प्रयागराज के इसौटा लोहंगपुर में गेहूँ की पूलों में जलाकर मारा गया दलित युवक देवीशंकर और थरथराती रही मानवता!

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प्रयागराज। 12 अप्रैल की सुबह कोई आम सुबह नहीं थी। यह वो सुबह थी जिसमें इंसाफ ने करवट लेना छोड़ दिया था, और मानवता ने आँखें मूँद ली थीं। सूरज अब तक अपनी पहली किरण धरती पर नहीं उतार पाया था, लेकिन इसौटा लोहंगपुर गाँव की एक मिट्टी पहले ही राख में तब्दील हो चुकी थी-एक बेटा, जो कभी खेतों में भविष्य बोता था, अब उसी धरती की चुप्पी में भस्म हो चुका था।

भोर के करीब साढ़े पाँच बजे, कुछ किसान खेतों की ओर जा रहे थे। रास्ते के किनारे महुए के बाग के पास कुछ अधजली स्याही-सी गंध उठ रही थी। पास जाकर देखा तो एक अधजला शरीर था-जैसे किसी ने एक आदमी नहीं, एक पूरी जाति को जिंदा जला दिया हो। पहचानने की हिम्मत किसी में नहीं थी, लेकिन जब सच सामने आया, तो गाँव की हवा भी रो पड़ी। वह शरीर था देवीशंकर का।

देवीशंकर-एक दलित, एक पिता, एक मेहनतकश इंसान। वह कोई अपराधी नहीं था, बस इतना ही था कि उसकी जाति नीची मानी जाती थी। उसकी माँ पहले ही दुनिया छोड़ चुकी थी, पत्नी भी एक साल पहले बीमारी से चल बसी थी। तीन छोटे-छोटे बच्चों का सहारा अब सिर्फ़ दो लोग थे-देवीशंकर और उसके बूढ़े पिता अशोक कुमार। अशोक की आँखें अभी भी उस रात के दृश्य में अटकी हैं। वह बताते हैं-“गाँव के ही चार लड़के आए थे। बोले, गेहूँ की मड़ाई करवानी है। मैंने ख़ुद देखा, मेरा बेटा उनके साथ गया। रातभर उसका इंतज़ार करता रहा। सोचा, देर लग गई होगी। पर सुबह जब शोर सुना, और वहाँ गया… तो मेरा बेटा नहीं, उसकी राख मिली।”

गेहूँ की पूलों में बाँधकर उसे जिंदा जला दिया गया। आँखों के सामने जलती हुई उम्मीदों की लपटें अब भी अशोक की आवाज़ में जलती हैं। वह कहते हैं कि इस हत्या के पीछे गाँव के ही दबंग दिलीप सिंह उर्फ छुट्टन सिंह और उसके साथी हैं, जिनसे देवीशंकर का कुछ रुपये को लेकर विवाद भी चल रहा था। पुलिस ने शिकायत के आधार पर सात लोगों को नामित करते हुए छह को हिरासत में लिया है। लेकिन सवाल यह है कि क्या हिरासत से इंसाफ़ मिल जाएगा? क्या एक दलित का जिंदा जल जाना सिर्फ़ एफआईआर की चारदीवारी में सिमट जाएगा?

घटना के बाद मौके पर मौजूद भीड़

देवीशंकर केवल खेतों में मज़दूरी ही नहीं करता था, वह शादियों में बाजा भी बजाता था। एक कलाकार, एक कमाऊ बेटा, एक संघर्षरत पिता-उसकी ज़िंदगी का हर तार किसी न किसी ज़िम्मेदारी से जुड़ा था। लेकिन गाँव के दबंगों के लिए उसकी सबसे बड़ी पहचान उसकी जाति थी, और शायद यही उसकी मौत का कारण भी बनी।

गाँव के प्रत्यक्षदर्शियों ने बताया कि शव के हाथ बँधे हुए थे। यानी हत्या के बाद ही नहीं, उसे पहले बाँधा गया, शायद चीखने, भागने, या लड़ने से रोकने के लिए। यह कोई हत्या नहीं, यह मानवता के ख़िलाफ़ साज़िश थी। पुलिस जब मौके पर पहुँची, तो परिजनों और ग्रामीणों का गुस्सा फूट पड़ा। छुट्टन सिंह और उसके परिवार के सदस्यों पर आरोप लगाते हुए उन्होंने गिरफ़्तारी की माँग की और यहाँ तक कि आरोपियों के घर को घेर लिया। पुलिस ने बड़ी मुश्किल से उन्हें बचाकर थाने पहुँचाया।

“जब बेटियाँ चुप होती हैं, तो आकाश सिसकता है”

गाँव के बीच बने उस कच्चे घर के कोने में बैठी काजल की आँखें अब रो नहीं रही। वह सिर्फ़ देख रही है। सामने दरवाजे की चौखट पर टँगा है उसके पिता देवीशंकर का फ़ोटो-धुंधला-सा, राख में लिपटा हुआ। तस्वीर में मुस्कान है, लेकिन घर में अब कोई बात नहीं करता। माँ बहुत पहले चली गई थी। अब पिता भी राख हो गए। और काजल… वह बच्ची अब बच्ची नहीं रही।

प्रयागराज में दलित युवक की हत्या के बाद मौके पर तैनात पुलिस

उसने पहली बार अपना नाम चुपचाप मिट्टी में लिखा और फिर रगड़ दिया-जैसे नाम से बड़ा कोई दर्द हो सकता है। उसके दोनों छोटे भाई, आकाश और सूरज, अब खेत की मूँज पहचानने लगे हैं। वे समझने लगे हैं कि ‘स्कूल’ नाम का सपना अब केवल दूसरों के बच्चों का होता है।

दलित समुदाय से जुड़े लोगों का कहना है कि देवीशंकर की मौत सिर्फ़ हत्या नहीं थी, यह एक जातिसूचक घोषणा थी। एक संदेश था कि दलित अगर मुस्कुराए भी, तो वह किसी को चुभ सकता है। गाँव के लोग आज भी कहते हैं, “हमें कुछ नहीं पता।” आँखें चुराकर निकल जाते हैं, और बच्चे रास्ते बदल लेते हैं। देवीशंकर की लाश तो जल गई, लेकिन उसके साथ जल गईं उन तीनों बच्चों की कहानियाँ, जो शायद किताबों में होतीं, शायद अख़बारों में मुस्कुराती तस्वीरों में होतीं। आज वे बस ख़बर के नीचे एक कोने में दबा दी गई हैं, ‘मृतक के तीन बच्चे हैं।’

पुलिस अब यह तय करने में लगी है कि देवीशंकर को जिंदा जलाया गया या बाद में। जैसे फ़र्क़ पड़ता हो। मानो हत्या की वहशत को शब्दों से तोला जा सकता हो। इंसान मर गया, मगर व्यवस्था अब भी “स्पष्टता” तलाश रही है। काजल की चुप्पी में जो तूफ़ान है, वह किसी नोटिस बोर्ड पर नहीं चिपकाया जा सकता। उसकी आँखों में जो ख़ालीपन है, उसमें पूरी व्यवस्था का आईना झलकता है।

क्या इंसाफ़ मिलेगा?

दलित परिवार को क्या इंसाफ़ मिलेगा? यह सवाल अब इसौटा लोहंगपुर के हर दलित घर की दीवारों पर एक सपने-सा एहसास बन गया है। घरों में, जहाँ अब भी रोटी से ज़्यादा डर पक रहा है। जहाँ रातें केवल अंधेरे में नहीं, बल्कि उस ख़ामोशी में डूब जाती हैं, जो किसी चीख़ के बाद बचती है। जहाँ काजल अपनी किताबों से ज़्यादा अब अपने पिता की तस्वीर से बातें करती है। जहाँ सूरज और आकाश के मन में अब पढ़ाई से पहले यह डर है कि क्या वे कल लौट पाएँगे, अगर किसी ऊँची जाति के खेत में काम करने जाएँ?

यह ख़बर नहीं है, यह कराह है, एक चीख़ है, जो गले में अटककर रह गई और पूछ रही है-क्या दलित होना अब भी गुनाह है? देवीशंकर के भतीजे राहुल की बात में एक गूँगी सच्चाई थी, “शाम को कुछ लोग आए थे, बोले गेहूँ कटवाना है… चाचा को साथ ले गए, फिर कुछ पता नहीं चला।” उसके चेहरे पर न आँसू थे, न आवाज़-सिर्फ़ सन्नाटा था और आँखों में एक सवाल, क्या चाचा की लाश ही लौटनी थी?

13 अप्रैल की रात पोस्टमॉर्टम के बाद देवीशंकर का बलपूर्वक अंतिम संस्कार करा दिया गया। पुलिस की यह कार्रवाई संवेदना नहीं, एक आदेश थी-जो चीख़ती भीड़ को शांत करना चाहती थी, पर वह भूल गई कि आँच अगर दिल में हो, तो वह राख होकर भी जलती रहती है। गाँव की गली में जब शव को ठेले पर रखा गया, तो लोगों ने पुलिस को रोक लिया, रास्ता रोक लिया, सिर्फ़ इसलिए कि उनकी एक ही माँग थी-इंसाफ़। उन्होंने कहा, “हमें संवेदना नहीं चाहिए, हमें न्याय चाहिए।”

अशोक कुमार, जो देवीशंकर के पिता हैं, उनके लिए यह सिर्फ़ पुत्र की मौत नहीं थी, यह चेतावनी थी कि इस देश में दलित जीवन की कीमत अब भी एक अधजली राख जितनी ही है। वह कहता है, “मुझे मालूम है मेरा बेटा अब नहीं आएगा, लेकिन क्या कोई व्यवस्था इतनी भी नहीं बदल सकती कि कम-से-कम किसी और की औलाद को ज़िंदा रहने का हक़ मिले?” उसकी आँखों में बची है तो बस एक उम्मीद कि शायद यह मौत इतिहास की फ़ाइल में एक केस बनकर धूल न खाए।

गाँव में तनाव बरक़रार है, जैसे कोई भूचाल थम गया हो, पर धरती अब भी काँप रही हो। गाँव की औरतें, बूढ़े, बच्चे-सभी सड़क पर थे। और उनके हाथ में न तो लाठी थी, न पत्थर-बस कुछ माँगें थीं: सात करोड़ रुपये का मुआवज़ा, लाइसेंसी सुरक्षा, और एक पक्का मकान। पुलिस आई, नेताओं की गाड़ियाँ आईं, कांग्रेस सांसद उज्ज्वल रमण सिंह और प्रदेश अध्यक्ष अजय राय भी पहुँचे, लेकिन जनता का गुस्सा ऐसा था कि उनकी गाड़ियाँ रोक दी गईं। क़रीब ढाई घंटे तक हनुमान मोरी रोड पर जाम लगा रहा।

पुलिस कह रही थी कि मामले की जाँच चल रही है, छह लोगों को गिरफ़्तार कर लिया गया है-मोहित गुप्ता, अजय सिंह, मनोज सिंह, सोनू सिंह, शेखर सिंह, और नामित आरोपी छुट्टन सिंह। पर गाँव में सभी जानते हैं कि छुट्टन अब भी फ़रार है। उसकी तलाश चल रही है या उसे छुपाया जा रहा है, यह सवाल हवा में गूँज रहा है। पुलिस की भूमिका को लेकर दलित समुदाय में इतना गुस्सा है कि लोगों ने साफ़ कहा, “इसौटा को अब संवेदना नहीं, कार्रवाई चाहिए।”

अभियुक्तों की जमीन पर चला बुलुडोजर

शाम को बुलडोज़र चला, उन खेतों पर जहाँ से देवीशंकर की लाश मिली थी। लेकिन क्या यह न्याय है या मीडिया के लिए एक दृश्य? करछना के एसीपी वरुण कुमार कहते हैं कि देवीशंकर को काम के बहाने चार युवक ले गए थे और सुबह उसकी जली हुई लाश मिली। परिवार का आरोप है कि उसे ज़िंदा जलाया गया। शरीर की हालत देखकर भी यही लगता है, पर पुलिस कहती है कि अभी कुछ भी कहना जल्दबाज़ी होगी। छह लोगों से पूछताछ हो रही है, लेकिन उनके बयानों में विरोधाभास है।

पुलिस कई एंगल से जाँच कर रही है, पर गाँव जानता है कि न्याय अगर देरी से आया, तो वह भी एक अन्याय बन जाएगा। गाँव के एक नौजवान ने कहा, “देवीशंकर का नाम सिर्फ़ एक नाम था? वह एक पिता था, एक किसान था, एक इंसान था, जो चाहता था कि उसकी बेटी पढ़े, उसके बेटे ज़िंदा रहें। इसौटा अब सिर्फ़ एक गाँव नहीं है। यह प्रतीक है उस भारत का, जो दलित ख़ून में बहती आग को अब भी केवल ‘मामला’ मानता है। यह लोकतंत्र अगर सचमुच ज़िंदा है, तो उसे यह जवाब देना होगा कि क्या इंसाफ़ मिलेगा या फिर यह सवाल भी उसी राख में दब जाएगा, जहाँ एक जीवन जलाया गया था?”

सियासी हलकों में गरमाया मुद्दा

इसौटा लोहंगपुर की जलती चिता की राख अब सियासत की चौखट तक पहुँच चुकी है। देवीशंकर की मौत की लौ अब सिर्फ़ उनके गाँव तक सीमित नहीं रही, बल्कि उसने सत्ता के गलियारों को भी झकझोर कर रख दिया है। दलित युवक को ज़िंदा जलाने की इस वीभत्स घटना ने पूरे प्रदेश को असहज कर दिया है और यही वजह है कि अब यह मामला सिर्फ़ अपराध नहीं, बल्कि राजनीतिक विमर्श का केंद्रीय मुद्दा बन चुका है।

कांग्रेस, समाजवादी पार्टी, और बहुजन समाज पार्टी ने इस कृत्य की तीव्र निंदा करते हुए सरकार से तत्काल, निर्णायक, और पारदर्शी कार्रवाई की माँग की है। इन दलों ने इसे दलित समुदाय के ख़िलाफ़ लंबे समय से जारी दमन और उत्पीड़न की एक और कड़ी करार दिया है। कांग्रेस पार्टी ने स्पष्ट कर दिया है कि यदि पीड़ित परिवार को जल्द और पूर्ण न्याय नहीं मिला, तो वे केवल धरना या ज्ञापन तक सीमित नहीं रहेंगे, बल्कि सड़क से लेकर संसद तक संघर्ष करेंगे।

उत्तर प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष अजय राय ने कहा, “सुप्रीम कोर्ट पहले ही कह चुका है कि यूपी में क़ानून-व्यवस्था नाम की कोई चीज़ नहीं बची है और यह घटना उसकी पुष्टि है। यह राज्य अब गुंडाराज का गढ़ बन गया है। मोहन भागवत को चाहिए कि वे योगी आदित्यनाथ से इस्तीफ़ा दिलवाकर उन्हें वापस मठ में भेज दें।”

अजय राय, कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष

वहीं, कांग्रेस सांसद उज्ज्वल रमण सिंह, जो मौके पर पहुँचे, उन्होंने कहा, “दलित भाई को ज़िंदा जलाना केवल एक व्यक्ति की हत्या नहीं, बल्कि पूरी मानवता पर हमला है। यह एक सभ्य समाज के लिए कलंक है। हम माँग करते हैं कि दोषियों को कठोरतम सजा दी जाए और देवीशंकर के परिवार को कम-से-कम 50 लाख रुपये की आर्थिक सहायता मिले। यह सिर्फ़ एक पीड़ित परिवार की नहीं, पूरे समाज की लड़ाई है और हम यह लड़ाई निर्णायक रूप से लड़ेंगे।”

बहुजन समाज पार्टी की मुखिया मायावती ने भी इस घटना पर गहरा दुख व्यक्त करते हुए X पर लिखा, “सामंती मानसिकता वाले तत्वों ने एक निर्दोष दलित की जान ले ली। यह अति-दुखद और अति-चिंताजनक है। सरकार को चाहिए कि वह ऐसे असामाजिक, आपराधिक, और जातिवादी तत्वों पर सख्त कार्रवाई करे, जिससे प्रदेश में क़ानून का राज स्थापित हो सके। साथ ही, दलित प्रतीकों और बाबा साहब अंबेडकर की प्रतिमाओं के अनादर की घटनाओं को भी सरकार पूरी गंभीरता से ले, क्योंकि यही घटनाएँ समाज में विभाजन और तनाव को जन्म देती हैं।”

समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव ने भी इस पर तीखी प्रतिक्रिया दी। उन्होंने X पर लिखा, “प्रयागराज में प्रभुत्ववादी ताक़तों ने एक दलित युवक को ज़िंदा जलाकर मार दिया। यह सत्तासीन मानसिकता का नंगा प्रदर्शन है, जहाँ सत्ता का संरक्षण अपराधियों को खुली छूट देता है। बाबा साहब की जयंती से ठीक पहले इस तरह की घटना करके कुछ लोग यह जताना चाहते हैं कि वे समाज के ऊपर राज करने का हक़ रखते हैं। यह एक बीमार और हिंसक मानसिकता का प्रतीक है। क्या अब सरकार उन दबंगों के घरों पर बुलडोज़र चलाने का नैतिक साहस दिखा पाएगी या फिर अपराधियों के आगे नतमस्तक हो जाएगी?”

यही नहीं, राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (NCRB) के आँकड़े भी इस सामाजिक सच्चाई की तस्दीक करते हैं। 2023 में उत्तर प्रदेश में दलितों पर अत्याचार के 13,000 से अधिक मामले दर्ज हुए, जो यह दर्शाता है कि यह घटना कोई अपवाद नहीं, बल्कि एक ख़तरनाक प्रवृत्ति का हिस्सा है। इसौटा की घटना को लेकर बढ़ते सियासी दबाव ने प्रशासन को फ़ौरी तौर पर सक्रिय तो कर दिया है, लेकिन दलित समुदाय की माँगें अब केवल मुआवज़ा या गिरफ़्तारी तक नहीं हैं। वे एक स्थायी और संरचनात्मक बदलाव चाहते हैं, जहाँ जाति नफ़रत का आधार न बने और इंसान की ज़िंदगी उसकी जाति से तय न हो।

राजनीतिक प्रेक्षकों का कहना है कि अब यह सवाल केवल देवीशंकर के परिवार का नहीं है, यह सवाल उस भारत का है, जो संविधान के मूल्यों की दुहाई तो देता है, लेकिन जब किसी दलित की ज़िंदगी राख होती है, तब उसकी आँखें बंद हो जाती हैं। घटना के बाद यह सवाल गूँज रहा है कि क्या वास्तव में संविधान का राज है या फिर अब भी एक वर्ग का अधिपत्य क़ायम है? क्या होगा उन बच्चों का? क्या वे भी किसी दिन खेतों में अपनी ज़िंदगी गाड़ देंगे? या फिर इस राख से कोई उम्मीद फूटेगी?

(आराधना पांडेय स्वतंत्र पत्रकार हैं)

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