मुख्तार अंसारी की हिरासती मौत और (अ) सभ्य‌ समाज की प्रतिक्रिया

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पिछले साढ़े 18 वर्षों से जेल में बंद पूर्वांचल के प्रमुख ‘माफिया’ कहे जाने वाले मुख्तार अंसारी की मौत हो गई। इस “वैदकी हिंसा” पर समाज का विभाजित होना स्वाभाविक है और वर्ग जाति में विभाजित समाज में प्रतिक्रियाओं का तटस्थ होना संभव नहीं है।

एक- वर्तमान समय में‌ संघ व भाजपा के नफरती वैचारिक प्रभाव‌ के कारण उन्माद के स्तर पर जाति और धर्म में विभाजित समाज की विधिक‌ संरक्षण में रहने वाले व्यक्ति की मौत पर प्रतिक्रियाएं अलग-अलग थी। सभ्य सुसंस्कृत कहे जाने वाले समजों और तबकों द्वारा व्यक्त की जा रही प्रतिक्रिया और उनके चेहरों‌ पर मौत को लेकर खुशी और हर्ष देखा गया। ऐसा लगता था जैसे कोई बदला ले लिया गया हो और आत्म तृप्ति और संतोष के साथ विजय के भाव दिखाई देने लगे। यही नहीं सैकड़ों प्रतिक्रियाएं ऐसी थी जिसमें योगी आदित्यनाथ को मुख्तार के मौत का श्रेय देते हुए देखा गया। साथ ही खुशी के अतिरेक में योगी आदित्यनाथ को बधाई भी दी जाने लगी। लोग यह भूल गए कि उत्तर प्रदेश में कानून का शासन है और योगी आदित्यनाथ उत्तर प्रदेश के संवैधानिक तौर पर निर्वाचित मुख्यमंत्री है। उनको बधाई देने वालों में इस बात का खौफ नहीं था। वे अपनी अज्ञानता और बुध्दिहीनता के चलते उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री को संवैधानिक रूप से कटघरे में खड़ा कर रहे हैं।

यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि योगी आदित्यनाथ के शासनकाल में उनकी जो छवि बनी है। यह प्रतिक्रिया उसी का स्वाभाविक परिणाम थी। खुद योगी आदित्यनाथ द्वारा इस तरह की घटनाओं पर दिए गए विवादित बयान उनके समर्थकों की हौसला आफजाई करते हैं और उनमें खास‌‌ तरह की धारणा को और मजबूत करते हैं कि यह सरकार उनके साथ है। इसलिए वे कुछ भी कहने करने के लिए स्वतंत्र है। खासकर हिंदुत्ववादी सवर्ण तबका मुख्तार की मौत के बाद हर्षातिरेक में झूम रहा है। जबकि सरकार के अधिकारियों ने अभी तक इस मौत का कारण हृदयाघात माना है।

लेकिन जाति श्रेष्ठतावादी जहरीली और कुंठित चेतना के कारण पूर्वी उत्तर प्रदेश की कुछ जातियों के कुछ लोग संघी ज्ञान आदर्श तथा उन्मादी विचारों से दीक्षित (अ) ज्ञानी और (कु) संस्कृति लोगों के विचार में यह योगी आदित्यनाथ द्वारा किया गया महान कार्य है।इसलिए वे तालियां पीटते हुए एक दूसरे को बधाई दे रहे हैं। ऐसे तत्व इतने उन्मादी हो गए हैं कि अगर कोई व्यक्ति उनके तर्कों और विचारों से असहमति व्यक्त करता है तो उसके साथ गाली गलौज अपशब्द और सोशल मीडिया पर अपने अंदर का जहर उगलते हुए जहरीले नाग की तरह फुफुकारने लगे हैं।

पूर्व आईपीएस अमिताभ ठाकुर ने मुख्तार अंसारी की मौत को लेकर बतौर पूर्व पुलिस अधिकारी कुछ सवाल उठाए तो उनके खिलाफ अनेक तरह की भद्दी टिप्पणियां की जाने लगी। यह बात उन्होंने एक चैनल के साथ बातचीत में कही थी। हालांकि उन्होंने धैर्य और साहस का परिचय देते हुए कहा कि “चूंकि यह हमारी फितरत है। हमारा स्वभाव है और सच के प्रति हमारी प्रतिबद्धता है” इसलिए चाहे कोई भी कहे। अगर कोई व्यक्ति या संस्था, संविधान, कानून से बाहर जाकर कुछ करता है तो हम अपना कर्तव्य समझते हैं कि कानून के दायरे में उसके ऊपर कारवाई करने के लिए संघर्ष करें।

दो- ठीक इसके विपरीत एक पक्ष ऐसा भी है जो मुख्तार को शहीद मानता है और उन्हें अपना हीरो व गरीबों का मसीहा‌ समझता है।उसका तर्क है कि मुख्तार के इंतकाल के बाद उनके प्रति अपनी एकजुटता और मोहब्बत प्रकट करने के लिए इकट्ठा हुए लाखों लोगों ने यह बात प्रमाणित कर दी है कि वह माफिया नहीं मसीहा थे। इस पक्ष के एक हिस्से का यह तर्क है कि वह दबंग और ताकतवर लोगों के खिलाफ थे। इसलिए गरीब‌ और असहाय लोग उन्हें अपना संरक्षक समझते हैं। यह जो धर्म और जाति की सीमा लांघ कर लाखों लोग इकट्ठा हैं वे इस बात की गवाही दे रहे हैं कि मुख्तार जनता के आदमी थे।

यहां भी भीड़वाद का सहारा लिया गया है। जिस तर्क का सहारा लेकर आरएसएस ने बाबरी मस्जिद गिराई थी और अब बहुमत के आस्था के सवाल को आगे कर लोकतंत्र की सारी संस्थाओं को निष्प्रभावित करने में लगा है। वह भीड़ (यहां बहुमत पढ़ें) के विचार आस्था, परंपरा और विश्वास को संविधान और कानून से ऊपर की श्रेणी में रखता है। इस समय जो तर्क मुख्तार को लेकर दिए जा रहे हैं। वह इसी भीड़वाद से ‌निकला है।

यह सच है कि पिछले‌ साढ़े अट्ठारह वर्षों से मुख्तार लगातार जेल था। उसके पहले संभवतः 4 साल मुख्तार अंसारी जेल में रहे थे। यानी उनके जीवन का 22 वर्ष जेल में गुजारा था। जेल में रहते हुए ही उनके ऊपर 90 मुकदमे लगाए गए थे। यह आम धारणा है और एक हद तक सच्चाई है कि बनारस, चंदौली, गाजीपुर सहित पूर्वांचल के कई जिलों में सरकारी ठेके, चंदासी कोयला मंडी की अवैध वसूली, सोन नदी के बालू और शराब से लेकर जमीन के धंधे में लगे हुए कई गैंग एक दूसरे से वर्चस्व के लिए लंबे समय से टकराते रहे हैं। आज भी उनके बीच में वर्चस्व की जंग रही है और इसका विस्तार आस-पास के जिलों तक फैलता गया है। इस जंग का संतुलन सरकारों के बदलने के साथ एक से दूसरे के पक्ष की तरफ झुक जाता है। जो जिस सरकार के अनुकूल होता है। उस दौर में उस माफिया का पलड़ा भारी हो जाता है।

उत्तर प्रदेश में भाजपा, बसपा और सपा की सरकारें पिछले 30 से ज्यादा वर्षो से रही है। इसलिए इन सरकारों से जुड़े माफियाओं की ताकत और प्रभाव क्षेत्र तथा कार्य क्षमता सत्ता समीकरण बदलने पर बढ़ घट जाती है। आश्चर्य है कि ये माफिया पूर्णतया धर्मनिरपेक्ष और जाति मुक्त होते हैं। इनके पास हर जाति-धर्म के अपराधी तत्व होते है। लेकिन राजनीतिक और जातिवादी तत्व अपने फायदे के लिए इन आपराधिक गिरोहों का सहारा लेकर समाज को बांटने में सफल हो जाते हैं।

समाज और सरकार की इसी स्थिति का प्रतिबिम्ब मुख्तार अंसारी, बृजेश सिंह, त्रिभुवन सिंह, धनंजय, विनीत सिंह, विजय मिश्रा सहित अनेक तथाकथित माफियाओं के सामाजिक समर्थन में दिखता है और इन तत्वों ने सामाजिक परिस्थितियों का लाभ बखूबी उठाया है। अब तो पिछड़ी व दलित जातियों में भी इस तरह के गैंग जाति और धर्म के समर्थन के द्वारा उभर आए हैं।

चूकि मुख्तार अंसारी पूर्वांचल के सबसे प्रतिष्ठित परिवारों में से एक से संबद्ध रहे हैं। उनके परिवार का योगदान भारत के स्वतंत्रता संघर्ष से लेकर भारत की आजादी के बाद भी महत्त्वपूर्ण और सराहनीय रहा है। उस‌ परिवार में कई राष्ट्रीय अंतरराष्ट्रीय ख्याति के प्रबुद्ध जन प्रशासकीय अधिकारी न्यायविद पैदा हुए हैं। इसलिए स्वाभाविक रूप से मुख्तार अंसारी का पलड़ा नवधनाढ्य माफियाओं अपराधी गिरोहों के ऊपर भारी हो जाता है। गाजीपुर, मोहम्मदाबाद, यूसुफपुर, रेवतीपुर, जमानियां जैसे सामंती दबदबे‌ वाले इलाके में भूमिहार समंतों और सादात, सैदपुर, औड़िहार इलाके में राजपूत सामंतो और नवधनाढ्यों का वर्चस्व रहा है। अंसारी परिवार इस गठजोड़ का अभिन्न अंग है।

1982 में जब मुझे गाजीपुर में सामाजिक काम के लिए जाना पड़ा तो मैंने व्यक्तिगत रूप से यह महसूस किया और देखा कि वामपंथी प्रभाव वाले मुख्तार अंसारी के पिता (जो लंबे समय से यूसुफपुर नगर पालिका के अध्यक्ष थे) के भूमिहार समाज के बड़े प्रतिष्ठित जमींदारों और प्रबुद्ध नागरिकों के साथ पारिवारिक संबंध थे। चूंकि अंसारी परिवार शुरू से ही राष्ट्रवादी (संघी राष्ट्रवाद से सर्वथा भिन्न) प्रगतिशील और वामपंथी विचारों वाला था। इसलिए गरीब जनता के साथ भी इस परिवार का गहरा रिश्ता रहा है। लेकिन वामपंथी होने के बावजूद उनके इलाके के सवर्ण जातियों के साथ उनके संबंध बहुत मधुर और पारिवारिक थे। सुख-दुख, शादी विवाह और आपसी त्योहारों पर एक दूसरे के साथ मिलना-जुलना, उठना-बैठना, आना-जाना रहा है। जो एक हद तक आज भी कायम है।

‌इसलिए हिंदुत्व के संघी मॉडल और उभरते नये गिरोह के लिए यह जरूरी था कि अंसारी परिवार को खलनायक बनाकर उन्हें व्यापक हिंदू समाज से अलग करने की कोशिश हुई। चूंकि 1984 के बाद अंसारी परिवार का मोहम्मदाबाद की विधायकी और बाद में गाजीपुर की सांसदी पर भी कब्जा हो गया था। इसलिए भाजपा और संघ परिवार के राजनैतिक वर्चस्व के लिए यह जरूरी था कि अंसारी परिवार के खिलाफ योजनाबद्ध अभियान चलाकर उनके सामाजिक प्रभाव को कमजोर किया जाए। बाद में मुख्तार अंसारी के उभार और राजनीतिक ताकत बन जाने से यह मौका भी मिल गया। लंबे समय से अंसारी परिवार का प्रभाव मोहम्मदाबाद तक ही सीमित रहा। लेकिन मुख्तार अंसारी के उभरते ही बुनकर नगरी मऊ, गाजीपुर, आजमगढ़ तक अंसारी परिवार की पकड़ मजबूत हो गई।

जैसा हम जानते हैं कि इस समय मीडिया एक तरफा भाजपा व संघ के विचार और एजेंडे का प्रवक्ता है। इसलिये बढ़ चढ़ कर मुख्तार अंसारी का दानवीकरण किया गया। जिससे अंसारी परिवार को बदनाम कर नागरिक और सामाजिक संबंधों को तोड़कर हिंदू समाज का ध्रुवीकरण किया जा सके। लेकिन मुख्तार के जनाजे में उपस्थित जनसमूह अभी भी इस बात की गवाही दे रहा है कि पिछले तीन दशक से नफरती हिंसक अभियानों के बाद भी अभी तक भाजपा और संघ परिवार अपने मकसद में पूरी तरह कामयाब नहीं हो पाये है। वस्तुत इस समय इन सब बातों और घटनाक्रमों के बारे में लिखना एक जोखिम भरा कदम है। क्योंकि भूमिहार जाति कृष्णानंद राय की हत्या के बाद इस कदर उत्तेजित और आक्रामक हो गई है कि वह किसी तर्क को सुनने के लिए तैयार नहीं है। जबकि बतौर जाति इस वर्चस्व की लड़ाई में सबसे ज्यादा नुकसान उसी को उठाना पड़ा है।

तीन- राज्य की तटस्थता का खात्मा। जो सबसे बड़ा सवाल है। उसे ही इस बहस में गौड़ कर दिया जा रहा है। योगी आदित्यनाथ के मुख्यमंत्री बनने के बाद भारत का हर लोकतांत्रिक नागरिक और वैश्विक समाज इस बात को देख रहा है कि उत्तर प्रदेश में एक खास तरह का लोकतांत्रिक व्यवस्था विरोधी नैरेटिव चलाया जा रहा है। जिसमें न्यायपालिका और लोकतांत्रिक संस्थाओं को अक्षम व नकारा बताकर उसे कमजोर किया जा सके। चूंकि संघ परिवार की भगवा भारत बनाने की चित्र प्रतीक्षित आकांक्षा रही है। इसलिए उसने भारत के सबसे बड़े प्रदेश में एक ऐसे व्यक्ति को मुख्यमंत्री बनाया जो एक बड़े मठ के मठाधीश है। वेशभूषा, अचार-विचार और व्यवहार में वह विशुद्ध हिंदू धर्म की परंपराओं प्रतीकों, देवी- देवताओं, महापुरुषों के आदर्शों को हिंदुत्व के पैमाने से बुलंद करते हैं।भारत के संवैधानिक गणतंत्र होने के बावजूद वह भारत को हिंदू राष्ट्र राज्य के रूप में देखते हैं और वैसा ही व्यवहार करते हैं। वे इसे छिपाते भी नहीं।

गोरखपुर के सांसद रहते हुए गोरखपुर मंडल में उनके द्वारा चलाए गए अभियानों से उनकी एक उग्र हिंदू पहचान निर्मित हुई थी। जिस कारण से उनके ऊपर कई मुकदमे भी कायम हुए और वह एक विवादास्पद व्यक्तित्व बन गए थे। संघ परिवार को ऐसे ही आक्रामक युवा व्यक्तित्व की जरूरत थी। जो आचार व्यवहार वेशभूषा में हिंदू धार्मिक पहचान को बुलंद करता हो। इसलिए मुख्यमंत्री की रेस में कहीं भी न दिखाई देते हुए भी अचानक भारत के सबसे बड़े राज्य की बागडोर उन्हें सौंप दी गई। आज यह स्पष्ट रूप से कहा जा सकता है कि मुख्यमंत्री के रूप में योगी आदित्यनाथ ने संघ परिवार को निराश नहीं किया है।

उत्तर प्रदेश की सत्ता में आने के बाद योगी आदित्यनाथ ने सभी संवैधानिकता और कानूनी बाध्यताओं को दरकिनार करते हुए संघ द्वारा निर्धारित एजेंडे को साहस के साथ आगे बढ़ाया। तथा उत्तर प्रदेश में कानून व्यवस्था कायम करने की एक नई शैली विकसित की। जो “आंख के बदले आंख और कान के बदले कान” के मध्ययुगीन सिद्धांतों पर आधारित है। बुलडोजर न्याय और ठोक दो जैसे उनके आवाहनों ने भारत में न्यायिक परंपरा और कानून के राज को गंभीर चुनौती दी है। इस पर चलते हुए उन्होंने आंदोलन, विरोध- प्रदर्शनों और सरकार की नीतियों से असहमत लोगों के ऊपर सीधे दमनात्मक कार्रवाई को अंजाम दिया। जिससे सैकड़ों परिवार बुरी तरह से प्रभावित हुए या बर्बादकर दिए गए हैं।

इसके बावजूद उत्तर प्रदेश में कानून व्यवस्था की स्थिति इतनी बदतर होती गई है कि अब यहां जेल से ज्यादा सुरक्षित जंगल समझे जाने लगे हैं। थानों के लॉक‌अप‌ से लेकर न्यायालय परिसर और जेल जैसी जगहों पर विरोधियों की हत्याएं हो रही है। अपराधियों के बढ़े मंसूबे इस बात की गवाही दे रहे हैं कि 21वीं सदी में 14वीं सदी की न्याय संहिता नहीं लागू की जा सकती। कानून व्यवस्था के मोर्चे पर लगातार असफल होते जाने के कारण योगी आदित्यनाथ को और आक्रामक होते जाना पड़ रहा है। अल्पसंख्यक समाज के प्रति उनकी नफरत उनके भाषा शैली और बॉडी लैंग्वेज में हर समय प्रकट होती है। विकास दुबे की गाड़ी पलटने से मौत, अतीक और अशरफ की पुलिस कस्टडी में की गई हत्या, जेल में मुन्ना बजरंगी को मारा जाना, लखनऊ हाई कोर्ट में अभियुक्त को वकील के भेष में गोली मारकर हत्या कर देना और अब मुख्तार अंसारी की उनके परिवार के अनुसार संदिग्ध मौत ने उत्तर प्रदेश के सभ्य समाज को हिला के रख दिया है।

जिस तरह से इलाहाबाद में मुस्लिम घरों को गिराया गया और लखनऊ में एनआरसी का विरोध करने वालों पर गोलियां चलाई गई , आंदोलनकारियों के इश्तहार छापे गए। उन पर बड़े-बड़े जुर्माने ठोके गए। यह उत्तर प्रदेश में कानून व्यवस्था के नई संस्कृति की शुरुआत थी‌। वहीं भगवा समूह द्वारा सुबोध कुमार सिंह जैसे इंस्पेक्टर की हत्या के अपराधियों का महिमा मंडन हुआ। वह घटना वस्तुतः राज्य के निरपेक्ष होने की अवधारणा को चकनाचूर कर देती है। इसके अलावा महिलाओं, छात्रों, नौजवानों और न्याय मांगने वालों पर जगह-जगह हो‌ रही वैदकी हिंसा ने उत्तर प्रदेश को एक बर्बर प्रदेश में बदल दिया है।

चार- उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ के शासनकाल और केंद्र में मोदी सरकार के 10 साल में राज्य संस्थाओं की भूमिका को जिस तरह से पक्षपाती और एक पक्षीय बनाया गया है। यह उन सभी लोगों के लिए सबसे बड़ा सवाल है जो भारत में कानून और न्याय के शासन पर यकीन करते है। वे सभी व्यक्ति और राजनीतिक सामाजिक संस्थाएं कानून के शासन के पक्षधर हैं। तथा कानून के समक्ष सभी नागरिकों के बराबरी के अधिकार के हिमायती हैं। तथा भारत में न्यायिक संस्थाओं को मजबूत बनाने, लोकतांत्रिक संस्थाओं को सुदृढ़ व पारदर्शी रखने और कानून के दायरे में काम करने के पक्षधर है। राज्य के द्वारा किए जा रहे किए जा रहे जन विरोधी कार्यो के मुखर विरोध हैं और नागरिकों के लोकतांत्रिक और मानवाधिकारों के लिए संघर्षरत हैं। आज उनके सामने गंभीर चुनौती है।

एक तरफ सरकार इन पर हमला कर रही है। उन्हें तुष्टिकरण वाले छद्म धर्मनिरपेक्ष राष्ट्रद्रोही से लेकर हिंदू द्रोही और अंत में मोदी विरोधी घोषित किया जा रहा है। दूसरी तरफ धार्मिक रूप से उन्मादी बना दिए गए गिरोहों और कट्टर जातिवादी तत्वों के हमले भी इन्हें झेलने पड़ रहे हैं। ये लोग जो “इस हत्या अभियान में शामिल नहीं है, जो इसके समर्थक नहीं है ,जो इसके दूरगामी खतरनाक परिणाम के प्रति लोगों को सचेत कर रहे हैं” हमले की जद में है। अमिताभ ठाकुर सहित उन समस्त लोगों पर जिन्होंने इस संदिग्ध मौत की जांच की मांग की। जिन्होंने इसे एक खतरनाक परंपरा बताया और जिनका मानना है की विकास दुबे से लेकर मुख्तार अंसारी और मुन्ना बजरंगी तक की न्यायिक और पुलिस कस्टडी में हुई हत्याएं भारत के लोकतंत्र के अंधेरे युग के संकेत हैं। इसलिए इसकी उच्च स्तरीय निष्पक्ष जांच होनी चाहिए।

आज नागरिक समाज संकट में है। यह संकट सिर्फ नागरिक समाज के समक्ष ही नहीं है। बल्कि भारतीय लोकतंत्र और भारतीय समाज के अस्तित्व के साथ जुड़ता जा रहा है। इसलिए यह भारत की संपूर्ण अवधारणा के सामने चुनौती पेश कर रहा है। जो चुनौती धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक नागरिक के समक्ष है। वही तो भारतीय गणराज के समक्ष है। जो लोग धर्म के आधार पर न्याय के विरोधी हैं जो लोग लोकतंत्र में धर्म को व्यक्ति का निजी मामला समझते हैं। जिन्हें धर्म के परंपराओं-व्यवहारों के उग्र प्रदर्शन और उससे होने वाले सामाजिक नुकसानों की चिंता है।

आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस और आईटी तकनीक के सर्वव्यापी ताकत बन जाने के इस युग में षड्यंत्र और अपराध अगर राज्य का हथियार बन जाए तो नागरिक और लोकतंत्र के अस्तित्व के समक्ष गंभीर खतरे को जन्म देगा। हमें इस खतरे के समझना चाहिए और उसके प्रतिकार के लिए लोकतांत्रिक मूल्यों के साथ खड़ा होना होगा। हमें मनुष्य की मानवीय करुणा और संवेदना को जागृत करते हुए उसे समग्र मानव समाज केप्रति संवेदनशील बनाना होगा। यह‌ दुरूह और धैर्य के साथ लंबे समय तक किया जाने वाला कठिन संघर्ष है। चाहै यह कितना ही कठिन दुरुह और पीड़ा दायक संघर्ष क्यों न‌ हो। लेकिन इसे तो किया ही जाना होगा।

मुझे मुख्तार अंसारी की मौत के बाद चले उन्मादी विमर्श में एक व्यक्ति कानून के शासन और न्यायिक व्यवस्था के प्रतिबद्ध दिखाई दिए। वे हैं कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष अजय राय। क्योंकि मुख्तार अंसारी के ऊपर अजय राय के भाई अवधेश राय की हत्या का मुकदमा चला था। जिसमें उन्हें आजीवन कारावास हुआ है। यहां अजय राय की व्यक्तिगत पीड़ा होने के बावजूद उन्होंने न्यायिक व्यवस्था पर यकीन बनाए रखा। जब उनसे पूछा गया कि आपके भाई की हत्या में शामिल मुख्तार की मौत पर आपको क्या कहना है। तो उन्होंने कहा कि हमने कानूनी लड़ाई लड़ी और कानून के द्वारा मुख्तार अंसारी दंडित किए गए और वे सजा भोग रहे थे। मैं कानून और न्यायालय पर विश्वास करता हूं। इससे ज्यादा और कुछ भी मुझे नहीं कहना है।

ऐसे समय में जब संघ और भाजपा के उन्मादी आक्रामक तत्व इस मौत को लेकर सांप्रदायिक अभियान चला रहे थे और इसके द्वारा चुनाव में ध्रुवीकरण की कोशिश कर रहे थे। तो एक राजनेता के इस दृढ़ विश्वास और उसकी लोकतांत्रिक चेतना को सलाम करते हुए यह कहा जा सकता है कि हमारे लोकतांत्रिक मुल्क में अभी भी बहुत कुछ मानवीय मूल्य शेष है। 10 वर्षों के मोदी काल के अनवरत विभाजनकारी और सांप्रदायिक कारनामों व अभियानों के बावजूद भारत की समावेशी गंगा-जमुनी संस्कृति की आत्मा जिंदा है और लोकतंत्र के और मजबूत होने की उम्मीद बाकी है।

(जयप्रकाश नारायण स्वतंत्र टिप्पणीकार और किसान नेता हैं।)

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