटिंग भी होगी।
माननीय सर्वोच्च अदालत ने कई बार कहा है कि कोई भी चिकित्सक अपने रोगी का बुरा नहीं चाहता। हर चिकित्सक यही चाहता है कि उसका रोगी जल्द ठीक हो। ऐसे में कोई अनचाही अनहोनी होने पर चिकित्सकों के साथ अपराधी जैसा व्यवहार दुर्भाग्यपूर्ण है।
यदि किसी चिकित्सक ने जान बूझ कर किसी रोगी को हानि पहुंचाई है तो निश्चित रूप से उसने अपराध किया है। तब वह सजा का पात्र है। लेकिन यदि किया गया कृत्य न तो जान बूझ कर किया गया था तथा न ही उसमें घोर लापरवाही थी, तो ऐसे मामलों में चिकित्सकों पर अपराधिक कृत्य का आरोप लगाना अदालत की अवमानना है। साथ ही यह समाज के साथ भी अन्याय है क्योंकि इस से समाज का अहित ही होगा।
आज आवश्यकता है कि स्वास्थ्य सेवाओं से जुड़े सभी सभी स्टेक होल्डर्स- चिकित्सक, रोगी एवं उनके परिजन, अस्पताल कर्मी, लीगल एक्सपर्ट्स, मेडिकल एक्सपर्ट्स एवं न्यायिक अधिकारी जैकब मैथ्यू जजमेंट की मूल भावना को समझें तथा उसी के अनुरूप व्यवहार करें ताकि समाज का अहित न हो। एक चिकित्सक के लिए भयमुक्त वातावरण पैदा किया जाए। डॉक्टर किसी भी लांछन एवं कानूनी पेचीदगियों के भय से मुक्त होकर अपने कार्य का निष्पादन कर पाएं।
(डॉ राज शेखर यादव वरिष्ठ फिजिशियन होने के साथ यूनाइटेड प्राइवेट क्लिनिक्स एंड हॉस्पिटल्स एसोसिएशन ऑफ राजस्थान के प्रदेश संयोजक हैं।)

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