वाराणसी की दालमंडी, ये नाम सिर्फ एक जगह भर नहीं है, बल्कि सदियों से चलती आ रही रूहानी रौनक, कारोबार की तहज़ीब और गलियों की सांझी ज़िंदगी का नाम है। इसी दालमंडी की गलियों में अब सन्नाटा है, बेचैनी है और आने वाले कल को लेकर गहरी चिंता है। सरकार की ओर से प्रस्तावित सड़क चौड़ीकरण योजना के चलते यहां के 189 मकानों और लगभग 1400 से 1500 दुकानों पर खतरा मंडरा रहा है। जब लग रहा था कि सब उजड़ जाएगा, ठीक उसी वक्त हाईकोर्ट का एक आदेश जैसे उम्मीद की किरण लेकर आया है।
इलाहाबाद हाईकोर्ट ने इस मामले में दख़ल देते हुए साफ कह दिया है कि फिलहाल यथास्थिति बनी रहेगी। यानी अब किसी भी मकान या दुकान को तोड़ा नहीं जा सकेगा। यह आदेश उन व्यापारियों और स्थानीय लोगों के लिए किसी राहत की सांस से कम नहीं, जो बीते कई दिनों से रात-रात भर यही सोचकर जाग रहे थे कि कल कहीं उनकी ज़िंदगी भर की कमाई मलबे में तब्दील न हो जाए।
शाहनवाज़ खान और अन्य लोगों की ओर से दायर याचिकाओं में कोर्ट को बताया गया कि प्रशासन ने बिना मुआवज़े की बात तय किए, लोगों में डर फैलाया है कि कभी भी चौड़ीकरण शुरू हो सकता है। अदालत को यह भी बताया गया कि शहरी क्षेत्र में ज़मीन के स्वामित्व को लेकर खतौनी जैसी व्यवस्था नहीं होती, बल्कि यहां नगर निगम का टैक्स कार्ड ही मालिकाना हक़ का सबूत माना जाता है। ऐसे में जब मुआवज़े की कोई स्पष्ट योजना नहीं है, तो लोग जाएं तो जाएं कहां?
कोर्ट ने सरकार से यह भी पूछा है कि अगर मुआवज़ा देना है, तो उसकी दर क्या होगी? क्या बिना खतौनी के भी मुआवज़ा मिलेगा? ज़मीन की कीमत का कौन ज़िम्मेदार होगा? इन सभी सवालों का जवाब अब सरकार को 20 मई तक देना है। इस तारीख़ का इंतज़ार दालमंडी की हर दुकान, हर घर और हर चेहरे पर साफ़ झलक रहा है।
दरअसल, सरकार ने वित्तीय वर्ष के अंतिम दिन इस योजना के लिए दो करोड़ रुपए जारी कर दिए। कुल बजट 200 करोड़ से भी अधिक का है। इसके बाद लोनिवि ने मकानों की नाप-जोख भी शुरू कर दी। कहा गया कि यह मुआवज़े की प्रक्रिया के लिए है, पर स्थानीय लोगों को इसका कोई भरोसा नहीं। उन्हें तो बस यही दिखता है कि बुलडोज़र कहीं बहुत पास खड़ा है।
सबसे दुखद बात यह है कि इस सड़क चौड़ीकरण की जद में छह मस्जिदें भी आ रही हैं। ये मस्जिदें सिर्फ ईबादत की जगह नहीं, बल्कि मोहल्ले की सामूहिक पहचान हैं। हाफिज खुदा बक्श जायसी उर्फ लंगड़े हाफिज मस्जिद, निसारन मस्जिद, रंगीले शाह मस्जिद, अली रज़ा मस्जिद, संगमरमर मस्जिद और मिर्जा करीमुल्ला बैग मस्जिद के मुतवल्लियों ने खुलकर विरोध दर्ज कराया है। उनका कहना है कि यह सिर्फ इमारतों की बात नहीं, बल्कि संस्कृति और विश्वास के ताने-बाने को छेड़ने जैसा है।
विकास की आड़ में उजड़ता एक इतिहास
काशी की दालमंडी… सिर्फ एक बाजार नहीं है, यह बनारस की रूह है। भीड़भाड़, गलियों का संकरापन, दुकानों की चहल-पहल और उन गलियों में घूमते ग्राहक, इन सबमें बनारस का जीवन धड़कता है। अब विकास की एक बड़ी योजना इस धड़कते हुए दिल पर हाथ रखने को तैयार खड़ी है। सरकार ने निर्णय लिया है कि बाबा विश्वनाथ धाम से जुड़ने वाली दालमंडी सड़क को चौड़ा किया जाएगा, जिससे तमाम दुकानें प्रभावित होंगी। व्यापारियों को लगता है कि दालमंडी की पहचान, उसका रंग, उसकी आवाज़, उसकी महक… सब कुछ खतरे में है।
दालमंडी को जो लोग नहीं जानते, उन्हें ये बस एक और भीड़भाड़ वाली जगह लगेगी। मगर जिसने इन गलियों की धूल खाई है और जिसने इन दुकानों में जिंदगी बिताई है, वह जानता है कि यह एक संस्कृति है। वो बनारसी तहजीब जो वक्त के साथ घुलती गई और इन दुकानों की दीवारों में बसती चली गई। काशी के जिस दिल में दालमंडी धड़कती है, वो दिल आज बेचैन है। ये वही दालमंडी है, जिसकी गलियों में सौ साल से भी पुराने मकान चुनार के लाल बलुआ पत्थर और चूने की जुड़ाई से खड़े हैं। इन दीवारों ने सिर्फ ईंट और पत्थर नहीं थामा, इन्होंने उस बनारसी तहज़ीब को बचा के रखा जिसमें राम-रहीम साथ चलते हैं, और दुकानों की पहचान धर्म से नहीं, भरोसे से होती है।
दालमंडी के ज्यादातर व्यापारी सिर्फ कपड़े, नमकीन, कढ़ाई और बर्तन नहीं बेचते, वो एक जीवनशैली का कारोबार करते हैं। वह जीवनशैली जो चंदौली, मिर्ज़ापुर, जौनपुर, सोनभद्र, भदोही और बिहार के सीमावर्ती ज़िलों से आए ग्राहकों के साथ पीढ़ियों से पल रही है। कोई भी त्योहार, शादी या पर्व हो, दालमंडी आए बिना किसी की खरीदारी पूरी नहीं होती। लेकिन अब इस गली का सीना चीरने की योजना बन रही है। 17.5 मीटर चौड़ी सड़क, अंडरग्राउंड मार्केट, सीवर लाइन और केबल डालने की योजना बनाई गई है। सरकारी आंकड़ों में ये विकास है, लेकिन यहां की रूह को छूकर देखें, तो ये उजड़ने का ऐलान है।
दालमंडी बनारस का वो इलाका है जहां हर त्यौहार की रौनक सबसे पहले महसूस होती है। ईद की टोपी हो या दिवाली का दीया, होली का रंग हो या पतंगों की पतंगबाज़ी हर मौसम, हर जश्न की पहली दस्तक यहीं होती है। यहां की दुकानों पर बैठा दुकानदार न सिर्फ माल बेचता है, बल्कि अपने ग्राहकों से रिश्ते भी बनाता है। यही वजह है कि ग्राहक एक बार नहीं, बार-बार लौटता है। लेकिन अब सवाल है कि क्या वे लौटेंगे, जब दुकानें ही नहीं रहेंगी?
इस बाजार में 90 प्रतिशत दुकानें किराए पर हैं, जिनके पास अपनी दुकान नहीं, सिर्फ एक सपना है। रोज की दिहाड़ी, बच्चों की फीस, घर की रोटी। जब दुकान टूटेगी, तब वह किराएदार कहां जाएगा? क्या वह फिर किसी गली में दोबारा खड़ा हो पाएगा? वहीं, कुछ लोग कहते हैं कि चौड़ी सड़क से विकास होगा। एंबुलेंस पहुंचेगी, फायर ब्रिगेड आएगी, श्रद्धालुओं को सहूलियत मिलेगी। सरकार का तर्क साफ है कि विकास जरूरी है, सड़कें चौड़ी होंगी तो सुविधा बढ़ेगी, बाबा के भक्त आसानी से पहुंचेंगे। दूसरी ओर, दुकानदारों का कहना है, “हमें हटाइए मत, हमें बस एक वैकल्पिक व्यवस्था दे दीजिए, कोई अंडरग्राउंड बाजार बना दीजिए, पर यूं बेघर मत करिए।”
आजीविका पर संकट या विकास की नई राह?
बनारस के दालमंडी से चौक थाना तक करीब 650 मीटर लंबी इस सड़क को 17.5 मीटर चौड़ा किया जाना प्रस्तावित है। लेकिन इस परियोजना ने स्थानीय व्यापारियों के बीच चिंता और असमंजस का माहौल बना दिया है। दालमंडी सालों पुरानी गली है और इस गली में करीब 10,000 दुकानें हैं, जिनमें साड़ियों, कपड़ों, जरी-जरदोज़ी, गहनों, इत्र और अन्य पारंपरिक बनारसी सामानों की खरीद-फरोख्त होती है। इन दुकानों का संचालन हिंदू और मुस्लिम दोनों समुदायों के लोग करते हैं, जो दशकों से यहां की अर्थव्यवस्था को मजबूती दे रहे हैं।
व्यापारी नेता बदरुद्दीन अहमद कहते हैं, “यह वही दालमंडी है, जहां की कोठियों में कभी आज़ादी के गीत गूंजे थे। जद्दनबाई, रसूलनबाई, राजेश्वर बाई के कोठे सिर्फ संगीत की महफिलें नहीं थे, वो एक आंदोलन के मंच थे। बिस्मिल्लाह खां साहब कहते थे कि अगर दालमंडी और उसकी तवायफें न होतीं, तो शायद बिस्मिल्लाह खां भी न होते। सोचिए, अगर कोई जगह एक भारत रत्न को गढ़ सकती है, तो क्या वो सिर्फ “अतिक्रमण” है? “
“यदि चौड़ीकरण के नाम पर उनकी दुकानें तोड़ी गईं या हटाई गईं, तो उनकी वर्षों की कमाई, पहचान और ग्राहक आधार सब कुछ बिखर जाएगा। कई दुकानें पुश्तैनी हैं, जिनसे कई परिवारों की रोज़ी-रोटी जुड़ी हुई है। दालमंडी के कारोबारी विकास के विरोध में नहीं हैं, बल्कि वे चाहते हैं कि यह विकास संतुलन के साथ हो। उनका यह भी कहना है कि प्रशासन यदि किसी वैकल्पिक योजना के तहत पुनर्वास और मुआवज़े की गारंटी दे, तो वे सहयोग के लिए तैयार हैं।”
बदरूद्दीन कहते हैं, “दालमंडी सिर्फ एक सड़क नहीं, बल्कि बनारस की नब्ज़ है। इसे चौड़ा करते समय यहां की रग-रग को समझना होगा, वरना ये प्रोजेक्ट विश्वास खो बैठेगा। काशी का सौंदर्य उसके मंदिरों और घाटों में ही नहीं, बल्कि उसकी गलियों में बसे उन व्यापारियों में भी है जो पीढ़ियों से यहां की संस्कृति और अर्थव्यवस्था का हिस्सा हैं। अगर यह प्रोजेक्ट व्यापारियों की सहभागिता और सहमति से आगे बढ़े, तो यह बनारस के लिए विकास और विरासत दोनों का सेतु बन सकता है।”
चश्मे के कारोबारी दिलशाद अहमद कहते हैं, “यह सिर्फ सड़क चौड़ी करने का मामला नहीं है। यह एक सांस्कृतिक और आर्थिक विरासत को विस्थापित करने की प्रक्रिया है, जहां न तो पुनर्वास की कोई ठोस योजना है और न ही संवाद की कोई ईमानदार कोशिश। दालमंडी में दुकानें नहीं, कहानियां टूटेंगी, ऐसी कहानियां जिनमें काशी की रूह बसती है। दालमंडी का बाजार टूटेगा, तो एक बनारसी इतिहास भी टूटेगा। वो इतिहास जो शहनाई की गूंज से शुरू हुआ, प्रेमचंद की कहानियों में बसा और आज मोबाइल रिपेयरिंग की दुकानों से लेकर ड्राई फ्रूट की खनक तक फैल चुका है।”
“काशी को सजाइए, संवारिए, मगर उसमें उसकी आत्मा को मत खोइए। वरना एक दिन, जब सब चौड़ी सड़कें बन जाएंगी, तो भी एक अधूरापन बचेगा। लोग कहेंगे, यहां कभी दालमंडी हुआ करती थी… और अब बस यादें हैं। आज वही दालमंडी सिर्फ दुकानों की गिनती में बदल दी गई है। दालमंडी की दुकानों के पीछे एक-एक इंसान है, एक-एक घर है, कई-कई कहानियां हैं। काशी को संवारने की बात हो रही है। लेकिन क्या कोई शहर सिर्फ चौड़ी सड़कों से सुंदर बनता है? क्या विकास का मतलब सिर्फ बुलडोजर है? बनारस की आत्मा तो उसकी गलियों में है, उसकी सोंधी आवाज़ों में है, उन दुकानों में बैठी माएं, पिता, बेटे और बेटियां जो सुबह से शाम तक अपने सपनों को तौलते हैं।”
उखड़ जाएंगी सैकड़ों घरों की सांसें
17 दिसंबर 2024 को जब नगर निगम की टीम पुलिस के साथ आई और नाप-जोख शुरू हुई, तब ये सिर्फ एक सरकारी कार्रवाई नहीं थी, ये चेतावनी थी। दुकानों की सीढ़ियां हटवाई गईं, फुटपाथ के लोहे के पायदान उठवाए गए। कहा गया कि सड़क चौड़ी होगी, रास्ता साफ होगा, श्रद्धालु आसानी से मंदिर तक पहुंचेंगे। लेकिन क्या इस सहूलियत के बदले हज़ारों दुकानदारों की ज़िंदगी बर्बाद करना ज़रूरी है?
कपड़े के दुकानदार इफ्तेखार कहते हैं, “किसी भी सरकार से हमें यह नहीं मिला कि जो उजड़े, उनका कुछ बना भी हो। विश्वनाथ कॉरिडोर के नाम पर जिनका सब कुछ गया, वे अब तक लापता हैं। अगर हमारी दुकानें टूटीं, तो हमारी पहचान, हमारी रोज़ी-रोटी, हमारे बच्चे, सब सड़क पर आ जाएंगे। ये सिर्फ बाज़ार नहीं है, ये हमारी पहचान है। हमारे बुज़ुर्गों ने जो बसाया, उसे हमारी आंखों के सामने तोड़ दिया जाएगा। हम कहां जाएंगे, कौन सुनेगा हमारी? सिर्फ एक सड़क बनाने से अगर कोई पूरा बाज़ार उजड़ जाए, तो वो विकास नहीं, विनाश है। सुधीर कुमार जैसे दुकानदार, जो पीढ़ियों से नमकीन और चिप्स बेचते आ रहे हैं, कहते हैं, “अगर दालमंडी उजड़ी, तो काशी का दिल टूट जाएगा।”
तीन दशक से दालमंडी में दुकान चला रहे अशोक पांडेय की आंखें बोलने से पहले ही भीग जाती हैं। वह कहते हैं, “हम तो जैसे-तैसे टिके हुए थे। जो लोग किराए की दुकान पर थे, वो तो सड़क पर आ जाएंगे। जिनके पास अपनी दुकान है, उनका आधा हिस्सा भी बच जाए तो बहुत है।” वो आगे जोड़ते हैं, “बचपन से यहीं की गलियों में धूल फांकी है, अब लगता है ज़िंदगी की कमाई किसी मशीन के ब्लू प्रिंट से रौंद दी जाएगी।”
वामिक, जिनके पिता गैस के सामान का कारोबार करते थे, अब खुद मोबाइल और इलेक्ट्रॉनिक्स की दुकान चलाते हैं। वह भावुक होकर कहते हैं, “अगर ये बाजार उजड़ गया तो थोक कारोबार खत्म हो जाएगा। हम दोबारा ग्राहक नहीं जोड़ पाएंगे। यहां सिर्फ खाने-पीने की दुकानें बचेंगी, असली व्यापार तो मिट जाएगा।” वो आगे कहते हैं, “ये दालमंडी सिर्फ ईंट-पत्थर का ढांचा नहीं है, ये रिश्तों का, यकीन का और बरसों की पहचान का नाम है।”
साल 1965 से कपड़े का धंधा कर रहे मोहम्मद ताज जब बात करते हैं तो उनकी आवाज़ में सिर्फ अनुभव नहीं, एक टूटन भी झलकती है। वह कहते हैं, “सच कहूं तो डर लगने लगा है। 90 फीसदी लोग फुटपाथ पर दुकान चलाते हैं, जिनके पास ना पुश्तैनी जमीन है, ना कोई दूसरा ठिकाना। यह बाज़ार टूटा तो ये लोग कहां जाएंगे?” फिर एक लंबी चुप्पी… जैसे उन्होंने खुद अपने ही सवाल का जवाब खो दिया हो।
कासिम रज़ा दो टूक कहते हैं, “बड़ी दुकान वालों को तो फिर भी कहीं ना कहीं एडजस्ट कर दिया जाएगा। मगर जो रोज़ की कमाई से बच्चों का पेट पालते हैं, उनके लिए ये फैसला मौत का फरमान है।” वे गुस्से और बेबसी से कहते हैं, “काशी का विकास ज़रूरी है, मगर विकास का मतलब यह नहीं कि जिनकी पीठ पर सदियों से यह शहर खड़ा है, उन्हीं को मिटा दिया जाए। 23 फीट चौड़ी सड़क चाहिए, तो क्या हमारी लाशें बिछा दी जाएं?”
“अगर सरकार चाहती तो अंडरग्राउंड मार्केट बना सकती थी, हमें उसी में जगह दे सकती थी। इससे सबका भला होता।” एक बुजुर्ग दुकानदार जिनकी दुकान पर कभी बिस्मिल्लाह ख़ान आया करते थे। उन दिनों को याद करते हुए कहते हैं, “इस बाजार में संगीत, तहज़ीब और कारोबार साथ-साथ पले हैं। इसे अगर बुलडोज़र से बराबर कर दिया गया, तो काशी से वो बनारसी रईसी, वो अदब, वो सौंदर्यबोध भी चला जाएगा।”
चौड़ी सड़क से बदलेगा क्षेत्र का चेहरा
नगर आयुक्त अक्षत वर्मा कहते हैं कि, “दालमंडी गली को 17.5 मीटर तक चौड़ा किया जाएगा। यह सड़क दालमंडी कपड़ा मंडी से शुरू होकर चौक थाने पर जाकर खत्म होती है। वर्तमान में यह सड़क कहीं 9 मीटर तो कहीं केवल तीन मीटर चौड़ी है, जिस पर करीब 10 हजार दुकानें हैं। इनमें हिंदू और मुस्लिम दोनों समुदायों के व्यापारी सक्रिय हैं। इस परियोजना के अंतर्गत दिल्ली के पालिका बाजार की तर्ज पर अंडरग्राउंड मार्केट भी बनाया जाएगा, ताकि ज़मीन पर अतिक्रमण कम हो और व्यापारियों को व्यवस्थित स्थान मिल सके।”
लोक निर्माण विभाग पहले अतिक्रमण हटाएगा, फिर सड़क निर्माण का कार्य शुरू होगा। बिजली की आपूर्ति को बेहतर बनाने के लिए अंडरग्राउंड केबिल बिछाई जाएंगी और सीवर लाइन को नए सिरे से डाला जाएगा। इससे न केवल व्यापारियों और स्थानीय लोगों को फायदा होगा बल्कि शहर की छवि भी बदलेगी। दालमंडी के चौड़ीकरण के दौरान सीवर, पेयजल लाइनों के अलावा बिजली के तारों को भूमिगत करने की योजना है। इस पूरे कार्य के लिए पीडब्ल्यूडी ने 220 करोड़ रुपये का प्रस्ताव बनाया है। जिसके लिए टेंडर प्रक्रिया शुरू की गई है। जिन दुकानदारों के मकान तोड़े जाएंगे उन्हें करीब 195 करोड़ रुपये बतौर मुआवजा दिया जाएगा, जबकि बाकी धनराशि का इस्तेमाल चौड़ीकरण कार्य में लगाया जाएगा।”
नगर आयुक्त यह भी कहते हैं, “दालमंडी और उसके आस-पास करीब 20 हजार की आबादी आज भी मूलभूत सुविधाओं से वंचित है। थोक बाजार में न तो पार्किंग की सुविधा है और न ही संकरी गलियों में पुलिस गश्त संभव हो पाती है। श्रद्धालु जब बेनिया के रास्ते मंदिर जाते हैं, तो उन्हें लगभग 2.5 किलोमीटर की दूरी तय करनी पड़ती है, जबकि दालमंडी रोड के चौड़ी होने पर यह दूरी घटकर मात्र एक किलोमीटर रह जाएगी। हम चाहते हैं कि विकास हो, मगर उनके रोजगार और परंपरागत बाजार की आत्मा सुरक्षित रहे। यदि स्थानीय व्यापारी समुदाय की सहभागिता और सहमति के साथ यह योजना आगे बढ़ती है, तो यह इलाका काशी की आधुनिकता और परंपरा का सुंदर संगम बन सकता है।”
ज्ञानवापी मस्जिद के पैरोकार और अंजुमन इंतज़ामिया मसाजिद कमेटी के संयुक्त सचिव एसएम यासीन भी सरकार की मंशा पर सवाल उठा चुके हैं। दालमंडी के विकास की योजना बनाने से पहले न कोई सार्वजनिक बैठक हुई और न ही कोई नक्शा सामने आया है। बस आदेशों की तलवार लटका दी गई है। क्या इसी तरह बिना संवाद के कोई बाज़ार उजाड़ा जा सकता है? क्या हज़ारों लोगों की रोज़ी-रोटी इतनी हल्की है कि उसे एक झटके में मिटा दिया जाए? काशी को सजाने-संवारने की ज़रूरत है, इसमें कोई दो राय नहीं। लेकिन क्या उस सज़ावट के लिए उसकी आत्मा को कुचला जाना ज़रूरी है? क्या कोई रास्ता ऐसा नहीं जहां सड़क भी बने, मंदिर का रास्ता भी आसान हो, और व्यापारी भी न उजड़ें?
यासीन कहते हैं, “दालमंडी सिर्फ एक सड़क नहीं, बल्कि बनारस के दिल की धड़कन है। यह वह जगह है जहां सुबहें इबादत से शुरू होती हैं और रातें कारोबार की चहल-पहल में डूबती हैं। यहां की गलियां, दीवारें, दुकानें और लोग सब कुछ मिलकर एक ऐसा जीवन बनाते हैं जिसे किसी मशीन से नहीं समझा जा सकता। काशी की आत्मा को समझने के लिए उसके नक्शे नहीं, उसकी गलियों में चलना होगा। हाईकोर्ट का यह आदेश भले ही अस्थायी राहत हो, लेकिन यह उम्मीद ज़रूर देता है कि विकास के नाम पर उजाड़ने से पहले इंसानियत, संवाद और न्याय की ज़मीन तैयार की जाएगी।”
“दालमंडी के लोग अभी भी अपने बाज़ार, अपने घर और अपनी तहज़ीब को बचाने की लड़ाई में खड़े हैं। बिल्कुल शांत, लेकिन दृढ़। अब नज़रें 20 मई पर हैं। जब सरकार को जवाब देना होगा, और दालमंडी को अपना भविष्य। अगर दालमंडी उजड़ गई, तो सिर्फ दुकानों की दीवारें नहीं टूटेंगी, यहां की संस्कृति, यहां की रूह और बनारस की सदियों पुरानी गंगा-जमुनी तहज़ीब टूटेगी। क्या सिर्फ सहूलियत के नाम पर एक ज़िंदा विरासत को मलबे में बदल देना ठीक है? दालमंडी की पहचान केवल व्यापार नहीं रही। यहां संगीत, कला और अदब की भी एक पूरी दुनिया रही है। यह इलाका कभी बनारसी रईसी, नज़ाकत और तहजीब का केंद्र रहा है। यहां की शामें सुरों में डूबी होती थीं, अदाओं में बसी होती थीं।
(विजय विनीत बनारस के वरिष्ठ पत्रकार हैं)