लखीमपुर खीरी की बंजर जमीन को तोड़कर अपनी मेहनत से सोना उगलने वाली धरती में तब्दील कर देने वाले किसानों को उसी ज़मीन से विकास, अतिक्रमण, बफर जोन, हाथी और गैंडा गलियारा के नाम पर बेदखल करने की कोशिश की जा रही है।
नेपाल से सटा तराई का यह जिला जंगल और प्राकृतिक रूप से ऊपजाऊ होने के कारण पूर्वांचल और अन्य जगहों के मजदूरों के लिए हमेशा से आकर्षण का केंद्र रहा है। आजादी के पूर्व से ही पूर्वांचल से मजदूर आकर यहां की खाली और बेकार पड़ी जमीनों पर बस गए और खेती करने लगे। इसके एवज में वो स्थानीय राजाओं को लगान देते थे। आज दशकों बीत जाने के बाद वन विभाग उन जमीनों को वन भूमि बताकर इन गरीबों को उजाड़ने के लिए तरह तरह के हथकण्डे अपना रहा है जबकि जब उनके पुरखे उन जमीनों पर बस रहे थे तब वहां न कोई वन विभाग का दावा था न किसी राजस्व विभाग के कानून का।
लेकिन दशकों बाद अब वन विभाग न केवल इसे अपनी जमीन बता रहा है बल्कि लोगों को उजाड़ने में लगा हुआ है। वन विभाग की इस कार्यवाही से हजारों परिवार प्रभावित हो रहें हैं। उनके जीवन और रोजगार पर संकट के बादल मंडरा रहे हैं। कई साल पहले कठिन परिस्थितियों से जूझते जिस जमीन को उनके पुरखों ने तोड़कर उपजाऊ बनाया और जो बाद में उनके जीवन का आधार बना, वह उनसे छीना जा रहा है।
वन विभाग की इस कार्रवाई के खिलाफ लंबे समय से लोग आंदोलन और कानूनी लड़ाई लड़ रहे हैं। वन विभाग अलग अलग गांवों को उजाड़ने के लिए तरह तरह के दस्तावेज और कानून का सहारा ले रहा है, लेकिन इन गरीबों की जीविका और जीने के संवैधानिक व कानूनी अधिकारों को मान्यता देने को तैयार नहीं है। सरकार का इरादा साफ है गरीबों के संवैधानिक और कानूनी अधिकारों को कुचलकर जंगल, जमीन और जलाशय को कॉरपोरेट के हवाले कर देना।
वन विभाग के इस अभियान से लगभग 32 गांव सीधे तौर पर प्रभावित हो रहे हैं, बाकि दर्जनों गांव बफर जोन के नाम पर प्रताड़ित किए जा रहे हैं।
मुड़ा बुजुर्ग
निघासन तहसील में शारदा नदी के किनारे बसा यह गांव बाढ़ प्रभावित क्षेत्रों में आता है। इस गांव सभा के चार मझरों में लगभग 500 परिवार बसते हैं। इन परिवारों के पूर्वजों को आजादी से पहले राजा युवराज दत्त ने बसाया था। अखिल भारतीय किसान महासभा के जिला संयोजक और वनाधिकार समिति के अध्यक्ष रंजीत सिंह बताते हैं कि उनके पुरखे आजादी के पूर्व आकर यहां बस गए, तब यह जमीन राजा युवराज दत्त की हुआ करती थी। आजादी के बाद राजा युवराज दत्त से यह जमीन वन विभाग को ट्रांसफर हो गयी जिस पर तत्कालीन ग्राम प्रधान ने आपत्ति भी दर्ज करायी थी कि इस जगह पर लोग खेती कर हैं।
सरकार ने तब कोई सुनवाई नहीं की थी और एकतरफा ढंग से इसे वनभूमि घोषित कर दिया था। कागजों में वनभूमि घोषित होने के बावजूद उनके पुरखे इन जमीनों पर काबिज रहे और खेती करते रहे लेकिन अब तीन पीढ़ियों के गुजर जाने के बाद वन विभाग इस जमीन को खाली कराने में लगा हुआ है, लेकिन संगठित जन प्रतिरोध औऱ कानून के सहारे अभी भी लोग काबिज हैं।
उच्च न्यायालय लखनऊ खंडपीठ के आदेश के बाद यहां वनाधिकार कानून 2006 के तहत वनाधिकार समिति का गठन तो हुआ लेकिन प्रशासन ने वनाधिकार कानून के तहत पट्टे देने की कार्यवाही की शुरुआत तक नहीं की। केंद्र और राज्य में भाजपा की सरकार बन जाने के बाद वन विभाग के हमले काफी बढे गए हैं। बलपूर्वक कार्रवाई न करने के उच्च न्यायालय के आदेश के बावजूद वन विभाग न केवल जमीन का बलपूर्वक सीमांकन कर रहा बल्कि लोगों पर फर्जी केस लाद कर खेती के संसाधनों जैसे कि ट्रेक्टर आदि को सीज कर रहा है।
जंगल न.11
लखीमपुर तहसील की सीमा में आने वाला यह गांव कागजों में एक राजस्व गांव हैं। इस गांव में लगभग 400 परिवार रहते हैं जिनमें मुख्य रूप से पशुपालक जातियां- घोसी, पासी व अहीर जातियां शामिल हैं। ये लोग परंपरागत रूप से वन में रह कर खेती और पशुपालन के जरिए अपनी जीविका चलाते हैं। अब वन विभाग ने इनको बेदखल करने के लिए नोटिस जारी की है।
क्रांति नगर
1976 में शारद सागर परियोजना के कारण ऐसे विस्थापित परिवार जिनको सरकार ने न तो मुआवजा दिया और न ही कहीं बसाया, वो लोग क्रांति नगर में आकर बस गए और खेती करने लगे। हर साल बाढ़ की विभीषिका को झेलते हुए ये लोग आज भी घास फूस से बने कच्चे घरों में किसी तरह जीवन यापन कर रहे हैं। इस गांव में करीब 60-65 परिवार हैं जो कि लंबे समय से पुनर्वास की मांग कर रहे हैं लेक़िन पुनर्वास तो दूर इन्हें सरकार वहां से खदेड़ रही है।
नारंग
गोला तहसील में स्थित इस गांव में लोग आजादी के पूर्व से रह रहे हैं। आजादी से पहले यह जमींन राजा भंवर सिंह की हुआ करती थी। मुड़ा बुजुर्ग की तरह इस जमीन पर कब वन विभाग दर्ज हो गया इस बारे में यहां के निवासियों को पता नहीं चल सका। इस गांव की आबादी लगभग 5000 हजार है। लोगों के पास पक्के मकान, बिजली का कनेक्शन, वोटर लिस्ट में नाम आदि सभी चीजें हैं। कुछ समय पहले ही इस गांव को खाली करने के लिए वन विभाग ने नोटिस जारी की है।
सुआबोझ
ग्राम सुआबोझ लखीमपुर खीरी की सबसे बड़ी ग्राम सभा है। इस गांव की आबादी लगभग 15 हजार है जिनमें 50 प्रतिशत पुरबिया, 30 से 40 प्रतिशत मूल निवासी और करीब 10 प्रतिशत सरदार हैं। इस गांव में 8 सरकारी स्कूल, एक पंचायत भवन, एक पानी की टंकी काफी पहले से मौजूद है। इस गांव में छोटे और मझोले दोनों तरह के काश्तकार मौजूद हैं।
इस गांव के निवासी और अखिल भारतीय किसान महासभा के नेता जवाहर लाल बताते हैं कि आजादी के पहले यह जमीन राजा सहदेव सिंग के दामाद कैप्टन प्राणनाथ हूण की थी। उन्होंने ही हमारे पूर्वजों को इस जमीन पर काश्तकारी के लिए बसाया था। वे लोग 9 रुपये एकड़ के हिसाब से लगान भरते थे। आजादी के बाद जमींदारी विनाश कानून के तहत हम जोतदारों का मियादी पट्टा बना और बाद में सभी लोग भूमिधर घोषित हो गए। लेकिन वन विभाग इसे अपनी जमीन बता रहा है और लोगों को उजाड़ने के लिए उसने कानूनी घेरेबन्दी भी शुरू कर दी है।
प्रभागीय वनाधिकारी ने चकबंदी अधिकारी से वन विभाग की 2290 एकड़ भूमि राजस्व से अलग करने की दरख्वास्त दी है। वन विभाग का कहना है कि 1950 में इस जमीन पर भारतीय वन अधिनियम 1927 की धारा 4 के तहत नोटिफिकेशन हुआ था इसलिए यह जमीन वन विभाग की है और इस पर बसे लोग अवैध कब्जेदार हैं। वन विभाग ने बेदखल करने के लिए सभी कास्तकारों को नोटिस दी है, जिसकी सुनवाई खुद प्रभागीय वनाधिकारी अपने न्यायालय में कर रहे हैं।
जवाहरलाल कहते हैं कि कानून के नाम पर इससे बड़ा मजाक क्या हो सकता है कि जो अधिकारी काश्तकारों को उजाड़ने में लगा हुआ है वही हमारे मुकदमें की सुनवाई कर रहा है।
बसही
लखीमपुर जिले में नेपाल बॉर्डर पर बसा यह गांव आसपास के गांवों का मार्केट प्लेस है। यहां करीब 200 परिवार बसे हुए हैं। पिछले साल वन विभाग ने इन सभी परिवारों से इनकी खेती की जमीन छीन ली और अब इनके घरों पर बुलडोजर चलाने की तैयारी कर रहा है।
इंद्रानगर
1969 में नेपाल से विस्थापित कई परिवार यहां आकर बस गए और खेती करने लगे। वन विभाग ने अब इस गांव को वन विभाग की भूमि बताते हुए गांव के चारों तरफ पिलर लगा दिए हैं और सभी पर गांव छोड़ने का दबाव बना रहे हैं।
बढ़ता दमन उठता प्रतिरोध
केंद्र और प्रदेश में भाजपा सरकार बनने के बाद छोटे मझोले किसानों को बेदखल कर हजारों एकड़ जमीन खाली कराने के लिए नए सिरे से दमन चक्र चलाया जा रहा है और इसके लिए वन विभाग के आधे-अधूरे और अप्रासंगिक हो चुके कागजों का सहारा लिया जा रहा है। सरकार पूरी निरंकुशता के साथ हजारों परिवारों के जीने के कानूनी औऱ संवैधानिक अधिकार की धज्जियां उड़ाने में लगी हुई है।
लेकिन जिन गांवों के लोग संगठित प्रतिरोध में उतर आए हैं वो लोग अभी तक बचे हुए हैं। मुड़ा बुजुर्ग, सुआबोझ और नारंग की जनता हर सरकारी हमले का जवाब लोकतांत्रिक आंदोलन और कानूनी प्रक्रिया से दे रही है। ग्राम मुड़ा बुजुर्ग काफी लंबे समय से संघर्ष का केंद्र बना हुआ है। दिसम्बर 2022 में आंदोलन की शुरुआत वन विभाग द्वारा जगदीश यादव का ट्रैक्टर व गन्ने से भरी हुई ट्राली अवैधानिक ढ़ंग से सीज किये जाने के खिलाफ 17 किलोमीटर तक पैदल मार्च से हुई।
इस मार्च में हजारों की संख्या में महिलाएं, बुजुर्ग और नौजवान शामिल हुए। उसके बाद प्रतापगढ़ में अनवरत ढंग से धरना प्रदर्शन चलता रहा। इसी बीच वन विभाग ने मुड़ा बुजुर्ग में सीमांकन शुरू कर दिया लेकिन मौके पर संगठित जनप्रतिरोध के चलते वन विभाग की टीम को वापस लौटना पड़ा।
वन विभाग के निरन्तर हमले के खिलाफ अखिल भारतीय किसान महासभा ने कड़कड़ाती ठंड के बीच दिनांक 9-10 जनवरी को जिला मुख्यालय पर धरना दिया। जिसमें सैकड़ों की तादात में ग्रामीणों ने भाग लिया। धरने के माध्यम से मांग की गई कि आजादी के समय से बसे सभी गरीबों को जमीन पर मालिकाना हक दिया जाय और वन विभाग के उत्पीड़न पर रोक लगाई जाए।
धरने को सम्बोधित करते हुए अखिल भारतीय किसान महासभा के प्रदेश अध्यक्ष जय प्रकाश नारायण ने कहा कि जहां एक तरफ सरकार वन भूमि, विकास और अतिक्रमण के नाम पर गरीबों को उजाड़ने में लगी हुई है वहीं दूसरी तरफ वन भूमि को बड़े उद्धोगपतियों के हवाले करने के लिए वन संरक्षण नियम 2022 कानून लेकर आ रही है जिसके तहत सरकार द्वारा नियुक्त एक कमेटी वनभूमि को ग़ैरवानीकी कार्यो हेतु दे सकती है। देश में जहां कहीं भी वन भूमि और उसके आसपास लोग पीढ़ियों से बसे हुए हैं उनको सरकार अवैध कब्जेदार और भू-माफिया साबित करने में लगी हुई है ताकि उनको बलपूर्वक हटाया जा सके। लखीमपुर खीरी सरकार के इस अभियान की प्रयोगस्थली बन गयी है।
धरने को सम्बोधित करते हुए अखिल भारतीय प्रगतिशील महिला एसोसिएशन की प्रदेश अध्यक्ष कृष्णा अधिकारी ने कहा कि 2020 में भी सरकार ने वन भूमि के नाम पर कई गांवों में बेदखली का अभियान चलाया था जिसके खिलाफ पूरे जिले में आंदोलन चले, जिसके बाद सरकार ने 3 जुलाई 2020 को शासनादेश जारी कर यह कहा था कि आजादी के समय से जो लोग विस्थापित होकर वन भूमि पर बसे हुए हैं और खेती कर रहे हैं उनका सर्वे कर भूमि पर मालिकाना हक दिया जाएगा। इस शासनादेश के बावजूद सर्वे कराने के लिए लगभग एक महीने तक धरने पर बैठना पड़ा। सर्वे के बाद शासनादेश के अनुसार कार्यवाही आगे बढ़ाने के बजाए वन विभाग पुनः बेदखली की कार्यवाही कर रहा है।
(लखीमपुर खीरी से शम्स विकास की रिपोर्ट)
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